Social Media

बदले हुए पतों वाले लिफाफों की पहुँच

दिनेश चौधरी | फेसबुक
बहुत दिनों से कुछ लिखा नहीं, पर लिखे बिना अपना गुजारा नहीं होता. किराने वाले ने महीने के राशन का बिल भेज दिया होगा. पहले ‘लेखक हैं’ कहकर कुछ लिहाज कर देता था पर वह भी अब कब तक करे?

अब किरानियों की पहले जैसी आमदनी नहीं रही. बड़े-बड़े मॉल खुल गए हैं. उन दिनों मोहल्ले के लोग छोटे-छोटे दुकानों में जाते थे. दुआ-सलाम बनी रहती थी. कभी हँसी-ठठ्ठा हो जाता था, कभी चाय-पानी भी. एक रिश्ता तो बहरहाल होता ही था. हिसाब लिखवा दिया जाता या गिनकर पैसे दिए जाते. हाथों में कुछ स्पर्श होता था और एक आत्मीयता बनी रहती थी.

अब तो यह है कि काउन्टर से सामान उठाया, मशीन से बिल बना, फोन से चुका दिया. लेने वाला दिहाड़ी मजदूर भी मशीन है. लेन-दिन की प्रक्रिया में वह सिर्फ एक टूल है. स्पर्श तो क्या यहाँ निगाहें भी नहीं मिलती.

यह एक नया समाज है, जो बाजार बना रहा है. दुनिया भी नयी है. नये-नये अजूबे हैं, इसीलिए एक नया निबंध लिख रहा हूँ -“क्रांतिकारी की फिसलन.” थोड़ा अजीब लग रहा होगा पर फिसलन सब तरफ होती है. उधर भी, इधर भी. जमाना बदल गया है.

हमारे समय में सिद्धांतों की बात होती थी लेकिन अब सुविधाएं सबसे ऊपर है. यह शीर्ष पर जाने से हासिल होती है, अलबत्ता रास्ता कुछ उल्टा है. फिसलन जितनी तेज होगी, आप उतनी ही जल्दी ऊँचाई पर पहुँचते जायेंगे. नैतिकता, सिद्धांत, आत्मसम्मान जैसी फालतू पड़ी चीजों को लोगों ने कबाड़खाने में फेंक दिया है.

कभी-कभार उत्सव-जयंती वगैरह के मौकों पर इन्हें झाड़-पोंछकर सजा दिया जाता है. ये एंटीक चीजें हैं, सिर्फ देखने-सजाने के काम की हैं; असल जीवन में इनकी कोई उपयोगिता नहीं रह गयी है. कोई उपयोग करने की कोशिश करे भी तो उसे संदेह की नज़रों से देखा जाता है.

जल्द ही यह सब चीजें किताबों में भी नजर नहीं आएंगी. मौकापरस्ती को ही श्रेष्ठ मूल्य बताया जाएगा क्योंकि तय करने वाले भी वही लोग हैं. वे अब निर्णायक भूमिका में आ गए हैं. कबीर आज के समय में होते तो उन्हें कैसी-कैसी उलटबांसियाँ रचनी पड़तीं!

कला जनता के नाम प्रेम-पत्र होती है और शासक के लिए अभियोग-पत्र. लेखकों-कलाकरों-कवियों ने लिफाफों में पते बदल दिए हैं. इधर की चिट्ठी उधर भेजने लगे और उधर वाली इधर. राजधानी पहुँचने वाली इन चिट्ठियों के बदले में उन्हें ओहदे मिले, ग्रांट मिले, पुरस्कार मिले. महंगे होटल, लकदक गेस्ट-हॉउस, हवाई यात्रा, पुरस्कार, सम्मान, फेलोशिप की लत पड़ गयी.

अब उन्हें लगता है कि यह उनका बुनियादी अधिकार है. पहले जनता से कुछ सरोकार होते थे, अब सरोकार गायब हो गए. जनता ने उन्हें गायब कर दिया, पर इससे उनकी सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता. मैं जब भी सफलता के दर्प से चमचमाते चेहरों को देखता हूँ, समझ जाता हूँ कि ये लिफाफों में पते बदल देने की प्रक्रिया से उपजी अवैध संतानें हैं.

मेरे अपने लोगों ने भी मेरे साथ कोई अच्छा सलूक़ नहीं किया. मर-खप कर जितना लिखा, सब एक झटके में भुला देने की कवायद करते रहे. जन्मशती- उत्सव धूम-धाम से मना लिए जाने के बाद लग रहा है कि बेरोजगार-सा हो गया हूँ. घर से बेटी की बिदाई हो जाने के बाद खाली शामियाने के नीचे बैठे बाप को ऐसा ही महसूस होता है. अब उस तरह से कोई याद भी नहीं कर रहा है, जैसा हल्ला कुछ दिनों पहले तक लोगों ने मचाया हुआ था. अपने यहाँ लोग उत्सवधर्मी है. एक को मनाकर भूल जाते हैं और दूसरे की तैयारी में लग जाते हैं.

किसी ने पूछा “परसाई जी! आपको बुरा तो नहीं लग रहा है?”

मैंने कहा कि, “मैं बुरे लोगों का कतई बुरा नहीं मानता. उत्सव-धर्मी तो अकाल का भी उत्सव मना लेते हैं. बाढ़, महामारी, मृत्यु का भी. अपने इधर शवयात्रा में मैंने बैंड बजते हुए देखा है. लोग महामारी में ताली-थाली भी बजा लेते हैं. कभी-कभी तो मुझे लगता है कि लोग मूर्खतापूर्ण काम करते ही इसलिए हैं कि परसाई को कुछ लिखने के लिए मिल जाए…बेचारे की रोजी-रोटी इसी से चलती है. लेकिन वे परोपकारी नहीं प्रशिक्षित मूर्ख और धूर्त हैं. उन्हें पता चले कि उनकी मूर्खता से किसी का भला हो रहा है तो वे फौरन इसे त्याग देंगे.”

बहरहाल, अपनी जन्मशती का अनुभव बहुत खराब रहा. जैसा सोच रखा था, वैसा कुछ नहीं हुआ. होना भी यही था. हिंदी के लेखकों के भरोसे कुछ भी नहीं छोड़ा जा सकता. वे कोई काम ढंग का नहीं कर सकते. इनमें से आधे तो प्रोफेसर हैं, जिनके बारे में कुछ भी न कहा जाए तो बेहतर है. अस्तभान ने नागफनी को प्रेम-पत्र लिखा तो एक हजरात ने उसे नॉवेल के बदले मेकेनिकल इंजीनियरिंग की किताब में भिजवा दिया. बेचारी प्रेमिका खडूस बाप के हाथों धर ली गयी. जो इतना सा काम ढंग से नहीं कर सकते, वो जन्म-शती का आयोजन क्या खाक करेंगे?

संगठनों में बूढ़े लोग कुर्सी से चिपके हुए हैं. एक-एक आदमी कई-कई संगठनों में हैं पर गनीमत है कि एक ही पद पर हैं. इनका बस चले तो सारे पद खुद ही हथिया लें-वन मैन आर्मी! ऐसे जवान जो बस फूँक मारने से ढेर हो जाएँ. ये बूढ़े उम्र से नहीं हैं, विचारों से हैं. कुछ नया करने के लिए न उनके पास ऊर्जा बची है, न इच्छा शक्ति. सिर्फ खुद के लिए लायजनिंग के काम में लगे हुए हैं. किसी और को बढ़ते हुए नहीं देख सकते.

नए लोगों से, तरुणों से, किशोरों से संवाद करने के लिए उनके पास कोई भाषा नहीं है. वे जिस जुबान में आम-अवाम से बात करना चाहते हैं, वह उनके पल्ले नहीं पड़ती. सच कहा जाए तो खुद उनके पल्ले नहीं पड़ती. रटे-रटाए जुमले हैं. उबाऊ, ठस्स और बोझिल. वे मेरी भाषा ही नहीं पकड़ सके तो ख्यालात क्या खाक पकड़ते.

बहुत सारी समितियां बनी मेरी जन्मशती के नाम पर. उत्सव भी मना लिया पर अभी तक चंदे का हिसाब किसी ने नहीं दिया. प्रकाशकों ने अग्रिम रॉयल्टी की बात कहकर किताबें छापीं, उनका भी कोई पता नहीं है. कहीं मूर्ति वगैरह लगाने की बात हुई थी पर किसका कमीशन क्या होगा यह भी नहीं बताया गया.

मेरे नाम पर किसी पुरस्कार की घोषणा नहीं हुई, न किसी विश्विद्यालय ने शोधपीठ की स्थापना की. कोई बड़ा विवाद भी नहीं हुआ. लेखकों ने आपस में जूतमपैजार तो क्या, गाली-गलौज तक नहीं की जबकि दूसरे मौकों पर वे इसी काम में लगे रहते हैं. इतनी नीरस जन्मशती तो किसी छायावादी कवि की भी नहीं होती.

मेरे नाम पर बहुत सारे संस्मरण लिखे गए. कुछ ने जीवनी भी लिखी. पढ़कर आनन्द आया. मुझे अपने बारे में नयी-नयी जानकारियां हासिल हुईं. अपनी महानता के बारे में मुझे जीते-जी पता नहीं था. पता होता तो उन्हें किसी न किसी तरह ‘कैश’ करा लेता.

सच्चे लेखक को अपना भला करने में कभी भी चूकना नहीं चाहिए. जो लेखक अपना भला नहीं कर सकता, वह भला समाज का क्या भला करेगा? वैसे यह तथ्य अज्ञात है कि लेखकों को समाज का भला करने का जिम्मा कब और किसने दिया? लेखकों को सिर्फ अपने भले की सोचना चाहिए. खासतौर पर कवियों को.

समाज में कवियों की संख्या बहुत ज्यादा है. सब अपना-अपना भला कर लें तो समाज का भला होना तय है. सम्मान-पुरस्कार के लिए जोड़-तोड़ करना, गोष्ठियों में शामिल होने की जुगत भिड़ाना, एक-दूसरे को बुलाकर प्रमोट करना, अकादमी-शोधपीठ में घुसने की तिकड़म लगाना, अपनी रचनाओं को कोर्स में लगवाने के लिए भागदौड़ करना ही साहित्यकार का सच्चा धर्म है. जिनके भीतर यह प्रतिभा न हो उन्हें हिंदी साहित्य से तुरंत प्रभाव से बेदखल कर दिया जाना चाहिए.

खेद है कि जन्मशती वर्ष में अब तक ‘परसाई शोध-पीठ’ की स्थापना नहीं की जा सकी है. ‘परसाई मेमोरियल एकेडमी’ भी नहीं बनी. बनती तो इनकी अध्यक्षता के लिए मैंने बहुत से नाम सोच रखे थे. प्रस्ताव आने पर अवश्य ही मैं कुछ नामों की सिफारिश करता. बगैर सिफारिश के किसी भी पद पर बैठे व्यक्ति को अयोग्य माने जाने के स्पष्ट प्रावधान होने चाहिए. वैसे एक राज की बात यह है कि इनमें से किसी एक का अध्यक्ष मैं खुद ही बनना चाहता था. यह मैं डिजर्व करता हूं.

मैं जिंदगी भर टूटहे मकान में रहा. बारिश में छत टपकती थी और गर्मियों में भभकती थी. दीवार से पलस्तर उखड़े हुए थे. इनमें सीलन हमेशा मौजूद होती. किवाड़ों को बंद करने पर वे बड़ी डरावनी आवाजें निकालते थे. ऐसे हालात में कम से कम अब तो मेरे लिए किसी बड़ी इमारत में एक वातानुकूलित चैंबर होना चाहिए था, जिसमें आबनूस की गोलाकार मेज के पीछे मैं रिवॉल्विंग चेयर पर बैठे हुए सिगार के कश ले पाता. यह ख्याल मुझे ‘हंस’ के दफ्तर में राजेंद्र को झूलते हुए पाइप पीते देखकर आया था.

अवधेश ने मेरी पेंटिंग बनाई. पेंटिंग के कैलेंडर बन गए. यूरोप-अमेरिका में यह काम होता तो लेखक की मूल पेंटिंग करोड़ों में बिकती. हिंदुस्तान में लेखक के साथ असल चीजों की कोई कीमत नहीं होती. नकली माल बिकता है. पेंटिंग नहीं बिकी, पेंटिंग पर बने कैलेंडर बिक गये.

कैलेंडर की उम्र एक बरस की होती है. इसके बाद वह दीवार से बेदखल हो जाता है. चमकीले कागजों वाली तस्वीर का इस्तेमाल अब बच्चे भी नहीं करते, क्योंकि उनके हाथों में मोबाइल है. पहले टेलीफोन था तो मैंने कहा था कि दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं, जो एक दूसरे की सूरत देखना पसंद नहीं करते पर बात करना जरूरी होता है, इसीलिए टेलीफोन का अविष्कार हुआ.

अब हालात ये हैं कि लोग एक-दूसरे की आवाज भी नहीं सुनना चाहते, चैटिंग से काम निकाल लेते हैं. आगे अक्षर भी चुक जायेंगे और चित्र-लिपि की वापसी होगी. होने लगी है. बहरहाल, उतरे हुए कैलेंडर गृहणियों के काम आने वाले हैं. उन्हें किचन की रैक में प्याले या बर्तनों के नीचे सजाकर बिछा दिया जाएगा. हिंदी लेखक की यही सदगति है!

व्यंग्यकारों के साथ एक बड़ी त्रासदी यह होती है कि परिहास में कही गयी उनकी बातों को कभी-कभी गम्भीरता से ले लिया जाता है और अक्सर गम्भीरता से कही गयी बात को परिहास में. रेणु और मोहन राकेश मेरे ही उपनाम थे, यह बात मैंने गम्भीरता के साथ कही थी. प्रकाशकों ने इसे परिहास में लिया और इन नामों से छपी किताबों की रॉयल्टी नहीं भेजी. वे अविलम्ब भांजे प्रकाश के नाम चेक रवाना करें, अन्यथा कानूनी कार्रवाई की जाएगी.

मैंने जो भी चिट्ठी-पत्री लिखी, कायदे से लिखी. पतों में हेरफेर नहीं की. इधर कुछ डाकिये ही बेईमानी करने लगे हैं, पर उनका कुछ नहीं किया जा सकता-“तुझसे तो कुछ कलाम नहीं लेकिन ऐ नदीम/मेरा सलाम कहियो अगर नामाबर मिले.”

error: Content is protected !!