Columnist

केवल अफसरों की ही चिंता क्यों?

देविंदर शर्मा
हमारी व्यवस्था किस तरह काम करती है इस पर एक नजर डालें. एक ओर जहां, सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक अधिकारियों को हर साल 21,000 रुपए धुलाई भत्ता के रुप में मिलते हैं, वहीं देश के 17 राज्यों या लगभग आधे देश में किसानों की सालाना शुद्ध आय महज 20,000 रुपए है (2016 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक). मैं सोचता हूं, क्या किसानों के पास धुलवाने के लिए कपड़े नहीं हैं? केवल धुलाई भत्ता ही नहीं, कर्मचारियों को परिवार नियोजन भत्ता भी मिलता है, जिसमें गर्भनिरोधक खरीदने का खर्च भी शामिल होता है. पर क्या ऐसा कभी हुआ है कि किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किए जाते समय उसमें परिवार नियोजन भत्ते को भी शामिल किया गया हो?

समाज के अलग-अलग वर्गों में दिखाई देने वाली ये आय की विसंगतियां यहीं खत्म नहीं हो जातीं. सरकार ने अभी खरीफ की 14 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का ऐलान बड़े जोर-शोर के साथ किया है. इनमें खेती की लागत (ए2) के साथ मजूदरों की लागत (एफएल) और परिवार के सदस्यों की मजदूरी भी जोड़ी गई है. इस ए2+एफएल लागत के अलावा सरकार ने दावा किया है कि उसने खरीफ की फसलों के लिए जिस एमएसपी का ऐलान किया है, उससे किसान को समूची लागत पर 50 फीसदी मुनाफा होगा.

कृषि मूल्य एवं लागत आयोग (सीएसीपी) द्वारा तय सी2 लागत पर ही एमएसपी का यह नया फार्मूला गढ़ा गया है जो कि स्वामिनाथन आयोग की सिफारिशों का वास्तविक आधार है. नए एमएसपी के ऐलान के बाद इस वृद्धि को ऐतिहासिक बताया जा रहा है और कहा जा रहा है कि इससे सरकारी खजाने पर 15 हजार करोड़ का बोझ आएगा. अब इसकी तुलना सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों से करें जिनका फायदा केंद्र सरकार के 45 लाख कर्मचारियों और 50 लाख पेंशनरों को मिलना था.

इन सिफारिशों के लागू होने से हर साल 1.02 लाख करोड़ रुपयों का अतिरिक्त खर्च बढ़ा था. वित्तीय संस्थान क्रेडिट सुज़ी बैंक की एक स्टडी के मुताबिक, जब सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें राज्यों में लागू होंगी तो इससे हर साल लगभग 4.5 लाख करोड़ रुपयों से लेकर 4.80 करोड़ रुपयों तक का वित्तीय बोझ आएगा. पर उस समय किसी ने नहीं पूछा कि यह पैसा कहां से आएगा और ना ही किसी अर्थशास्त्री ने सवाल उठाया कि इससे राजकोषीय घाटा कितना बढ़ेगा. लेकिन खरीफ फसलों के एमएसपी लागू होने पर 15000 करोड़ रुपए कहां से आएंगे यह सवाल खूब पूछा जा रहा है.

देखा जाए तो यह राशि केंद्र सरकार के कर्मचारियों को दिए जाने वाले सालाना महंगाई भत्ते के बराबर है. पर किसी ने कभी यह सवाल नहीं किया कि साल दर साल कर्मचारियों को मंहगाई भत्ता देने के लिए पैसा कहां से आएगा. इससे किसानों के प्रति पक्षपात साफ दिखाई देता है. सरकारी सेवाओं में न्यूनतम वेतन 18000 रुपए प्रति माह है इसके अलावा उन्हें 108 किस्म के भत्ते भी मिलते हैं. हालांकि इनमें से अधिकांश भत्ते रक्षा सेवाओं, अर्ध सैनिक बलों और रेलवे कर्मचारियों के लिए हैं लेकिन वे जिस मद में दिए जाते हैं उन्हें जानना रोचक है.

वेतन वृद्धि के बाद 39,100 करोड़ रुपए बढ़े हुए वेतन के रूप में और 29,300 करोड़ रुपए बढ़े हुए भत्तों के रूप में देने होंगे. इस तरह भत्ते मासिक वेतन का बहुत अहम हिस्सा होते हैं. चूंकि बेसिक सैलरी भी बढ़ी है इसलिए वेतन आयोग ने सिफारिश की है कि मकान किराया भत्ता भी क्लास एक्स, वाई, जेड शहरों के लिए क्रमश: 24,16 और 8 पर्सेंट बढ़ा दिया जाए. क्या आपने कभी सुना है कि किसान की लागत में मकान किराया भत्ता शामिल किया गया है (भले ही यह ए2 लागत का महज 10 पर्सेंट हो)? या फिर शिक्षा भत्ता, चिकित्सा भत्ता या यात्रा भत्ता देने की बात कही गई हो.

तमाम अध्ययनों से स्पष्ट है कि जब भी किसी छोटे किसान के परिवार में कोई बीमार पड़ता है, तो वह परिवार गरीबी रेखा से नीचे चला जाता है. किसान की मामूली सी कमाई का 40 पर्सेंट हिस्सा उसके परिवार के स्वास्थ्य पर खर्च हो जाता है. क्या हमने कभी सोचा है कि एक किसान के लिए अपने बच्चों को ठीक-ठाक स्तर की शिक्षा दे पाना भी कितना मुश्किल काम है?

एक उदाहरण काफी है, अगस्त 2017 में महाराष्ट्र के यवतमाल क्षेत्र के एक छोटे से किसान के 22 साल के ग्रेजुएट बेटे गोपाल बाबाराव राठौड़ ने आत्महत्या से पहले एक लिखित संदेश छोड़ा था. इसमें उसने जो सवाल पूछे थे वह यह बताने के लिए काफी हैं कि हमारी आय नीति कितनी असंगत है. अपने सुसाइड नोट में उसने पूछा था, “,एक अध्यापक का बेटा इंजीनियर बनने के लिए आसानी से एक लाख रुपयों का बंदोबस्त कर सकता है पर मुझे बताइए कि एक किसान का बेटा इतनी फीस का इंतजाम कैसे करेगा?”

अपने खत में उसने आगे लिखा था, “ऐसा क्यों है कि वेतन पाने वाले कर्मचारियों को तो बिना पूछे महंगाई भत्ता मिलता है लेकिन किसानों को तो उनकी उपज का वाजिब दाम देने से भी इनकार कर दिया जाता है.” मैंने कुछ समय पहले कर्मचारियों के मूल वेतन में आए जबर्दस्त उछाल और किसानों को मिलने वाले एमएसपी की तुलना की थी.

आपको एक बार फिर याद दिला दूं कि मैंने क्या कहा था. 1970 में जब एक अध्यापक का एक महीने का वेतन 90 रुपए था उस समय गेहूं का एमएसपी 76 रुपए प्रति क्विंटल था. 45 साल बाद, 2015 में गेहूं का एमएसपी 19 गुना बढ़कर 1,450 रुपए प्रति क्विंटल हो गया. मैंने इसी अवधि के दौरान विभिन्न कर्मचारियों के मूल वेतन और महंगाई भत्ते (इसमें दूसरे भत्ते शामिल नहीं हैं) का अध्ययन किया.

एक सरकारी कर्मचारी के लिए यह बढ़ोतरी 150 से 170 गुना थी, कॉलेज/यूनिवर्सिटी के लेक्चरर/प्रोफेसर के लिए भी यह 150 से 170 गुना थी और एक स्कूल टीचर के लिए बढ़त 280 से 300 गुना देखी गई. दूसरे शब्दों में खेती से होने वाली आय लगभग स्थिर रही. आर्थिक सहयोग तथा विकास संगठन (ओईसीडी) की ताजा रिपोर्ट भी इसी का समर्थन करती है जिसमें कहा गया है कि पिछले दो दशकों के दौरान कृषि आय में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई. इससे स्पष्ट है कि किसानों को लगातार उनकी वाजिब आय से वंचित रखा गया है.

अब इस सवाल का जवाब देना जरूरी है कि यह कैसे सुनिश्चित हो कि किसानों को भी ऐसा एमएसपी मिले जो सरकारी कर्मचारियों के वेतन के बराबर हो. मेरे विचार में बेहतर हो कि कृषि लागत तय करने का काम लागत लेखाकारों या कॉस्ट अकाउंटेंट को दे दिया जाए. लागत लेखाकार औद्योगिक उत्पादों की कीमत तय करते हैं, मैंने किसी उद्योग को अपने उत्पाद की लागत या मुनाफे के मार्जिन को लेकर शिकायत करते नहीं देखा. इसलिए मेरा सुझाव है कि फसलों की लागत तय करने वाले कृषि कीमत एवं लागत आयोग की बागडोर अर्थशास्त्री की जगह किसी लागत लेखाकार को सौंपी जाए.

error: Content is protected !!