UP में BJP विरोधी एकता?
नई दिल्ली | समाचार डेस्क: सर्जिकल स्ट्राइक के बाद भाजपा का रुख आक्रमक हो गया है. राष्ट्र के नाम पर गैर-राजनीतिक वोटों का ध्रुवीकरण उसके पक्ष में होता दिख रहा है. वहीं, भाजपा को उत्तरप्रदेश में रोकने के लिये बिहार की तर्ज पर महागठबंधन बनने के कयास लगाये जा रहे हैं. सारी लड़ाई मुस्लिम एवं पिछड़ों के वोटों के ध्रुवीकरण के लिये हो रही है. जानकारों का मानना है कि इस ध्रुवीकरण से भाजपा को उत्तरप्रदेश में चुनावी नुकसान पहुंचाया जा सकता है. बसपा ‘एकला चलो रे’ में अपना हित देख रही है परन्तु कांग्रेस एवं सपा के दोनों धड़े अपने-अपने एजेंडे पर आगे बढ़ रहें हैं. कांग्रेस जहां भाजपा को रोकना चाहती है वहीं सपा अपने आप को बचाना चाहती है. इसलिये सवाल किया जा रहा है कि क्या उत्तर प्रदेश बिहार के रास्ते जायेगा? इसके लिये पढ़िये बीबीसी हिन्दी के लिये वरिष्ठ पत्रकार प्रमोद जोशी का विश्लेषण-
उत्तर प्रदेश के राजनीतिक आकाश पर जैसे शिकारी पक्षी मंडराने लगे हैं. चुनाव नज़दीक होने की वजह से यह लाज़िमी था. लेकिन समाजवादी पार्टी के घटनाक्रम ने इसे तेज़ कर दिया है. हर सुबह लगता है कि आज कुछ होने वाला है.
प्रदेश की राजनीति में इतने संशय हैं कि अनुमान लगा पाना मुश्किल है कि चुनाव बाद क्या होगा. कुछ समय पहले तक यहाँ की ज्यादातर पार्टियाँ चुनाव-पूर्व गठबंधनों की बात करने से बच रही थीं.
भारतीय जनता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने दावा किया था कि वे अकेले चुनाव में उतरेंगी. लेकिन अब उत्तर प्रदेश अचानक बिहार की ओर देखने लगा है. पिछले साल बिहार में ही समाजवादी पार्टी ने ‘महागठबंधन की आत्मा को ठेस’ पहुँचाई थी. इसके बावजूद ऐसी चर्चा अब आम हो गई है.
बहरहाल, अब उत्तर प्रदेश में पार्टी संकट में फँसी है तो महागठबंधन की बातें फिर से होने लगीं हैं. सवाल है कि क्या यह गठबंधन बनेगा? क्या यह कामयाब होगा?
सपा और बसपा के साथ कांग्रेस के तालमेल की बातें फिर से होने लगी हैं. इसके पीछे एक बड़ी वजह है ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के कारण बीजेपी का आक्रामक रुख.
उधर कांग्रेस की दिलचस्पी अपनी जीत से ज्यादा बीजेपी को रोकने में है, और सपा की दिलचस्पी अपने को बचाने में है. कांग्रेस, सपा, बसपा और बीजेपी सबका ध्यान मुस्लिम वोटरों पर है.
मुस्लिम वोट के ध्रुवीकरण से बीजेपी की प्रति-ध्रुवीकरण रणनीति बनती है. ‘बीजेपी को रोकना है’ यह नारा मुस्लिम मन को जीतने के लिए गढ़ा गया है. इसमें सारा ज़ोर ‘बीजेपी’ पर है.
एक अरसे से मुसलमान ‘टैक्टिकल वोटिंग’ कर रहे हैं. लेकिन उत्तर प्रदेश में वे कमोबेश सपा के साथ हैं. क्या इस बार उनके रुख में बदलाव आएगा? यानी, जो प्रत्याशी बीजेपी को हराता नज़र आए, उसे वोट पड़ेंगे.
अगर बसपा प्रत्याशियों का पलड़ा भारी होगा तो मुसलमान वोट उधर जाएंगे? यह मुमकिन है.
कांग्रेस की रणनीति क्या होगी? अमित शाह ने इटावा की रैली में कांग्रेस को ‘वोट कटवा पार्टी’ कहा है, जो सपा या बसपा को फायदा देगी, लेकिन जिसे अपनी कोई उम्मीद नहीं है.
कांग्रेस ‘किंगमेकर’ बनना चाहती है. अनुमान है कि उत्तर प्रदेश में कोई भी पक्ष पूर्ण बहुमत लाने की स्थिति में नहीं है. यह लगभग वैसा ही विचार है जैसा सन 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले समाजवादी पार्टी का था.
सन 2012 में मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का पद संभालने के बजाय दिल्ली की राजनीति पर ध्यान देने का फैसला किया, क्योंकि उन्हें लगता था कि लोकसभा के त्रिशंकु रहने पर सपा ‘किंगमेकर’ की भूमिका निभाएगी.
कांग्रेस और राष्ट्रीय लोक दल की रणनीति लगातार बदल रही है. अभी गुरुवार को राहुल गांधी ने कहा है कि पार्टी सपा या बसपा के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं करेगी. दूसरी ओर शिवपाल यादव ने दिल्ली जाकर महागठबंधन की बातें करनी शुरू कर दी हैं.
इन बातों में कांग्रेस के सलाहकार प्रशांत किशोर भी शामिल हैं. सवाल है कि अखिलेश यदि सपा से अलग हुए तो क्या कांग्रेस महागठबंधन में शामिल होगी? और अलग नहीं हुए, तब भी क्या महागठबंधन बनेगा? ‘अखिलेश फैक्टर’ की वजह से ही तो शिवपाल ने महागठबंधन की ओर रुख किया है.
बुधवार को राहुल गांधी ने यूपी के कुछ विधायकों से मुलाकात की थी. विधायकों की सलाह थी कि उन्हें अखिलेश के करीब जाना चाहिए. उन्हें लगता है कि उत्तर प्रदेश में पार्टी का अकेले चुनाव में उतरना खतरे से खाली नहीं है.
इधर राज्यपाल के साथ अखिलेश यादव की मुलाक़ात के बाद अटकलें हैं कि शायद सरकार सदन में अपना बहुमत साबित करना चाहती है, ताकि अगले छह महीने वह बेरोकटोक काम करे. ऐसी स्थिति आई तो कांग्रेस अखिलेश सरकार का समर्थन कर सकती है.
अखिलेश सरकार विकास के एजेंडा पर चल रही है. उसका नया नारा है, ‘काम बोलता है.’ पर शिवपाल यादव का नारा है, ‘बीजेपी को रोकना है.’ उन्होंने कहा है, “हम लोहियावादियों, गांधीवादियों, चरणसिंहवादियों और धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एक जगह ला सके तो बीजेपी को रोक सकते हैं.”
उन्होंने जेडीयू, आरजेडी और रालोद के नेताओं को लखनऊ में पांच नवम्बर को होने वाले सपा रजत जयंती समारोह में भी बुलाया है. बिहार में ऐन वक्त पर हाथ खींच लेने वाले नेतृत्व को क्या अब समर्थन मिलेगा?
इस दुविधा से बाहर दो पार्टियाँ हैं- बीजेपी और बसपा. बसपा के महागठबंधन में शामिल होने की सम्भावना नहीं है. लेकिन उसकी निगाहें मुस्लिम वोट पर हैं. सपा के ‘आसन्न पराभव’ की स्थिति पैदा हुई तो वह विकल्प के रूप में खड़ी है.
शिवपाल यादव की पहल इस बात का संकेत है कि पार्टी टूट के कगार पर है. लेकिन यह संकेत मुलायम सिंह ने नहीं दिया है. क्या वे अखिलेश को पूरी तरह त्याग देंगे? सारी रामकहानी इसलिए है क्योंकि सपा जटिल पहेली बन गई है.
सवाल है कि क्या पार्टी टूटेगी? क्या अखिलेश हटाए जाएंगे? क्या मुलायम शिवपाल को उत्तराधिकारी मान लेंगे? जब तक ऐसी बातें साफ नहीं होंगी तब तक सवाल उठेंगे. यह ‘प्रश्न प्रदेश’ है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)