छत्तीसगढ़

विद्या भैया: अंतरंग यादें!

ऐसी छोटी घटना तो मुझे उनके बारे में अभिभूत करती है परंतु मैं उस हरकत को कभी नहीं माफ करूंगा जब भारतीय राजनीति और उद्योग के सर्वोच्च शिखरों की जोड़ों वाली पार्टी में मुझे और वीरेंद्र तिवारी को अपनी पत्नी के बदले ले गये थे. जिससे जोड़ों का समीकरण ही बिगड़ गया था.

मैं मौर्या शेरेटन में अयूब सैयद की गवाही में उनसे हुए भारतीय राजनीति के बारे में लंबे शास्त्रार्थ को भी नहीं भूलूंगा जब उन्होंने मुझसे असहमत होकर अंततः राजीव गांधी को छोड़ा था. मुझे वह दिन भी याद है जब मेरे कहने पर तत्कालीन रक्षा उत्पादन मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने अपने सहयोगी इंद्रकुमार गुजराल और महाराष्ट्र के राज्यपाल नवाब अली यावर जंग की शानदार पार्टियां छोड़कर टाइम्स आफ इंडिया के संवाददाता स्वर्गीय सुदर्शन भाटिया के घर मक्के की रोटी और सरसों का साग इसीलिये खाना कबूल किया क्योंकि ये चीजें मैंने कभी खाई ही नहीं थीं.

यह अलग बात है कि शबरी के बेर और सुदामा के तंदुल में राज शक्ति को हिलाने भूचाल की ताकत होती है. मुझे उनका यह ढंग भी कभी रास नहीं आया कि खुद तो तैयार हो जाएं लेकिन घंटो होटल से निकले होने पर भी मुझे और पत्नी को गुड़मुड़ हो रहे कपड़ों में पांच सितारा होटलों से लेकर दिल्ली के सर्वोच्च राजनीतिक पांच सितारों की निजी पार्टियों लें जायें और इस तरह परिचय करायें जैसे हमसे बड़ा अंतरंग उनका कोई नहीं है. हमें महत्वपूर्ण समझने में हमें कोफ्त होती रहे कि काश हम कपड़े बदल कर आते.

मुझे इस बात से मलाल रहा है कि दिल्ली के और सब लोग तो टेलीफोन पर मिलने का समय पा जाएं लेकिन मुझे श्रीमान यह मानकर चलें कि रात के बारह बजे ही मिलना है. दो-दो घंटे बात तो करते हैं लेकिन मध्यरात्रि के बाद, क्योंकि कभी-कभी उसमें आधा पौन घंटे तो जम्हाइयां लेने और सोने का मौका जो निकल आता है.

एक फौजदारी वकील होने के नाते मैं जानता हूं कि चोरी करना भारतीय दंड संहिता में अपराध है. परंतु विद्या भैया की कई चीजें चोरी करने की मेरी नीयत रही है. उनका व्यक्तित्व, शांत स्वभाव और लोकप्रियता को चुराना तो संस्थाओं तक के वश की बात नहीं है. एक बेचारा व्यक्ति कैसे करेगा? उनके कपड़े भी, अंदाज किया है, कुछ न कुछ ढीले ही होंगे. लेकिन मेरे और उनके जूते का नंबर एक ही है. यह बात मैं जानता हूं. काश! जिस दिन मेरे पैरों का नंबर उनके पैरों के नंबर के बराबर हुआ था, उस दिन वह मुझे इसी कहावत के अनुसार आगे बढ़ने का आशीर्वाद दे देते. फिर भी दो एक बार उनके बुक सेल्फ से मैंने एक दो दुर्लभ किताबें चुराई हैं. काश! कि मैं सरस्वती पुत्र न होकर लक्ष्मी पुत्र होता क्योकि किताबों से अधिक और कुछ चुराने की मेरी हैसियत ही नहीं बनी.

उन्होंने तमाम छोटी-छोटी चीजें स्नेहसिक्त होकर दी भी हैं. जिनमें से कई का स्थायी और ऐतिहासिक महत्व भी होगा. क्या उन्हें यह मालूम है कि उनकी गैरहाजिरी में उनके फार्म हाउस से कुछ न कुछ सब्जियां चुराकर मैं अब भी ले जाता हूं.

मेरी भौतिक ऊंचाई इतनी तो जरूर है कि मैं सीधे उनके कानों में फुसफुसाकर चुगली तो कर ही सकता हूं लेकिन मेरी आवाज की आत्मा ने यह सब करने की जुर्रत कभी नहीं की. उनके कानों में लोग क्यों कुछ कह देते हैं जिससे कभी किसी भले आदमी का अहित भी हो जाता है? ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो उनसे बेसाख्ता प्यार करते रहे है. लेकिन उनके प्यार का खुलासा होने से पहले ही कुछ चुगलखोरों ने ऐसे रिश्तों को झूठा कर दिया है.

मैं कभी कभी एकांत निराशा में सोचता हूं कि आखिर राजनेता कानों के कच्चे क्यों होते हैं? आत्म प्रशंसा आदमी की ही कमजोरी होती है. लेकिन चाटुकारिता को चाशनी से राजनीतिक मधुमेह की बीमारी भी तो होती है. मैं उन नामों की फेहरिस्त बना रहा हूं. जो दूसरों की वजह से इस राजनेता के वटवृक्ष की घनी छांह से छिटककर तो जरूर गए हैं लेकिन कड़ी धूप में अब भी झुलस रहे हैं.

मैं बार बार अपने भाषणों में यह कहता रहा हूं कि देश में लोकसभा चुनाव जितनी बार हुए हैं उतनी बार विद्याचरण शुक्ल ने चुनाव लड़े हैं. दसअसल 52 का चुनाव उन्होंने नहीं लड़ा. लेकिन एक उपचुनाव लड़ने से नंबर बराबर हो गया है. चुनाव के सिलसिले में कुछ व्यवस्था की भूल हो जाने के कारण एक दौरे पर उनके पहनने के कपड़े नहीं आ पाए थे तो उन्हें मेरे उस कुरते पाजामे पर निर्भर होना पड़ा था जो दर्जी की गलती से ज्यादा बड़े बन गए थे. पता नहीं मेरे वे कपड़े कहां हैं? लेकिन मैंने भी उनके धोबी की भूल से आ गया कुरता हिफाजत से रख ही लिया था मैं क्यों वापस करता?

1985 के विधानसभा चुनाव के दौरान टिकट वितरण में विद्याचरण शुक्ल को घाटा उठाना पड़ा. सारे उम्मीदवारों और नाउम्मीदवारों के दिल्ली से रुखसत होने के बाद दोपहर के भोजन के समय जब दिल्ली दरबार (राजीव गांधी के निवास) किसी अरुण का फोन आया तब भी उन्होंने अपनी गैर समझौतावादी भर्राई आवाज में यही पूछा कि कौन अरुण मुझसे बात करेगा? अरुण सिंह या अरुण नेहरू? वैसे तो मुझे कभी जाति विशेष में पैदा होने का अहसास नहीं हुआ, लेकिन उनकी मुद्रा से लगा था कि ऐसा आचरण ब्राह्मण ही कर सकते हैं. जब वह किसी व्यक्ति की अन्य मंत्रियों अधिकारियों वगैरह से सिफारिश करते हैं तो औरों से विपरीत उनकी आवाज में अहसान मानने के बदले आदेशात्मक समझाइश देने का रुख निहित होता है. कहते हैं कि उनका यह दबंग अक्खड़पन उम्र के लिहाज से लचीली नर्मी में बदलता जा रहा है और इसलिए उनकी लोकप्रियता में भी अब भी कमी नहीं हो रही है.

लोग विद्या भैया में सहज विश्वास करते हैं और इसलिए वे भी सहज विश्वास करने में विश्वास रखते हैं. मुझे लगता है कि भारतीय राजनीति के प्रमुख हस्ताक्षरों में विद्याचरण शुक्ल जितने विश्वासघातों के शिकार हुए होंगे उनका समानांतर ढूंढ़ना मुश्किल है. आप उनके दरबार में जाइए और अपनी व्यापारिक विनयशीलता के सहारे उन्हें अपने ऊपर विश्वास करने के लिए मजबूर करिए. यह व्यक्ति बर्फ की वह सिल्ली है जो जरा सी स्नेह की गर्मी पाकर तत्काल पिघलती है. उसके बाद आप जी भरकर धोखा दीजिए. वे अगले विश्वासघात का शिकार होने तैयार दिखाई देंगे.

आप उनकी मदद से विधायक, मंत्री, निगम के अध्यक्ष और पार्टी के नेता बन जाइए. कुछ लोग तो लगता है राजनीति में पद हथियाने के लिए विद्याचरण शुक्ल के साथ विश्वासघात करने के शैली के प्रणेता बन चुके हैं. फिर भी आखिर प्राकृतिक न्याय तो होता है. राजनीति का लोहा न जल्दी गर्म होता है और न ही जल्दी ठंडा. ऐसे लोग जब ठंडे होते हैं तो ठंडे ही हो जाते हैं.

एक बार में एक प्रख्यात शिकारी की आत्मकथा पढ़ रहा था. उसने एक नौजवान शिकारी की तारीफ की थी. जिसका नाम था विद्याचरण शुक्ल. एक बार रायपुर की जीवंत होली में हमने उनके बालों की एक हजार टका रंग से रंगाई की और उसके तुरंत बाद वे विदेश चले गए. वहां से लौटने पर पत्रकारों ने यह फतवा कसा कि विद्याचरण शुक्ल एक खास किस्म के गुलाबी बैंगने रंग में अपने बाल डाई कराकर लंदन से आए हैं.

आपातकाल हटने के बाद तो उनके बारे में ढेर से किस्से चटखारे लेकर सुनाए जाते रहे लेकिन पिछले 36 वर्षों से विद्याचरण शुक्ल छत्तीसगढ़ बल्कि मध्यप्रदेश और केन्द्र की राजनीति की कुतुबनुमा सुई बने हुए हैं जिनके संदर्भ में राजनीति के आकाश की दिशाएं दिखलाई पड़ती हैं.

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