नरेंद्र की याद
कनक तिवारी
अद्भुत समाजवादी विचारक राममनोहर लोहिया ने कई मौलिक बातें कही हैं. हालांकि असाधारण चिंतक को जतन से महिमामंडित किए गए हिन्दुस्तानी नेताओं की फेहरिश्त में नीयतन शामिल नहीं किया गया. उन्होंने मारक बात कही कि व्यक्ति का हो न हो, इतिहास का पुनर्जन्म होता है.
आज होते तो अपने कथन की उलटबांसी देखते. इतिहास प्रतिइतिहास के पुनर्जन्म में बदल रहा है. नरेन्द्र नाम में व्यक्तियों का दुहराव है.
असली, और मूल नरेन्द्र विवेकानन्द यश के शिखर में तब्दील हुए. उनका इतिहास पर कायम रहने का दबाव स्थायी है. वक्त और मूल्य चाहे जितने बदलें. असली नरेन्द्र यादों में केवल झिलमिलाते नहीं. प्रकाश पुंज की तरह भविष्य के लाइट हाउस बने रोशनी दे रहे हैं.
नरेन्द्र ने भारतीय की परिभाषा में सबको शामिल करने का सबसे पहले नायाब आह्वान किया. उनके मुताबिक हिन्दुस्तान अकेला देश है, जहां सबसे ज्यादा बाहरी मजहबों भी मसलन ईसाई, मुस्लिम, यहूदी, पारसी, और तमाम छोटे बड़े धर्मकुलों को दिल खोलकर, बाहें फैलाकर पनाह दी गई है.
ये मजहब भारत में शरणार्थी बनकर आए थे, लेकिन स्थायी आदिवास में रह गए. भारतीय संस्कृति और तहजीब ने उन्हें अपनी आगोश में कर अपना ही बना लिया. भारत को मादरे वतन समझकर ये सभी मजहब अधिकार और समरसता के साथ रहते आए हैं. अपने निजी और सामाजिक अधिकारों के लिए वे समय समय पर जद्दोजहद भी करते हैं. ऐसी अनोखी उदारता दुनिया में किसी और देश में कहीं नहीं है.
मूल नरेन्द्र भारतीय संस्कृति और इस्लामी सभ्यता का नया मौलिक यौगिक बिखेरना चाहते थे. नरेन्द्र में हिन्दुस्तानी समझ की ऐसी ही भविष्यमूलक आंखें रही हैं.
मूल नरेन्द्र सफल और अमर वकील विश्वनाथ दत्त के बेटे में साधुत्व भर गया था. मां और बहन की फाकामस्ती दूर करने भोजन तक का इंतजाम नहीं कर पाए. मानवता की रक्षा में परिवार के जीवन यापन को ही होम कर दिया. पानी पीकर जिए लेकिन मकसद हासिल किया. हिन्दुतान की आवाज, सांस और सुगंधि बन गए.
नरेन्द्र नाम रखकर किसी की अगुवाई में देश का बड़ा धड़ा संविधान के मकसद सेक्युलरिज़्म का मज़ाक उड़ाता है. शासकीय पंथनिरपेक्षता और सामाजिक धर्मसहजता भारत का चरित्र है. इसमें भेद विभेद क्यों पैदा किया जा रहा है?
केवल नाम रखने से क्या होता है? नरेन्द्र नाम रखकर कोई दोनों आंखों पर नारंगी चश्मा लगाकर नज़र से देश को देख रहा है. नरेन्द्र नाम रखकर भी अलबत्ता जातीय और साम्प्रदायिक लीपापोती करने की चतुर राजनीतिक कोशिश की जाती है.
सामाजिक कुलीनता की खलनायकी को सत्तानशीन होने का मौका मिल जाता है. ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ग के लोगों के पास देश की अधिकांश दौलत और राजनीतिक सत्ता रही आई है. नरेन्द्र होना केवल नामधारी होना नहीं होता!
रामकृष्ण मिशन की शिक्षाओं का सेक्युलर यश भी भारत के खाते में नहीं आया. मूल नरेन्द्र के लिए एक झूठा वाक्य मुस्कराहट पर चढ़कर बेचा जा रहा है. यह कि उन्होंने कहा था ‘गर्व से कहो मैं हिन्दू हूं.’
इतना नहीं कहकर लेकिन इसके आगे मूल नरेन्द्र ने बहुत कुछ कहा था. वे कहते थे गरीबों, मुफलिसों, चांडालों, भिक्षुओं, बीमारों और हर तरह के अकिंचन हिन्दुओं के साथ हम हिन्दू हैं.
आज नरेन्द्र नाम रखकर भी ऐसी सभाओं में नहीं जाते जहां गंदगी, बदबू, गरीबी, प्रदूषण वगैरह की बयार बह रही हो. पांच सात सितारा होटलों और एयरकंडीशन्ड कमरों के इंद्रधनुषी विदेशी सभागृहों में चिकना चुपड़ा चेहरा लिए मुखातिब होते रहते हैं. अपनी शिक्षा की डिग्री तक नहीं बताते. देश को सूचना के अधिकार तथा हाई कोर्ट जाकर भी उनकी शैक्षणिक योग्यता के बारे में जानकारी नहीं है.
मूल नरेन्द्र अमेरिका से भारत के लिए धन का जुगाड़ करने गए थे. लेकिन उन्होंने अमेरिका और यूरोप को भारतीय आध्यात्मिकता से सींचा. वे अमेरिकी राष्ट्रपतियों को सिर पर नहीं बिठाते थे.
यह अजीब संयोग है कि अमेरिकी आजादी के दिन 4 जुलाई को मूल नरेन्द्र का महाप्रयाण हुआ.
4 जुलाई, 1902. आज भी सामान्य दिन है. अलसुबह इस संन्यासी ने सदैव की तरह तीन घण्टे ध्यान किया. आश्रम में सदैव की भांति चहलकदमी की. अन्य संन्यासी साथियों के साथ भोजन किया. अगले दिन काली पूजा करने के सम्बन्ध में निर्देश जारी किये.
शुक्ल यजुर्वेद के एक कठिन श्लोक की रसमयी व्याख्या की. लगातार तीन घण्टे तक ब्रम्हचारियों को पाणिनि की व्याकरण पढ़ाई. स्वामी प्रेमानन्द के साथ संध्या भ्रमण किया. उन्हें एक वैदिक महाविद्यालय खोलने के सम्बन्ध में निर्देश दिये जो सामाजिक कुराीतियों और रूढ़ियों के खिलाफ लड़ाई करे. आश्रम के संन्यासियों से थोड़ी बहुत बातचीत की.
शाम को अपने कक्ष में जाकर ध्यानमग्न यह संन्यासी ऐसी समाधि में प्रवेश कर गया जहां से भौतिक रूप से वापस आना सम्भव नहीं होता. उसे महासमाधि कहते हैं.