कलारचना

उमेश मिश्र की कविताएं

सुबह-एक
रात पर जीत का विजेता सूरज,
कि खत्म हुआ अंधेरे का राज,
कि खुल गए अंधे इरादों के राज,
कि अब न गिरेगा कोई अंधेरी राह में,
कि अब न घिरेगा कोई अंधेरी चाह में

पर रोज शाम टूटता है तिलस्म यह
और बांह पसारती है काली रात
क्योंकि एक सूरज के भरोसे है
हर दिन उजाले का आना-जाना
तुम चाहो तो तोड़ दो सूरज का भरमाना

सुबह-दो
अभी तो उगा है सूरज,
उम्मीदों की आस लेकर
अभी तो खुले हैं पंख,
उड़ानों की सांस भरकर
गूंजने दो मेहनत के गान,
दोस्तों अभी कैसी थकान

सुबह-तीन
मुर्गों की बांग अब सुनाई नहीं देती
न बाकी रहा चिड़ियों का कलरव
बहुत छोटी हुई अरूणोदय की ठंडक
रसोई में खड़खड़ाते बर्तनों की गूंज या
सड़क पर एकदम से बढ़ी आमदरफ्त
चिल्लपों से खुली जलती आंखों में

न नींद के किसी सुख का अवशेष
न बीते कल के किसी दुःख की न्यूनता
फिर सुबह हुई जैसे किसी मधुमक्खी के
छत्ते को तोड़ने का बचा काम करना है

फिर सुबह हुई तो तुम्हारे माथे पर
लकीरों का जमघट बढ़ना है
उस रात के मुहाने तक
जिसकी सुबह की खबर
पढ़ने के लिए चाहिए कोई माथे की
सलवटों की लिखावट पढ़ने वाला.

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