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…इतना अहसानफरामोश तो महज इंसान ही हो सकता है

सुनील कुमार
जानवरों को लेकर इंसानों का सोचना बड़ा दिलचस्प होता है.जिस शेर से कुछ हासिल नहीं होता, उस शेर को इंसानों ने हिन्दुस्तान में जंगल का राजा बना रखा है. यह अलग बात है कि शेर लगातार हिन्दुस्तान के कई इलाकों में इंसानों को मारने का काम भी करते हैं. लेकिन दूसरी तरफ हिरण हैं, या ऐसे बहुत से और पशु-पक्षी हैं जो इंसान का कोई नुकसान नहीं करते हैं, लेकिन उनके लिए कोई खास इज्जत इंसानी नजरों में रहती नहीं है.

बोलचाल में लोग किसी के हौसले की तारीफ करने के लिए उसे शेरदिल बताते हैं. किसी की चाल दमखम से भरी दिखे, तो उसे शेर जैसा चलने वाला कहा जाता है. दूसरी तरफ जो प्राणी इंसान का सबसे अधिक साथ देता है, जो उसके लिए वफादार रहता है, उस कुत्ते का इस्तेमाल महज गाली के लिए किया जाता है, और हिन्दी भाषा की कहावतों, लोकोक्तियों को देखें, हिन्दी के मुहावरों को देखें तो कुत्ते को लेकर महज गालियां और अपमान भरा पड़ा है. यह तो अच्छा है कि कुत्ता हिन्दी पढ़ता नहीं है, वरना वह इंसानों से वफादारी कभी की भूल गया होता.

कुछ लोगों को यह चर्चा आक्रामक राष्ट्रवादी-हिन्दुत्व का एजेंडा लग सकती है कि इंसानों की सबसे अधिक सेवा करने वाले प्राणियों को राष्ट्रीय पशु क्यों न बनाया जाए? आज भारत में शेर राष्ट्रीय पशु है, और सिंह देश का राजचिन्ह है, ऐसे में गाय महज घूरों पर दिखती है, या कि सरकारी पैसों पर चलने वाली गौशालाओं में मरी पड़ी दिखती है.

ऐसे में गाय को राष्ट्रीय पशु बनाने की सोच में एक दूसरी दिक्कत भी आड़े आ सकती है कि गाय के नाम पर धंधा करने वाले लोगों को भी यह बात शायद न जमे कि गाय को पशु घोषित किया जाए, फिर चाहे राष्ट्रीय पशु ही क्यों न बनाया जाए. गाय को मां का दर्जा देने की जिन लोगों की जिद है, और फिर चाहे बूढ़ी मां को वृद्धाश्रम में भूखा मारने में जिनकी नैतिकता और जिनके सांस्कृतिक मूल्यों को जरा भी चोट न पहुंचती हो, उनको भी गाय के नाम के साथ राष्ट्रीय पशु लिखना तकलीफ दे सकता है.

जानवरों को लेकर इंसान न सिर्फ उन्हें खाने के मामले में बेरहम हैं, बल्कि उन जानवरों को लेकर इंसानों की सांस्कृतिक संवेदना भी जगह-जगह आड़े आती है, और कई मामलों में नहीं भी आती है. धर्मालु लोग भी अपने देवी-देवताओं के वाहन बने हुए जानवरों की कभी पूजा करते दिखते हैं, तो कभी उन्हें मारने में भी नहीं चूकते. गणेश का वाहन चूहा गणेशोत्सव के दस दिनों में खूब पूजा पाता है, लेकिन उसके बाद का साल ऐसा रहता है कि कई समुदायों के लोग शौक से चूहा खाते हैं, या कि मजबूरी में भी खाते हैं.

किराने की कई दुकानों के बाहर दरवाजे खुलने के पहले से कुछ लोग खड़े दिखते हैं कि भीतर अगर चूहेदानी में चूहा फंसा हो तो उसे ले जाकर नाश्ता किया जाए. इसी तरह नवरात्रि या दुर्गा पूजा के वक्त दुर्गा के वाहन शेर या सिंह की पूजा होती है, लेकिन बाद में इंसानों को जब मौका मिलता है तब उसे मारकर उसकी खाल, उसके नाखून, और उसकी चुनिंदा हड्डियों को महंगे दामों पर बेच दिया जाता है.

जो बेकसूर इंसान को मारकर खा जाए, वह शेर जंगल का राजा है, भारत का राष्ट्रीय पशु है, जंगल का सिंह भारत का राजचिन्ह है, लेकिन जो वफादार कुत्ता इंसान की पूरी जिंदगी चौकीदारी करता है, वह महज एक गाली है. हिंदी फिल्मों में खून पी जाने से लेकर टुकड़े-टुकड़े कर देने के लिए गाली देते हुए इंसानों को दूसरों के लिए कुत्ता शब्द ही सूझता है.

इंसान की कोई भी गाली शेर या सिंह को लेकर नहीं बनी है, उसके हाथों खा लिए जाना भी इंसान को मंजूर है, और वफादार को गाली देना उसकी आदत है, उसका मिजाज है. इतना अहसानफरामोश महज इंसान ही हो सकता है.

*लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शाम के अखबार ‘छत्तीसगढ़’ के संपादक हैं.

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