Social Media

परंपरा और विद्रोह

संजय वर्मा | फेसबुक

पिछले दिनों एक दिलचस्प शख्स से मुलाकात हुई. वे किशोर और नौजवानों की समस्याओं पर काम कर रहे हैं. मैंने उनसे पूछा पिछले 30 – 40 सालों में नौजवानों में आप क्या फर्क देखते हैं ? तो उन्होंने कहा समस्याएं तो उनकी अब भी बहुत हैं, पर यह पीढ़ी उस तरह से विद्रोही नहीं है !

बात दिलचस्प है. याद कीजिए 60 और 70 के दशक में गुस्साए नौजवानों को. श्याम आए तो कह देना छेनू आया था वाले शत्रुघन सिन्हा को. फिर याद कीजिए एंग्री यंग मैन को, जो अपने पिता से गुस्सा है पर बदला पूरी व्यवस्था से लेता है.

हिप्पी लोगों की जीवन शैली याद कीजिए, जो बस परंपरा के खिलाफ उनका स्टेटमेंट था रिबेल विदाआउट कॉज़ ! कोई घर से भाग जाता था. कोई मां-बाप की मर्जी के खिलाफ प्रेम विवाह कर रहा था. उन दिनों हर बड़ा राजनीतिक आंदोलन कालेज कैंपस से शुरू होता था.कुल मिलाकर जवानी का मतलब था -विद्रोह.

फिलहाल सही गलत में मत पड़िए. अभी यह मत सोचिए इससे फायदा हुआ या नुकसान, बस फर्क देखिए. वे सज्जन कह रहे हैं कि आज के बच्चे विद्रोही नहीं, परंपरावादी हैं….

क्या वजह हो सकती है ? क्या बदल गया है ?

कोई इंसान अपने जीवन मूल्य किस तरह चुनता है,यह एक जटिल मामला है. बहुत से कारण हो सकते हैं. जिनमे एक कारण नए किस्म की पेरेंटिंग भी हो सकती है. मनोवैज्ञानिक कहते हैं किसी इंसान की सोच पर उसके बचपन और मां बाप से उसके रिश्ते का गहरा असर होता है.

मुझे लगता है इस बदलाव को समझने के लिए हमें परिवार नाम की संस्था में हुए बदलाव को देखना होगा. 90 के दशक में पहली बार न्यूक्लियर फैमिली वजूद में आई,जिसने पेरेंट्स और बच्चों के रिश्ते को उलट दिया.

संयुक्त परिवार में माता पिता की भूमिका कंट्रोलर या शासक की थी, बच्चे सेवादार और शोषित थे. न्यूक्लियर फैमिली में मां बाप सहायक बन गए और उनका सारा जीवन बच्चों की इर्द-गिर्द घूमने लगा.

मैं अपने आसपास ऐसे कई लोगों को जानता हूं जिनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य उनके बच्चों की तरक्की है.

पेरेंटिंग उनके जीवन का अर्थ काम धर्म और मोक्ष है. अनंत संभावनाओं वाले जीवन को सिर्फ पेरेंटिंग तक सीमित कर देना क्या उचित है, इस बहस को अभी अलग रखिए.

सिर्फ पेरेंटिंग के बदलते स्वरूप को देखिए और उसकी वजह से नौजवानों के स्वभाव में बदलाव को देखिए. वह बाप के जिसके खिलाफ एक बच्चा पहली बार क्रांति का बिगुल बजाता था, वह बाप तो स्टडी टेबल के पास दूध का गिलास लेकर खड़ा है और पूछ रहा है कोई और हुकुम मेरे आका ? अब विद्रोह कैसे शुरू होगा ?

राजेंद्र माथुर ने एक जगह कहा है कि गेंद जमीन पर टप्पा खाकर सही ढंग से उछाल ले इसके लिए जमीन का सख्त होना जरूरी होता है. तो क्या बाप नाम की जमीन नर्म है, इसलिए बच्चे की क्रांति की उछाल सीमित है ? क्या नया बाप अब बाप नहीं है, दोस्त है,सहायक है.

ऋषि कपूर ने एक इंटरव्यू में कहा था मैं रणबीर का दोस्त नहीं हूं, बाप को बाप ही रहना चाहिए, दोस्त तो उसे बहुत मिल जाएंगे.

कृपया मुझे गलत मत समझिए. मैं उस पुराने क्रूर बाप की वापसी की वकालत नहीं कर रहा हूं जो बात बे बात अपने बच्चे को पीटता था. बाप का यह नया 2.0 वर्शन वाकई बहुत अच्छा है.

मैं खुद भी नए किस्म का बाप हूं. मेरे दोनों बच्चे मेरे दोस्त हैं और मुझसे हर तरह की बात करते हैं. पर सोचने वाली बात यह है बाप अगर दोस्त बन जाएगा तो बाप का काम कौन करेगा ?

एक इंसान का व्यक्तित्व जिन तमाम चीजों से मिलकर बनता है उनमें अगर बाप नाम का व्यक्ति अनुपस्थित हो तो इसका व्यक्तित्व पर क्या असर होगा, इसे समझा जाना चाहिए. चट्टानों की तरह व्यक्तित्व भी सिर्फ समय से कायांतरित नहीं होते उसके लिए एक किस्म का दबाव भी आवश्यक है.

यह सही है कि नए किस्म की पेरेंटिंग से कई फायदे हुए हैं, समाज को, पर सोचता हूं अगर किसी समाज से विद्रोह की आदत, शउर और हुनर चला जाए तो इसके दूरगामी परिणाम क्या हो सकते हैं ?

विद्रोह से खाली आदमी हर परंपरा का सम्मान करता है, हर पुरानी चीज उसके लिए महान और सम्मानजनक हो जाती है, फिर धीरे-धीरे वह हर आदेश का सम्मान करने लगता है, अगर वह किसी तानाशाह ने दिया हो तो तब भी.

याद रखिए इस दुनिया को परंपरा ने नहीं विद्रोह और क्रांति ने बेहतर बनाया है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!