स्वामीनाथन आयोग से किसे परेशानी है?
जे के कर
हाल के कृषक आंदोलन ने फिर से स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट पर बहस की शुरुआत कर दी है.दरअसल, 4 अक्टूबर 2006 को सौंपी गई स्वामीनाथन आयोग की अंतिम एवं पांचवीं रिपोर्ट में अनुशंसा की गई थी कि किसानों को कृषि उत्पाद पर लागत मूल्य में 50 फीसदी मूल्य जोड़कर उस कृषि उत्पाद का न्यनतम समर्थन मूल्य घोषित किया जाये. देश की कृषि समस्या के समाधान तथा कृषकों को कृषि कार्य को निरंतर जारी रखने के लिये इस स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को मील का पत्थर कहा जा सकता है.
यदि किसानों को किसी फसल को उगाने के लिये बीज, पानी, खाद तथा उसके परिवार के द्वारा की गई मेहनत के लागत मूल्य में 50 फीसदी जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित कर दिया जाता तो देश का किसान न तो आर्थिक तंगी के कारण कर्ज के जाल में फंसता और न ही अपने उत्पाद का वाजिब दाम न मिलने से परेशान होकर आत्महत्या करता.
दरअसल, न्यूनतम समर्थन मूल्य कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से जुड़ा हुआ कदम है. जिसके तहत सरकार, किसान को उसके उत्पाद का सही मूल्य मिल सके इसके लिये हस्तक्षेप करता है. राज्य का हस्तक्षेप किसानों को न केवल किसानी करते रहने के लिये प्रोत्साहित करने के लिये है बल्कि इसमें देश की खाद्य समस्या का भी निराकरण भी छिपा हुआ है. ऐसे में ऐसा कौन है जो इस स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को मानने के मार्ग में रोड़ा अटका रहा है. आइये, इसे समझने की कोशिश करते हैं.
साल 1991 से देश में जो नई आर्थिक नीति लागू की गई, वह दरअसल दुनिया के विकसित देशों के आर्थिक संकट को विकासशील देशों पर लादने के लिये किया गया था. इसकी शुरुआत रोनाल्ड रीगन तथा मार्गरेट थैचर कर गये थे तथा इसके ईंधन की सप्लाई विश्व बैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष कर रहा था. बाद में इसे ताकत देने के लिये 1 जनवरी 1995 को विश्व-व्यापार-संगठन भी अस्तित्व में आ गया.
इसे यदि एक वाक्य में समझने की कोशिश की जाये तो विकसित-विकासशील तथा पिछड़े देशों को एक तराजू में तौलना शुरु कर दिया गया. हर कानून का वैश्वीकरण किया गया जिसमें पेटेंट, कृषि, सेवा तथा निवेश से संबंधित ‘टैक्नोलीगल’ शब्दावली से भरपूर समझौते शामिल हैं.
इसी के तहत सरकार विदेशों से सस्ते अनाज का आयात करने के लिये बाध्य है. पहले देशी कृषि उत्पादों तथा किसानों को बचाने के लिये सरकार आयात पर इतना टैक्स लगा सकती थी कि उससे देशी उत्पाद बाजार में विदेशी उत्पादों से मुकाबला कर सके. इसके दायरे में कृषि के अलावा अन्य क्षेत्रों के उत्पाद तथा सेवा आ गये. कुल मिलाकर भारत को वैश्विक गांव बनने की होड़ में सरकारी हस्तक्षेप को क्रमशः कुंद कर दिया गया.
उदाहरण के तौर पर गेहूं को विदेशों से आयात करने पर उस पर 25 फीसदी आयात शुल्क लगाया जाता था. परन्तु मोदी सरकार ने सितंबर 2016 में गेहूं पर आयात शुल्क को 25 फीसदी से घटाकर मात्र 10 फीसदी का कर दिया. जिसके कारण देश के बड़े कारोबारियों ने उसी समय विदेशों से करीब 5 लाख टन गेहूं का आयात कर लिया. नोटबंदी के बाद दिसंबर 2016 में मोदी सरकार ने इस बचे-खुचे 10 फीसदी के आयात शुल्क को भी पूरी तरह से हटा लिया. जाहिर है कि इससे दुनिया के बाजार के बड़े खिलाड़ियों जैसे कारगिल, लुइस ड्रेयफस तथा ग्लेनकोर को भारत में विदेशों से गेहूं आयात करके भारतीय किसानों को तबाह करने का मौका मिल गया है.
हम बात कर रहे थे स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों से किसे परेशानी हो सकती है? जाहिर है कि किसानों को तो इससे फायदा ही मिलेगा लेकिन किसानों को तबाह किये बिना उनकी जमीन पर कब्जा नहीं किया जा सकता है, किसानों की जमीन के नीचे जो कोयला या अन्य खनिज दबा हुआ है उसका खनन नहीं किया जा सकता. इतना ही नहीं कृषि कार्यो से बेदखल कर दिये गये किसानों की विशाल फौज मौजूदा धन्ना-सेठों के कारखानों, विद्युत उत्पादन के संयंत्र तथा खदान में मजदूरी के लिये आयेंगे. जाहिर है कि किसानों को मजदूर बनाने की प्रक्रिया से मौजूदा व्यवस्था के शीर्ष पर विराजमान ‘भद्र पुरुषों’ को ही लाभ होने वाला है.
साल 2008 में अमरीका सहित यूरोप के बड़े-बड़े बाजारों तथा कंपनियों के आर्थिक रूप से दीवालिया होकर ढह जाने से इस बात की पोल खुल गई कि वर्तमान व्यवस्था रेत के किले से अपना कारोबार करता है जो तेज हवा के झोकों से धाराशाई हो जाता है. यह ठीक है कि भारत में बैंक तथा सेवा क्षेत्रों में सार्वजनिक क्षेत्रों का बोलबाला है, इस कारण से यह सुनामी भारत तक पहुंचने से पहले ही शांत हो गई लेकिन यहां भी मूल समस्या वही है जिसके कारण अमरीका में लेहमन ब्रदर्स मटियामेट हो गया. वह है लोगों की वास्तविक क्रय शक्ति दिन पर दिन कम होती जा रही है.
भारत के बड़े व्यापारिक घरानों के सामने भी समस्या है कि अपने उत्पादों को बाजार में बेचकर अपने मुनाफे में इजाफ़ा करे लेकिन यह संभव नहीं हो पा रहा है. लोगों की क्रयशक्ति बढ़ाने के लिये उन्हें रोजगार तथा वेतन पड़ता है. लेकिन अत्याधुनिकीकरण तथा मशीनीकरण के कारण विकास के दावे रोजगारहीन होते जा रहे हैं.
इसका हल यह निकाला गया कि बड़े व्यापारिक घरानों ने अपनी संपदा को बढ़ाने के लिये प्राकृतिक संपदा जैसे कोयला, खनिज, तेल, गैस एवं जंगलों पर कब्जा करने की रणनीति अपना ली है. इस तरह से कम माल बेचकर जो कम मुनाफा होता है, उसकी भरपाई प्राकृतिक संपदा को अपनी संपदा बनाकर पूरा किया जा रहा है. अब आपकी समझ में आ रहा होगा कि क्यों स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को मानकर कृषि तथा किसानों को बचाने से हाथ पीछे खींचा जा रहा है. जहां तक अनाज की कमी की बात है, उसे यही व्यापारिक घराना विदेशों से आयात करके बेच करके अलग से मुनाफा कमा लेंगे.
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि चुनाव के समय किसान जाति-बिरादरी व पार्टियों के बीच में बंट जाते हैं. भारतीय किसान एक ‘वोट बैंक’ के रूप में उभरकर सौदेबाजी करने से चूक जाता है जिसका मूल्य उसे पांच साल तक चुकाना पड़ता है. यदि किसान वोट बैंक होता तो वह राजनीतिक दलों को किसानों के लिये नीतियां लागू करने के लिये बाध्य कर सकता था. भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में समस्या का समाधान लोकतांत्रिक औजारो से ही हासिल किया जा सकता है.
* जे के कर स्वतंत्र लेखक और स्तंभकार हैं.