सांप्रदायिकता की सामाजिक न्याय पर जीत
डॉ. संदीप पांडेय
1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू करने के बाद से, 1997 से 2002 के पांच वर्ष का कार्यकाल यदि छोड़ दें जिस दौरान बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद बनी पहली भारतीय जनता पार्टी सरकार के शासन में दो सवर्ण राम प्रकाश गुप्ता व राजनाथ सिंह मुख्य मंत्री बने, सभी मुख्य मंत्री अन्य पिछड़ा वर्ग अथवा अनुसूचित जाति से रहे हैं. 1989 का दौर सामाजिक न्याय के दौर के रूप में जाना जाता है, जिसमें उन वर्गों जिनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं था, या अपनी आबादी के अनुपात में नहीं था, को सत्ता प्राप्त हुई.
बहुजन समाज पार्टी का तो नारा था ‘जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी भागीदारी.’ 1989 से पहले ज्यादातर सवर्ण और वह भी ब्राह्मण या ठाकुर मुख्य मंत्री ही रहे. सामाजिक न्याय की राजनीति वंचित तबकों की सत्ता में भागादारी का सफल प्रयोग माना जाएगा. दुनिया में ऐसे उदाहरण कहां है कि समाज के सबसे निचले तबके की और वह भी महिला संविधान सम्मत एक चुनावी प्रक्रिया से सत्तारूढ़ होती है. बल्कि उत्तर प्रदेश का उदाहरण तो गुजरात जैसे राज्यों में साम्प्रदायिक राजनीति से लड़ने का एक सफल तरीका माना जाता था. किंतु हुआ उल्टा ही. गुजरात में सामाजिक न्याय की राजनीति स्थापित नहीं हो पाई और साम्प्रदायिक राजनीति ने सामाजिक न्याय की राजनीति को उत्तर प्रदेश में परास्त कर दिया. इसके साथ ही उत्तर प्रदेश की राजनीति में सवर्णों का वर्चस्व पुनः बहाल हो गया.
यह एक विडम्बना है कि अन्य पिछड़ा वर्ग बहुल राज्य में यदि योगी आदित्यनाथ UP के CM होंगे को चुनाव पूर्व मुख्य मंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया गया होता तो शायद भाजपा चुनाव नहीं जीत पाती. गैर-यादव अन्य पिछड़ा वर्ग के मत प्राप्त करने के लिए केशव प्रसाद मौर्य को भाजपा का अध्यक्ष बनाया गया था. चालाकी से चुनाव जीतने के बाद एक सवर्ण को मुख्य मंत्री के रूप में थोप दिया गया है क्योंकि भाजपा की मूल विचारधारा व मत आधार सवर्णों के बीच ही है. किंतु सवर्णों का मत आधार चुनाव जीतने के लिए पर्याप्त नहीं है. इसलिए इस बार भाजपा ने गैर-चमार-जाटव मत पाने के लिए भी काफी जोर लगाया.
भाजपा के संभ्रांत समर्थकों को लगता है कि अब जातिवाद की राजनीति खत्म होगी, जाति के बजाए योग्यता मापदण्ड होगा, कानून और व्यवस्था का राज होगा और भ्रष्टाचार समाप्त होगा. यह साफ है यदि भाजपा ने जाति का गुणा-गणित नहीं बैठाया होता तो वह चुनाव न जीत पाती और भाजपा के सत्ता में आने से न सिर्फ ब्राह्मणवादी यानी गैर-बराबरी बनाए रखने वाली शक्तियां मजबूत होगीं बल्कि उसमें साम्प्रदायिकता का भी अच्छा-खासा सम्मिश्रण होगा. मुख्य मंत्री के खिलाफ तीन मुकदमे दर्ज हैं जिनमें भारतीय दण्ड संहिता की 7 गम्भीर धाराएं हैं. उनके खिलाफ दो समूहों के बीच द्वेष फैलाने, धार्मिक स्थल को अपवित्र करने व आपराधिक धमकी देने जैसे आरोप हैं. एक बार जब गोरखपुर के जिलाधिकारी ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया था तो योगी संसद में रोए थे क्योंकि उनको अपनी जान को खतरा महसूस हो रहा था. शायद योगी को अहसास ही न हो कि उनके कार्यकर्ताओं द्वारा सताए गए लोगों व उनके परिवार जनों को भी इसी तरह की असुरक्षा महसूस हुई होगी.
उप मुख्य मंत्री केशव प्रसाद मौर्य के खिलाफ ग्यारह मामले दर्ज हैं जिनमें 15 गम्भीर धाराएं हैं. योगी मंत्रीमण्डल के 44 में से 20 मंत्रियों के खिलाफ मामले दर्ज हैं जिनमें से 17 के खिलाफ गम्भीर धाराएं हैं. 35 मंत्री तो करोड़पति हैं. क्या ये इनकी जायज सम्पत्ति है? क्या इन सभी ने अपना विधान सभा चुनाव चुनाव आयोग द्वारा तय खर्च सीमा के अंदर खर्च करते हुए लड़ा है? भाजपा के संभ्रांत समर्थकों पर हंसी आती है जो भाजपा को कोई बेहतर पार्टी मानते हैं.
हाल में सम्पन्न हुए उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में भाजपा को 39.7 प्रतिशत मत मिले. अपने सहयोगी दलों अपना दल व सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ यह प्रतिशत 41.4 पहुंच जाता है. समाजवादी पार्टी और बसपा दोनों को मिला कर 44 प्रतिशत मत मिले. कांग्रेस के मत मिला कर धर्मनिर्पेक्ष दलों का प्रतिशत 50.2 पहुंच जाता है. अतः सामाजिक न्याय की राजनीति को अभी भी उत्तर प्रदेश में बहुसंख्यक जनता का समर्थन प्राप्त है.
यदि सपा व बसपा यह चुनाव मिल कर लड़े होते, जैसे कि अखिलेश यादव ने बिहार में जनता दल (यूनाइटेड) व राष्ट्रीय जनता दल की भाजपा पर निर्णायक जीत के बाद सुझाव के रूप में रखा भी था, तो यह गठबंधन 403 में से 239 सीटें प्राप्त कर भाजपा को आसानी से परास्त कर सकता था. यदि इस गठबंधन में क्रांगेस भी शामिल होती तो महागठबंधन को 282 सीटें मिल जातीं और यदि राष्ट्रीय लोक दल और भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी जैसे समान विचारों वाले छोटे दल भी शामिल हो जाते तो महागठबंघन को 296 सीटें तक हासिल हो सकती थीं. अखिलेश यादव का 300 सीटें जीतने का सपना तब पूरा हो सकता था.
उपर्युक्त गणित के मद्देनजर सपा और बसपा को बात करने की जरूरत है ताकि एक मुलायम सिंह-कांशीराम जैसे गठबंधन की सम्भावना तलाशी जा सके. मायावती जिनके सामने राजनीतिक सन्यास मुंह बाए खड़ा है को सपा के प्रति अपना द्वेष छोड़ना पड़ेगा. वैसे भी शायद उनको मुलायम सिंह या शिवपाल से बात नहीं करना पड़ेगी जिनसे उन्हें परहेज होगा. अखिलेश से तो वे बात कर ही सकती हैं जिन्होंने उन्हें हमेशा बुआ कह कर सम्बोधित किया है. किंतु अखिलेश को शायद गठबंधन का नेतृत्व मायावती को सौंपना पड़ेगा क्योंकि वे ज्यादा वंचित समाज का प्रतिनिधित्व करती हैं और दोनों में ज्यादा वरिष्ठ भी हैं. यदि अखिलेश भाजपा को सत्ताच्युत करना चाहते हैं तो उन्हें यह त्याग करना पड़ेगा.
भाजपा संवैधानिक मूल्यों जैसे समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, सम्प्रभुता व यहां तक कि लोकतंत्र को भी कमजोर कर रही है. जो दल और व्यक्ति इन मूल्यों को महत्वपूर्ण मानते हैं, उन्हें साथ में आकर हिन्दुत्व की इस साजिश को नाकाम करना पड़ेगा.
* लेखक मैगसेसे से सम्मानित सामाजिक कार्यकर्ता हैं.