विद्या भैया: अंतरंग यादें!
कनक तिवारी
बीस वर्ष पहले विद्याचरण शुक्ल के जन्मदिन पर उनके अंतरंग सहयोगी रहे कनक तिवारी ने यह लेख लिखा था. मध्यप्रदेश कांग्रेस कमेटी के पूर्व महामंत्री कनक तिवारी का यह लेख लगभग आज भी उसी तरह पढ़ा जाने लायक है. शुक्ल तब नरसिंह राव मंत्रिमंडल के सदस्य तथा लोकसभा के सबसे वरिष्ठ सदस्य थे. उन्होंने छत्तीसगढ़ तथा मध्यप्रदेश के किसी भी राजनेता के मुकाबले केन्द्रीय राजनीति में सबसे अधिक महत्वपूर्ण योगदान किया है. शुक्ल ने नरसिंह राव सरकार के सामने उपस्थित कई चुनौतियों से सरकार को उबारने के सफल प्रयत्न भी किए थे. 11 जून 2013 को गुड़गांव के मेदांता अस्पताल में उनकी दोपहर मृत्यु हो गई. उन्हें बस्तर की दरभा घाटी में नक्सलियों द्वारा किए गए अंधाधुंध गोलीबार में कांग्रेसी काफिले में रहने के दौरान चार गोलियां छाती और पेट में लगी थीं. -सम्पादक
नये मध्यप्रदेश के निर्माता पंडित रविशंकर शुक्ल भूगोल के केंद्र मध्यप्रदेश की राजनीति के केंद्र में यदि नहीं होते तो छत्तीसगढ़ सियासी दौड़ में फिसड्डी ही होता. अपनी तमाम उल्लेखनीय सफलताओं के अंतिम पड़ाव में भिलाई इस्पात कारखाने जैसा लौह तोहफा कक्का जी ने अपने बेटों की पीढ़ी के सुपुर्द किया. भिलाई इस्पात संयंत्र छत्तीसगढ़ की औद्योगिक रफ्तार की दौड़ में मील का पहला पत्थर है. लोहे का वह ताजमहल एक नायाब उपलब्धि की तरह स्मरणीय है. रायपुर प्रदेश की भौगोलिक, ऐतिहासिक, व्यापारिक, औद्योगिक और राजनीतिक उथल-पुथल की सबसे मजबूत धड़कन बनता जा रहा है और सात जिलों का छत्तीसगढ़ के नाम से मशहूर समुच्चय प्रदेश की सरकारों को बिगाड़ने की प्राथमिक प्रयोगशाला बन गया है.
कोई यह कहे कि दूरदर्शन, हवाई अड्डा, आकाशवाणी, द्वुतगामी रेलगाड़ियों और तमाम उद्योग इकाइयों के छत्तीसगढ़ में उगाने का श्रेय मुख्यतः विद्या भैया को जाता है तो उसमें विवाद की गुंजाइश कहां है? एक जमाना वह भी था कि उनके दफ्तर से किसी भी अदना व्यक्ति का क्यों न हो पत्र बिना उत्तर दिये दाखिलदफ्तर नहीं होता था. धाकड़ से धाकड़ राजनेता अपने इलाकों के सूरमा रहे होंगे, लेकिन छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के मामलों में उनकी राय शुक्ल से परामर्श किये बिना सत्ता के गलियारों में आखिरी आवाज नहीं मानी जाती थी.
सब जानते हैं कि राजनीति में मर्दानगी भरी वफादारी शैली का विकास विद्याचरण शुक्ल ने किया है, जब शाह कमीशन के सामने छाती ठोंककर उन्होनें कहा था कि केंद्रीय मंत्री के रूप में प्रत्येक निर्णय मैंने अपने विवेक से किया है. उसमें इंदिरा जी का कोई दोष नहीं है. भोपाल की राजनीतिक आवोहवा से स्थायी अंदरूनी परहेज करने वाले इस राजनेता ने अनेक बार किंग मेकर की जो आला भूमिका अदा की है उसकी भी अपनी अनोखी छटाएं हैं. आज भारत के जिन इने-गिने मंत्रियों को दुनिया के सभी महत्वपूर्ण मुल्कों में जाना जाता है, उनमें विद्याचरण शुक्ल का नाम प्रमुखता से लिया जाता है. खिलाड़ियों से ज्यादा मैंच हारने-जीतने की सहनशीलता लिए शुक्ल ओलंपिक एसोसिएशन की राजनीति तक भी पहुंचे हैं. इस राजनेता को अधिक तकनीकी प्रकृति के जितने कठिन राजनीतिक मुकदमे लड़ने पड़े हैं वह भी अपने आप में एक अतुलनीय कीर्तिमान है.
इन सब उल्लेखनीय औपचारिक और उपलब्धियुक्त सफलताओं से कौन गौरवान्वित नहीं होगा? लेकिन सफलता के लिए सतत् संघर्ष करना ही विद्याचरण शुक्ल होना है. उन्हें मालूम रहा है कि इंदिरा जी के कान उनके खिलाफ लोगों ने गलत तरीके से भरे थे. उन्हें इस बात का अहसास था कि चुगलखोरी और कानाफूसी की कूटनीति के कुछ विशेषज्ञ तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कानों में उनके प्रति नफरत का तेजाब उडेलते रहे हैं. वह जानते थे कि राजनीति के शुरुआती दौर में पूंजीवादी राजनीतिज्ञों के कुछ सरगना पंडित नेहरू तक से उनकी बेवजह शिकायतें कर चुके थे. इसके बावजूद शुक्ल ने सुलह-सफाई की राजनीति को एक गरिमा के स्तर से नीचे कभी नहीं गिराया.
उन्होंने बार-बार पद की कुर्सी पर जमकर बैठे रहने के बदले उसे सुरीली कुर्सी में बदल दिया और पदों के आने जाने का क्रम उनकी राजनीतिक शख्सियत का हिस्सा बनता गया. यही कारण है कि तमाम अवरोधों के बावजूद उनका व्यक्तित्व आज भी जुझारू है. संघर्ष के अभाव मंु उनकी रण क्षमता कभी-कभी भोथरी भी होने लगती है. उनके जन्मग्रहों में युद्ध के बाद की शांति पूर्व का योग दिखाई पड़ता है.
मैं नहीं जानता कि मैं विद्या भैया के कितने करीब हूं. हो सकता है सैकड़ों और व्यक्तियों की तरह मुझे भी इस बात की गलतफहमी हो कि मैं अकबर बादशाह के नवरत्नों में एक हूं. अपने इस हसीन मुगालते के बावजूद मैं चाहकर भी उनका ‘बॉसवेल‘ नहीं बन सका. मैंने कभी अति आत्मविश्वास के कारण, तो कभी जबरिया उनसे इतनी अधिक आजादी और इतना अधिक वक्त लिया है जो मेरे चाहने पर भी और किसी राजनेता से मुझे नहीं मिला है. बीस बरस पहले मैं उनका हाथ जबरन पकड़कर भारतीय क्रांति के महान सूरमा सुखदेवराज की रुग्ण शैया तक ले गया था. तब से आज तक उस हाथ की उष्णस्निग्धता अंतस तक उद्वेलित करती है.
आपातकाल की भयानक पराजय के बावजूद रायपुर हवाई अड्डे पर अकेले उतरे विद्याचरण शुक्ल को अपनी कार पर सारथी की तरह जब मैं बिठाकर लाया था, तब भी मेरे मन में पराजय बोध का कड़वापन इस आस्था के कारण नहीं था कि इंदिरा गांधी की अगुवाई में मेरी पार्टी विद्याचरण शुक्ल जैसे सूरमाओं के रहते फिर से बल्कि शीघ्र ही सत्तानसीन जरूर होगी.
कभी-कभी मुझे यही लगता रहा है कि काश संसदीय प्रजातंत्र में चुनाव हर वर्ष हो ताकि औरों के मुकाबले मुझे विद्या भैया के साथ रहने का सबसे ज्यादा मौका मिले. आपातकाल में भारतीय प्रेस ने उनसे बेसाख्ता नफरत की, परहेज किया और उन्हें हिटलर के बड़बोले प्रचार मंत्री गोयबेल्स तक की उपाधि से विभूषित किया. उनके खुद के चुनाव प्रचार में मुझे भी गोयबेल्स की लगातार भूमिका मिलती रही. यही एक ऐसा अवशिष्ट काल इस राजनेता के जीवन में मुझे भी उपलब्ध होता रहा है जब अपने राजनीतिक अस्तित्व की खंदक की लड़ाई में उन्हें मेरे जैसे सहयोगियों पर असाधारण भरोसा भी दिखाई पड़ता है. वह ऐसा वक्त होता है जब राजनीतिक का दूध चुनाव की हांड़ी में लोकप्रियता की आग पर तपते-तपते गाढ़ा होता है.
1989 का चुनाव एक दुखदायी चुनाव था जब मैं उनके पक्ष में बोल ही नहीं सकता था और विपक्ष में बोलने का सवाल ही नहीं था काश राजीव गांधी को विद्याचरण शुक्ल से लोगों ने नहीं लड़ाया होता तो इस प्रौढ़ नेता का कद उपलब्धियों की सीढ़ी पर कहीं और ऊंचा दिखाई पड़ता.
राजनेता वैसे बड़े ठर्रे किस्म के मनहूस भी होते हैं. उनकी जिंदगी में इतनी अधिक एकरसता होती है कि सियासत के अलावा और किसी विषय पर वे बात तक नहीं करतें हैं. विद्या भैया क्रिकेट भी बतियाते हैं. काले कोट पहनने वाले सफल वकीलों या अस्पताल की झक-धुली श्वेतवसना नर्सो को दूसरे पोशाकों में देखने में बड़ा अटपटा लगता है. लेकिन विद्याचरण शुक्ल हैं कि किसी भी अन्य नेता के मुकाबले विज्ञान, साहित्य, धर्म, कला, बागवानी, टेक्नालॉजी, पत्रकारिता, उद्योग, व्यापार, कृषि, फैशन, रिसर्च, सब पर न केवल साधिकार परंतु दिमागी रसमयता के साथ बातें कर सकते हैं. उन्हें स्वादिष्ट और स्वास्थ्यवर्धक भोजन का भी इतना ही शौक है जितना राजनीति का. उनसे बेहतर कपड़े पहने कोई मॉडल तो दूरदर्शन के रंगीन परदे पर भी नहीं दिखाई देता.
अपने एक करोड़पति मित्र के बुटीक से एक अदद कुर्ता पायजामा मेरे लिए बनवा कर देने का प्रस्ताव उन्होंने जब रखा तो उसकी कीमत सुनकर मैंने हड़बड़ी में वह प्रस्ताव नामंजूर कर दिया. समाजवादी जनता पार्टी के मंत्री के रूप में दिल्ली के खादी भंडार में विद्याचरण शुक्ल ने एक सुंदर सूटपीस पसंद करने के बाद भी वह सूटपीस मुझे भी पसंद आ जाने पर जब नहीं खरीदना चाहा तो उस छोटी सी घटना से ही मैं अभिभूत हो उठा.