फटे हुए मन के आकाश को रफ़ूगरों की तलाश है
ध्रुव शुक्ल | फेसबुक
कहते हैं कि चन्द्रमा पृथ्वी का मन है. जब पूर्णिमा का चांद समुद्रों के जल को आंदोलित करके उनकी उंची उठती लहरों पर डोलता है तो लगता है कि जैसे पृथ्वी का मन डोल रहा है. फिर डोलता हुआ सागर शान्त हो जाता है. बिलकुल इसी तरह हमारी देह में बसा सागर भी पछाड़ें मारता है. अपने ही तट को तोड़ता है और उसे भी शान्त होना पड़ता है.
बाढ़ आयी नदी भी शान्त हो जाती है. आंधियां थककर शान्त होती देखी जाती हैं.अशांति जीवन का स्थायी भाव नहीं है.
कहते हैं कि सूर्य पृथ्वी की आत्मा है. जीवन पर उजली-शान्त धूप छाई हुई है. कई तरह की हवाओं में उड़ती धूल इस उजली धूप को मैला भी करती है. आंखों में फैले उज्ज्वल आकाश को धुन्ध से भरती है. जीवन में बसी आग को कामनाओं की बयारें उकसाती ही रहती हैं. पर आग में भड़ककर शान्त हो जाने का गुण भी तो है.
कहते हैं कि आग,पानी और हवा कुसंगति में फंस जायें तो वह वर्षा चक्र बाधित होता है जो बादल बनकर सबके लिए वरदान बन जाता है. वही सबका पालनहार है. राज-काज बदलते रहते हैं पर सृष्टि अपना नियम नहीं बदलती. इस नियम के विपरीत जीवन को ढालना संभव नहीं. पर लगता तो यही है कि इस नियम से बेपरवाह होकर समाज और राज्य व्यवस्था खूब मनमानी कर रहे हैं. अब तो इस मनमानी में वैश्विक साझेदारी का बाज़ार भी गर्म है.
कहते हैं कि दैहिक, दैविक और भौतिक ताप के संतुलन से ही सबका जीवन चलता है पर हमारे शरीर, देवत्व और प्रकृति के बीच तापमान का संतुलन बिगड़ता ही चला जा रहा है और इसके लिए सब जिम्मेदार ठहरते हैं. वे भी जो दूसरों पर दोष लगाकर अपना बचाव किया करते हैं. दूसरों को दोषी ठहराकर अपने-अपने पाप छिपाने की प्रवृत्ति ने ही धरती को एक बड़े घूरे में बदल दिया है. जल और औषधियां देने वाले पर्वत दरककर धंस रहे हैं. हम जीने के लिए दूसरी पृथ्वी कहां से लायेंगे?
क्या वे लोग अपने बारे में अब भी नहीं सोचेंगे जिनका इस्तेमाल कुटिल राजनीतिक ताक़तों ने धरती पर आतंक के बीज बोने के लिए किया है और वे धरती पर कचरे की तरह लाशें बिखराते रहे हैं, आज भी बिखरा रहे हैं. आखिर इस हिंसा से उन्हें अब तक क्या मिला…बेबसी, भूख और कचरे की तरह धरती पर बिखरा पड़ा उन लोगों का घरबार जो जीना चाहते हैं.
पृथ्वी पर नदी, पेड़, पहाड़ और मनुष्य सहित सभी प्राणियों का जीवन परस्पर आश्रित है. इसे संभाले रखने के लिए बड़ी इन्सानी बिरादरी चाहिए जो आपस में मिलकर सच्ची खुदाई ख़िदमतगार होने की जिम्मेदारी निभा सके. पृथ्वी पर वृक्षों की उखड़ती जड़ों को उन हाथों का इंतज़ार है जो उन पर थोड़ी-सी मिट्टी डाल सकें. फटे हुए मन के आकाश को रफ़ूगरों की तलाश है.