Columnist

असंभव सी लगने वाली जीत

दिवाकर मुक्तिबोध
एग्जिट पोल के तमाम परिणामों को पीछे धकेलते हुए आम आदमी पार्टी ने दिल्ली राज्य विधानसभा के चुनावों में अप्रतिम सफलता हासिल की है. यह इस बात का संकेत है कि राजनीति में बदलाव की बयार जो लोकसभा चुनावों के बाद ठहरी सी लग रही थी, वह दरअसल भीतर ही भीतर तेज रफ्तार से दौड़ रही थी जिसे न तो एग्जिट पोल ठीक से भांप पाए और न ही दिल्ली के बाहर के लोग, देश के लोग सोच पाए. यद्यपि चुनाव पूर्वानुमानों ने इतना संकेत तो जरुर दे दिया था कि अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पाटीज़् इस बार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में लौट रही है लेकिन नतीजे एक तरफ होंगे, कल्पनातीत था. आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की 70 सीटों में से 67 सीटें जीतकर एक ऐसा कीर्तिमान रचा है जो भविष्य में शायद ही कभी टूट पाए.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की जुगलबंदी से आल्हादित भाजपा चुनाव के पूर्व आश्वस्त थी कि जिस तरह हरियाणा, महाराष्ट्र एवं जम्मू कश्मीर में पार्टी ने झंडे गाड़े, उससे कही बेहतर कामयाबी उसे दिल्ली में मिलेगी क्योंकि वह अब पाटीज़् का एक ऐसा गढ़ है जिसे भेदना न तो आम आदमी पार्टी के बस में होगा और न ही कांग्रेस के. इस सोच के पीछे कारण था दिल्ली की सभी लोकसभा सीटें भाजपा के कब्जे में है और कैंट चुनावों में भी उसे आशातीत सफलता मिली थी. पार्टी को भरोसा था, मोदी लहर फिर अपना चमत्कार दिखाएगी.

चमत्कार की प्रत्याशा में पार्टी के तमाम प्रभावशाली नेताओं, कार्यकर्ताओं एवं स्वयं प्रधानमंत्री मोदी एवं अमित शाह ने प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ी. एक तरह से उन्होंने पूरी दिल्ली को मत डाला और जब लोगों ने बढ़-चढक़र मतदान में हिस्सा लिया, प्रतिशत का रिकार्ड कायम किया तो भाजपा की बांछे खिल गई. पार्टी भारी बहुमत के साथ सत्तासीन होने के ख्वाब को हकीकत में बदलते देखने बेताब थी लेकिन जब नतीजे सामने आए, वे बौखलाने के लिए काफी थे. मोदी-अमित का जादू केजरीवाल के सामने इस तरह बिखर जाएगा, सोचना भी कठिन था.

पार्टी ने सन 2013 के विधानसभा चुनाव में 33 सीटें जीती थीं जो घटकर सिर्फ 3 रह गई. इतना बड़ा झटका! इतना बड़ा उलटफेर! पार्टी का हैरान होना, मायूस होना, एक बुरे सपने की तरह स्वाभाविक है. दिल्ली के चुनाव ने भाजपा को ऐसा सबक दिया है जो शायद इसके लिए जरुरी भी था क्योंकि लोकसभा एवं बाद में कुछ राज्य विधानसभा के चुनाव परिणामों ने पार्टी को अहंकार के ऐसे रथ पर सवार कर दिया था जो बिना आगे-पीछे देख सरपट भागता है और किसी एक मौके पर एक हल्की सी ठोकर से धड़ाम से गिर जाता है. दिल्ली चुनावों ने भाजपा के साथ यही सलूक किया है.

दिल्ली विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी के जीतने के कई कारण है. पहला बड़ा कारण है भाजपा का नकारात्मक प्रचार अभियान. ‘आप’ और केजरीवाल के खिलाफ जितना जहर उगला जा सकता था, नेताओं ने उगला लेकिन राज्य के मतदाताओं को ऐसा करना पसंद नहीं आया. दूसरा बड़ा कारण था अरविंद केजरीवाल की साफगोई.

सन 2013 में मात्र 49 दिनों में दिल्ली की सत्ता छोडऩे एवं बाद में लोकसभा चुनावों में बढ़-चढक़र किए गए दावों के ध्वस्त होने से ऐसा आभास होने लगा था कि ‘आप’ की राजनीतिक हैसियत खत्म होने के कगार पर है किन्तु दिल्ली चुनावों की तिथि की घोषणा होने के पूर्व से ही, लोकसभा चुनाव में फीके प्रदर्शम के बावजूद, केजरीवाल की पार्टी ने दिल्ली की जनता से नाता नहीं तोड़ा और अपनी गलतियां स्वीकार करते हुए उन कारणों का खुलासा किया जिनकी वजह से पार्टी को दिल्ली की सत्ता छोडऩी पड़ी थी. केजरीवाल और पार्टी नेताओं की यह साफगोई जाहिर है जनता को लुभा गई.

‘आप’ की भारी बहुमत के साथ सत्ता में वापसी के और भी कारण हंै किन्तु नतीजों को देखने के बाद यह स्पष्ट है कि दिल्ली के मतदाताओं ने पहले से ही अपना मानस बना लिया था कि उसे किसे वोट करना है. जब मतदाता ऐसा विचार करते हैं तो स्वाभाविक है कि विचार धीरे-धीरे निर्णायक रुप से ऐसी लहर में तब्दील हो जाता है, जो तमाम अवरोधों को कुचल देता है. दिल्ली की जनता-लहर ने भाजपा और कांग्रेस को ऐसा पटका कि वह उफ तक नहीं कर पाई. कांग्रेस की हार फिर भी समझ में आती है. उसे पिछले चुनाव में सिर्फ 8 सीटें मिली थीं और इस बार तो उसका खाता भी नहीं खुला. यानी उसे 8 सीटों का सीधा नुकसान हुआ किन्तु बीजेपी का पिछली 33 सीटों की तुलना में सिर्फ तीन तक सिमट जाना, कांग्रेस से कही ज्यादा भयावह है. पार्टी इस हार को आसानी से इसलिए भी नहीं पचा पाएगी क्योंकि दिल्ली में अब मोदी नहीं केजरीवाल का सिक्का चलेगा. पार्टी नेतृत्व के लिए जाहिर है यह बेहद कष्टप्रद होगा.

बहरहाल इस असंभव से लगने वाले बहुमत के साथ आम आदमी पार्टी अब निश्चिंत होकर वे तमाम वायदे पूरे कर सकती है जो उसने जनता से कर रखे हैं. अब कोई अड़चन नहीं. अलबत्ता विकास के मुद्दे पर केन्द्र के साथ उसका तालमेल काफी मायने रखेगा. यदि टकराव की राजनीति चली तो मुद्दे पीछे छूटते जाएंगे हालांकि इसकी संभावना न्यून है क्योंकि ‘आप’ को आखिरकार अपने राजनीतिक भविष्य के लिए जनता को जवाब देना है. दरअसल दिल्ली चुनावों ने आम आदमी पार्टी को बड़ा सम्बल दिया है. उसे वहीं मंच पुन: मिल गया है जहां से वर्ष 2013 में कभी उसकी गर्जना को देश की जनता ध्यान से सुन रही थी और एक वैकल्पिक राजनीति का स्वागत करने आतुर थी किन्तु सांगठनिक ढांचे की कमजोरियों एवं कुछ राजनीतिक भूलों के चलते ऐसा नहीं हो पाया.

अब आम आदमी पार्टी को भाजपा और कांग्रेस का राष्ट्रीय विकल्प बनना है तो उसे सबसे अधिक अपने संगठन के विस्तार और उसकी मजबूती पर ध्यान देना होगा. दिल्ली को छोडक़र देश के अन्य राज्यों में संगठन या तो है ही नहीं या लचर है. इसी वर्ष अक्टूबर-नवंबर में बिहार में विधानसभा चुनाव होने है और उसके बाद अगले वर्ष के मध्य में प. बंगाल, केरल, पांडिचेरी और असम में चुनाव होंगे. ‘आप’ के लिए ये चुनाव एक अवसर की तरह है. अब यह देखने की बात है कि पार्टी दिल्ली में ही खुश रहेगी या उसका विस्तार चाहेगी.

*लेखक हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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