कौन सा है आदिवासियों का धर्म?
कनक तिवारी
भारत एक बहुलधर्मी देश है. यहां हिन्दू मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, पारसी, बौद्ध, जैन और बहुत कम लेकिन यहूदी मतावलंबी भी हैं. दुनिया में ऐसा बहुलधर्मी देश और कोई नहीं होगा. इन सब परिचित और परिभाषित धर्मों के रहते हुए भी आज़ादी के बाद एक बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ कि देश की आबादी के एक बहुत महत्वपूर्ण वर्ग आदिवासियों का स्वीकृत और मान्यताप्राप्त धर्म क्या है?
औपचारिक विचारधारा मानती है कि आदिवासी हिन्दू ही हैं, उससे इतर कुछ नहीं. अंगरेजों के आने के बाद कुछ आदिवासियों को ईसाइयत में धर्मांतरित भी कर लिया गया. ईसाई होने के बाद भी संवैधानिक दृष्टिकोण से आदिवासी ही हैं. धर्म परिवर्तन के बावजूद आदिवासी की अस्मिता कायम रहती है.
2011 की जनगणना के मुताबिक आदिवासियों की संख्या करीब ग्यारह करोड़ है. वह देश की कुल आबादी का आठ से नौ प्रतिशत के बीच है. देश के तीस राज्यों में करीब 705 जनजातियों का ब्यौरा है.
यह महत्वपूर्ण है कि संविधान में धर्मों की परिभाषा को लेकर कोई विवरण, व्याख्या या वर्णन नहीं है. सामाजिक मान्यताप्राप्त आधार पर धर्मो का वर्गीकरण स्वीकृत है. हिन्दू शब्द को 1955-56 में लाए गए चार हिन्दू अधिनियमों में परिभाषित किया गया जिनमें जैन, बौद्ध, सिक्ख निजी कानूनों के लिए हिन्दू के रूप में मान लिए गए हैं. भले ही उनके मान्यताप्राप्त धर्म अलग हैं.
इसके बरक्स आदिवासियों को हिन्दू धर्म का हिस्सा बताए जाने के बावजूद वैयक्तिक धर्मो में लिखा है कि जब तक सरकार कोई अधिसूचना जारी नहीं करे, उन पर हिन्दू कोड के प्रावधान लागू नहीं होंगे. वैसी अधिसूचना अब तक जारी नहीं हुई है. इसलिए आदिवासी अपने पारंपरिक, सांस्कृतिक आधारों पर निजी रिश्तों का निर्धारण करने स्वतंत्र रहे हैं. ब्रिटिश शासनकाल में जनगणना के वक्त 1871 से 1931 तक पृथक कॉलम में आदिवासियों के लिए ‘एबओरिजिनल‘ या मूल निवासी का विकल्प चुनने की व्यवस्था थी.
आज़ादी के बाद वह कॉलम भारत सरकार ने हटा दिया. इस वजह से उन्हें किसी न किसी धर्म में लिखे जाने के विकल्प की मजबूरी दी गई.
आदिवासियों का तर्क है कि उनके बीच लगभग 83 धार्मिक रीतिरिवाज हैं. वे राष्ट्रीय स्तर पर एक विशिष्ट धार्मिक पहचान चाहते हैं. क्षेत्रीय स्तर पर उनकी कई मान्यताओं और सांस्कृतिक परंपराओं में थोड़ी बहुत भिन्नता होगी लेकिन राष्टीय स्तर पर उन्हें आदिवासी की तरह ही पहचाना जाता रहा है.
हिन्दू धर्म में भी तो धार्मिक रीतिरिवाज और पूजाअर्चना की विधियां एक जैसी नहीं हैं. ब्रिटिश काल में आदिवासियों को ‘एनिमिस्ट‘ या जीववाद की श्रेणी में रखा गया था.
1941 में जनगणना के वक्त नृतत्वशास्त्री वेरियर एलविन ने भारत सरकार के सलाहकार के रूप में यह कहा कि बस्तर के माड़िया आदिवासियों को लेकर अध्ययन से उभरता है कि वे शैववाद के निकट हैं. इसलिए उन्हें हिन्दू धर्म के तहत रखा जाना चाहिए. वैसे गोंडवाना महासभा ने 1950 के पहले से ही अपने लिए गोंडी धर्म की मांग शुरू की थी, लेकिन उसे मान्यता नहीं मिली.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आदिवासियों को वनवासी कहते लगातार आग्रह कर रहा है कि उन्हें हिन्दू कहा जाए. उस वजह से वोट बैंक की राजनीति में फर्क भी पड़ता है. प्रसिद्ध मानवशास्त्री निर्मल कुमार बोस गांधी जी के सचिव रहते एक शोधपत्र के जरिए 1941 में यह समझा चुके कि आदिवासी धीरे धीरे हिन्दू धर्म में शामिल होते गए हैं. उस प्रक्रिया को उन्होंने ‘आदिवासियों को जज्ब करने की हिन्दू विधि‘ का नाम दिया.
यह अलग बात है कि रैन्डम सैम्पल के अध्ययन के आधार पर विकसित उनकी थ्योरी मान लिए जाने के बावजूद स्वीकृत हो गई. वैज्ञानिक नजर से उसकी समीक्षा करने से उसमें कई खामियां नजर आती हैं. एक और विचारक एम. एन. श्रीनिवास ने भी धार्मिक नजरिए से आदिवासियों को हिन्दू धर्म में शामिल दिखाया. नई चिंताओं से लबरेज खोजों के कारण निर्मल बोस के समकालीन तारकचंद्र दास ने बेहतर गंभीर स्थापनाएं की हैं.
उन्होंने जोर देकर कहा है कि हिन्दू धर्म के बढ़ते प्रभाव के बावजूद आदिवासियों ने अपनी नस्लीय पहचान जीवित रखी है. आदिवासियों ने हिन्दू संस्कृति के आगे बढ़ते कदमों के सामने झुकने की बजाय पहाड़ों और जंगलों में शरण ली और अपनी रक्षा के लिए कई सांस्कृतिक दीवारें खड़ी कर लीं. आदिवासी मूर्तिपूजक नहीं होते और हिन्दू धर्म की कई मान्यताओं को मानते भी नहीं.
देश के सबसे पुराने रहवासी वर्ग के सामने आज सरकारी सूझबूझ में दोष के कारण अस्मिता का संकट खड़ा कर दिया गया है. अशिक्षा, गरीबी, बीमारी वगैरह से जूझते आदिवासियों को प्रलोभन देकर बड़ी संख्या में ईसाइयत में तब्दील कर लिया जाता है. मूल आदिवासियों और ईसाई हो चुके आदिवासियों के बीच हिंसा छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा है.
हिन्दू धर्मसमर्थक ताकतें उन्हें अपनी धार्मिक, सांस्कृतिक मान्यताओं के बाहर जाने ही नहीं देतीं क्योंकि हिन्दुत्व समर्थक सरकारें भी समय समय पर उन राज्यों में काबिज रही हैं जहां आदिवासियों की बड़ी संख्या है. इसीलिए आदिवासी विचारक डा. रामदयाल मुंडा ने ‘आदि धर्म‘ नाम का शब्द गढ़ा था. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जितना तेज हिन्दुत्व का ही आग्रह हो रहा है, उसके बरक्स छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी हुकूमत द्वारा राम गमन योजना के समर्थन के बावजूद खुद को हिन्दू धर्म से अलग मानते आदिवासी अब लामबंद हो रहे हैं.
उनकी सीधी मांग है कि 2021 की जनसंख्या गणना में उनके लिए अपने धर्म का नया कॉलम फिर से स्थापित किया जाए. ऐसा आंदोलन झारखंड में सबसे तेजी पकड़ चुका है. वहां आदिवासी मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन की मंत्रिपरिषद ने अपने धर्म का नाम ‘सरना‘ अधिनियमित किया है, जिसका अर्थ कुदरत के वन या उपवन से समझा जाता है.
आदिवासी के साथ जुल्म आजाद भारत में हो रहा है. वह असाधारण और अन्यायपूर्ण है. जल, जंगल और जमीन पर उनका सदियों से एकाधिकार रहा है. उनसे वह अस्तित्व ही छीन लिया गया है. लुटेरे कॉरपोरेटियों, असंवेदनशील सरकारों और नक्सलियों के जबड़ों में फंसे पूरे आदिवास को इतिहास की गुमनामी में डुबाने प्रारब्ध अट्टहास कर रहा है.
सुप्रीम कोर्ट के बहुत से फैसले भी आदिवासी के सांस्कृतिक और परंपरागत अहसास को समझते हुए भी उसे वह ढाढस नहीं बंधा सके हैं जिनके आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और विकास के सभी अन्य पैमानों पर आगे बढ़ते हुए भी आदिवासी को उन घातक थपेड़ों से बचाया जाए अन्यथा हरे भरे जंगलों, पहाड़ों, नदियों, पशु पक्षियों, सांस्कृतिक अनुगूंजों और वन संगीत के तरन्नुम में सदियों से अपनी धड़कनों में जी रहे हिन्दुस्तान का एक बड़ा हिस्सा पंगु होकर लकवाग्रस्त होने की कगार पर है.
यह कैसा संविधान, शासन और कानून है जो मनुष्य की सांस्कृतिक स्वायत्तता को सुरक्षित रखने का वायदा करने के बावजूद उसके अस्तित्व पर ही चोट कर रहा है. फिर भी उसे समझाता है कि तुम तो वोट बैंक की अंकगणितीय इकाई हो. तुम भारत के मूल निवास का अहसास रहे हो. तो भी तुम्हें किसी न किसी धर्म में परिवर्तित होकर उस धर्म की आदतों, मान्यताओं, आदेशों और परंपराओं को अपने जीवन में उतारना पड़ेगा. यह जद्दोजहद केवल मनुष्यों की चुनौती नहीं है. यह इतिहास का एक भविष्यमूलक पेचीदा सवाल है.