कितनी आज़ाद है ग्रामीण पत्रकारों की कलम?
पी. साइनाथ
मैं पांच भाषाओं में बराबर खराब बोल सकता हूं. यहां मैं मुंबइया हिंदी में बोलूंगा. आप लोगों ने सम्मान दिया, किताब रिलीज करने को बुलाया, यह मेरे लिए सम्मान की बात है क्योंकि ग्रामीण भारत के बारे में बहुत कम छपता है. इस किताब में दस राज्यों से रिपोर्टें हैं. ये वे दस राज्य हैं जहां देश की आधी आबादी, करीब साठ−सत्तर करोड़ लोग रहते हैं. इसलिए ये बहुत अहम है. इसकी अहमियत समझने के लिए आप ये आंकड़े देखिए.
हिंदुस्तान के नेशनल अखबारों में ग्रामीण खबरें कितना छपती हैं, इसके लिए इनके फ्रंट पेज लीजिए. दिल्ली में एक संस्था है सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़. एन. भास्कर राव की. वो तीस साल से रिसर्च कर रहे हैं मीडिया के ऊपर. अभी उनका आपरेशन कमती हो रहा है क्योंकि मीडिया में रिसर्च को लेकर इंटरेस्ट नहीं रह गया है. अब मीडिया वाले मार्केट रिसर्च एजेंसी के पास जाते हैं, इनके पास नहीं जाते. सीएमएस की स्टडी में ग्रामीण खबरों पर एक रिसर्च निकला था. ये नेशनल डेली का पांच साल का डेटा है.
नेशनल डेली का मतलब वे अखबार जिनका एक एडिशन दिल्ली से निकलता हो. हो सकता है कि एक ही एडिशन निकलता हो कुल दिल्ली से, लेकिन वो भी नेशनल डेली है. बाकी सब एंटी-नेशनल डेली हैं. तो नेशनल डेली के फ्रंट पेज पर पांच साल का एवरेज ग्रामीण खबर का स्पेस है 0.67 परसेंट. ग्रामीण इलाके में जनसंख्या क्या है? 69 परसेंट, 2011 के सेंसस में. 69 परसेंट आबादी को आप देते हैं 0.67 परसेंट जगह. अगर जनसंख्या के 69 परसेंट को आप 0.67 परसेंट जगह अखबार के फ्रंट पेज पर देते हैं तो बाकी पेज किस पर जाते हैं? फ्रंट पेज का 67 परसेंट नर्इ दिल्ली को जाता है. और यह 0.67 परसेंट भी एग्ज़ैग्जरेशन (अतिरेक) है. ऐसा क्यों दिखा रहा है? क्योंकि पांच साल का यह एवरेज है. इसमें एक साल चुनाव का साल है. अगर चुनाव का साल निकाल दें, तो डेटा 0.20 परसेंट आता है.
एक पत्रकार जो काम करता है, बिना इनसेंटिव के करता है. अपने आदर्शवाद के चलते करता है. आपको ग्रामीण पत्रकारिता से कोर्इ प्रमोशन नहीं मिलने वाला है. कोर्इ रिकग्नीशन नहीं मिलने वाला है. मैंने जब “एवरीवन लव्ज़ अ गुड ड्रॉट” किताब लिखी, तब ज़माना बदल रहा था. तब मुझे थोड़ा रिकग्नीशन मिला. इस किताब का नाम मैंने नहीं दिया. एक छोटे से किसान ने मुझे ये नाम दिया था. वो मेरे साथ गया था पलामू, डालटनगंज. लातेहार में हम पहुंचे एक दिन. मैंने सोचा सर्किल आफिस में जाएंगे. किसान का नाम था रामलखन. वो मेरे साथ गया. सरकारी आफिस में एक आदमी नहीं बैठा था. सर्किल अफसर नहीं, बीडीओ नहीं, कुछ नहीं था. वहां बीडीओ को बीटीडीओ कहते हैं. ब्लॉक द डेलपमेंट अफसर. मैंने पूछा− रामलखन, ये लोग कहां गया यार. उसने बोला, सब तीसरी फसल लेने के लिए गया है. आइ फेल्ट अ लिटिल स्टुपिड… ये तीसरी फसल क्या चीज़ है. मैंने बोला− मैं जानता हूं रबी, खरीफ़. डेढ़ सौ साल पहले एक तीसरी फसल थी जायद. ये तीसरी फसल क्या है मैं नहीं समझ पा रहा. उसने बोला− ये तीसरी फसल है ड्रॉट रिलीफ (सूखा राहत). उसने कहा− यहां बड़े लोग इस तीसरी फसल को बहुत पसंद करते हैं. ये लोग अकाल को बहुत पसंद करते हैं. इस तरह मेरी किताब का नाम पड़ा.
अभी जो समकालीन पत्रकार हैं, पिछले 20 साल में उन्होंने किस विषय पर किताबें लिखी हैं? तीन दर्जन किताबें हैं मार्केट इकनॉमी के बारे में. भारत कैसे बदल रहा है, इसके ऊपर. ग्रामीण भारत पर कितनी किताब निकली आखिर? मैं एक का नाम ले सकता हूं− जयदीप हार्डिकर की “चेज्ड बाइ डेपलवमेंट”. इसलिए बहुत जरूरी है कि ग्रामीण भारत पर लिखा जाए.
“कितनी आजाद है ग्रामीण पत्रकारों की कलम”, ये जो आज का विषय है, उस पर देखें तो पिछले दिनों तीन चार रिपोर्ट आयी है. कमेटी टु प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स (सीपीजे) की एक रिपोर्ट निकली जिसका इंट्रोक्डक्शन मैंने लिखा है. अलग अलग कसौटी होती है इन रिपोर्टों की, कि पत्रकार कौन है, स्ट्रिंगर कौन है. हर रिपोर्ट में एक कॉमन फैक्टर आप देख सकते हैं. आज से तीन साल पहले तक की स्थिति ये है कि जितने भी पत्रकार मरे हैं, सौ परसेंट कस्बार्इ और ग्रामीण पत्रकार हैं. बड़े शहर से एलीट पत्रकारों में एक भी नहीं था 2013−2014 तक. इससे पहले 100 फीसदी जानलेवा हमले ग्रामीण पत्रकारों पर ही हुए. इन्हें कुछ होता है तो दिल्ली के मालिकान इन्हें डिसओन कर देते हैं.
पत्रकारिता और मीडिया में पिछले बीस साल में बहुत बदलाव आया है. एक तो बहुत लोग भूल गये कि हिंदुस्तान की पत्रकारिता की परंपरा क्या है. अभी तीन साल के बाद पहली भारतीय पत्रिका को 200 साल पूरा होने वाला है. मैं अगस्टस हिक्की विक्की को काउंट नहीं करता. वो अखबार राजा राममोहन राय का मिरातुल अखबार था. वो पहला अखबार बंगाली में नहीं, फ़ारसी में था. उस वक्त मुगल कोर्ट की भाषा थी फ़ारसी. राजा राममोहन राय से लेकर 170 साल की परंपरा थी मानवीय पत्रकारिता की. पहले ही दिन से मिरातुल अखबार सती प्रथा, विधवा ब्याह, कन्या भ्रूण हत्या, लड़कियों की शिक्षा आदि मुद्दे लेकर निकला था. दुनिया में कितने पत्रकार हैं जिनके संग्रहित काम के सौ अंक प्रकाशित हैं? एक थे गांधी और दूसरे आबेडकर. इनके सौ संकलन छपे हैं काम के. हम भूल जाते हैं कि ये लोग पत्रकार थे.
पिछले साल मैं पंजाब में गया तो मुझे बहुत निराशा हुई कि वहां सब लोग जानते हैं कि भगत सिंह शहीद थे, राजनीतिक एक्टिविस्ट थे. वे भूल जाते हें कि भगत सिंह एक पेशेवर पत्रकार थे. उसने बारह से ज्यादा पत्रिकाओं में लिखा. चार में नियमित लिखा और चार भाषाओं में लिखा− पंजाबी, उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी. उसने पहले लिखा अकाली पत्रिका में पंजाबी में, फिर अर्जुन में लिखा, प्रताप में लिखा. उन्होंने राजनीतिक लेखन कीर्ति में किया. एक नौजवान ने चार भाषाओं में सैकड़ों लेख लिखे, जब तक कि 23 साल की उम्र में उसे फांसी दे दी गयी. मैं बार बार सोचता हूं कि मैंने तो 23 साल में पत्रकारिता शुरू की थी. ये थी आपकी परंपरा.
पिछले तीस साल में बदला क्या है? पारिवारिक, निजी, ट्रस्ट के मालिकाने से कॉरपोरेट मालिकाने मे मीडिया चला गया. सबसे बड़ा मीडिया मालिक है मुकेश अंबानी है. सबसे अमीर आदमी भी वही है. आप लोग जो ईटीवी देखते हैं, उसमें केवल तेलुगु को छोड़ के बाकी 19 चैनल मुकेश अंबानी की प्रॉपर्टी है. एक ट्रस्ट बना के उन्होंने इन्हें खरीदा. दिलचस्प है कि उसका नाम है इंडिपेंडेंट मीडिया ट्रस्ट. उससे खरीद के उन्होंने धंधा शुरू किया.
मीडिया में कारपोरेटाइजेशन (निगमीकरण) 1985 से आया. तब से ही ग्रामीण पत्रकारों की दिक्कत शुरू हुई. दो बड़ी गतिविधियां शुरू हुईं 1985 में. पहला, कॉरपोरेटाइजेशन लाने के लिए यूनियन को हटाना, संगठन खत्म करना. इसकी शुरुआत समीर जैन ने टाइम्स आफ इंडिया से की. फिर सबने अपनाया. कैसे खत्म करना है संगठन, इसका पहला मास्टरस्ट्रोक था रोजगार से ठेके पर पत्रकारों को लाना. आप 11 महीने के ठेके पर हैं. मैं आपका एडिटर हूं. आठवें महीने में मैं आपको बुलाकर कहता हूं कि आप शरद पवार की सराहना में लिखो, इसको उसको गाली दे दो. जो कुछ मैं कहता हूं आप करने वाले हैं क्योंकि आपका नब्बे दिन का कांट्रैक्ट बचा है रिन्यू होने से पहले.
जब मैंने पेड न्यूज की स्टोरी ब्रेक की अशेक चव्हाण की… एंड आइ एम वेरी प्राउड आफ इट… जिस दिन वो स्टोरी आयी, एक सीनियर पत्रकार ने मुझे फोन किया. मुझसे भी सीनियर. उसने बताया कि उसके अखबार में एक फ्रंट पेज आ रहा है एक सीनियर कैबिनेट मंत्री के बारे में, और उसके नाम से आ रहा है. उसने कहा कि वो सौ परसेंट पेड न्यूज है और उनके नाम से छप रहा है. मैंने पूछा− क्या हुआ बड़े भाई? आपके नाम पर पेड न्यूज़ आ रहा है? उसने कहा- देख यार, तीस साल पहले हम सब वर्किंग जर्नलिस्ट एक्ट के नीचे थे. आप आज भी (दि हिंदू में) उसके अंडर में हैं लेकिन मेरे अखबार में 11 महीने का कांट्रैक्ट है. कल मुझको संपादक ने बुलया था केबिन में. वहां ब्रांड मैनेजर, सीएफओ और सीईओ बैठे थे. उसने बोला, एक बड़ा चीज आया है मेरे पास. एक बड़ा कैबिनेट मंत्री है. तो एक बड़े पत्रकार का नाम भी होना चाहिए उस पर. मैंने पूछा− साब, ये कहा से आया. संपादक ने कहा− वो पीआर एजेंसी से आया है, आप उसको थोड़ा सुधार करो.
मैंने पूछा− फिर क्या कहा आपने. उसने कहा− साइनाथ, मैं क्या बोलूं. 11 महीने के कांट्रैक्ट पर हूं. अभी आठ महीना हो गया है. मेरा एक बेटा कालेज छोड़ के नौकरी ढूंढ रहा है. मेरी माताजी अस्पताल के आइसीयू में हैं. दो बच्चे स्कूल छोड़ के निजी कालेज में जा रहे हैं. घर का तीस हजार र्इएमआइ जा रहा है हर महीने. तो क्या मैं हीरो बन जाऊं?
मैं क्या बोलता उससे? मैं उससे नौकरी छोड़ के हीरो बनने को नहीं कह सकता था. कभी-कभी आदमी ये भी करता है कि सब छोड़ के हीरो बन जाता है और घर बैठ जाता है बेरोजगारी में.
तो कॉरपोरेटाइजेशन में मीडिया पूरा बदल गया. पत्रकारिता की समझ, उसका दर्शन और कॉरपोरेट का दर्शन एकदम अलग है. पत्रकार देखता है कि खबर क्या है, उसका सबूत क्या है. ये पत्रकार की मानसिकता है. कॉरपोरेट के लिए रेवेन्यू और प्राफिट असल चीज़ है. उनकी दिलचस्पी नहीं है कि पत्रकार ने बढिया स्टोरी किया, वो ये देखते हैं कि स्टोरी से रेवेन्यू मिलेगा या नहीं. कॉरपोरेट सोचता है कि मैं इस स्टोरी को तब कवर करूंगा जब मुझे कहानी से पैसा आएगा. उस कैबिनेट मंत्री से एक करोड़ की डील हुर्इ थी तीन-चार हजार शब्दों के लिए, वो भी चुनाव के टाइम में.
तो कॉरपोरेट और पत्रकार की मानसिकता अलग है. मैं कहता हूं कि 1990 से मीडिया और पत्रकारिता दो अलग-अलग चीज़ बन गयी है. जर्नलिज्म हम करते हैं, मीडिया धंधा करताहै, मुनाफा कमाता है. उसका मूल उद्देश्य यही है. पत्रकारिता को रेवेन्यू स्ट्रीम तक लाकर छोड़ दिया गया है. समीर जैन ने मुझको कहा− साइनाथ जी, पत्रकारिता किसी भी धंधे की तरह एक धंधा है. मैं इस बात को नहीं मानता. यह किसी और उत्पाद की तरह उत्पाद नहीं है. आप टूथपेस्ट को छह महीना बेच सकते हैं. कल का अखबार आप आज बेच सकते हैं क्या? मीडिया एक धंधा है, कारोबार है. टीवी एक कारोबार है, अखबार एक धंधा है, पत्रकारिता एक आह्वान है, पुकार है. पत्रकारिता हम अपने दिल से करते हैं.
अब पत्रकारों पर हमले की बात. सौ परसेंट हमले 2013 तक ग्रामीण पत्रकारों पर हुए. जितना बड़ा जानलेवा हमला पत्रकारों पर हुआ, उसमें एक भी अंग्रेजी का नहीं है. सारा हमला हिंदुस्तानी भाषाओं के पत्रकारों पर हुआ. यह भी एक क्लास हाइरार्की (वर्गीय भेद) है. बीते 15 साल में कुल 27 मौतें. सीपीजे की रिपोर्ट का परिचय लिखने के दौरान मैंने एक-एक सूची देखी. एक भी अंग्रेजी वाला पत्रकार नहीं था. एक था जो अंग्रेजी और हिंदी दोनों में रिपोर्ट किया था, डीडी श्रीनगर का रिपोर्टर.
क्यों बढ़ गये हमले? इस देश में कारपोरेट जगत की ताकत है माइनिंग, सेज़ (एसर्इजेड), भूमि अधिग्रहण. ये सब कौन कवर करता है? ग्रामीण पत्रकार. जब कोर्इ बड़ा एक्सपलोजन हो जाता है पास्को में, तब शहरी पत्रकार आते हैं, फोटो और कोट लेते हैं और भाग जाते हैं. ऐसे ही कवर हुआ पास्को. आज तक कोर्इ भी बड़ा अखबार यह खबर नहीं किया कि पास्को में जो दो गांव प्रतिरोध किए, वे संघर्ष में जीत गए. उन्होंने पास्को को उडीसा से बाहर फेंक दिया. अभी वहां जिंदल आ गया है. जिंदल भी पास्को या एनरान की तरह बड़ा विज्ञापनदाता है. कौन उसके खिलाफ लिखेगा? तो सबसे पहली अहम बात, कारपोरेटाइजेशन में खबर ही रेवेन्यू का माध्यम बन गयी.
दूसरा बड़ा बदलाव 2013 में आया जब शहरी और एलीट पत्रकार भी हमले की चपेट में आ गए. पहला कौन था? नरेंद्र दाभोलकर. पांच साल के बाद भी इस क्राइम का मामला हल नहीं हुआ है. सब जानते हैं कि दाभोलकर सिर्फ अंधविश्वास विरोधी एक्टिविस्ट नहीं थे. पचीस साल उन्होंने एक पत्रिका चलायी थी. पुलिस ने उनका केस कमजोर कर दिया क्योंकि उस समय संघ परिवार की सरकार आ चुकी थी. एक नौजवान पुलिस अफसर जांच में अच्छा काम कर रहा था, उसे हटा दिया गया. उनका परिवार लगातार कहता रहा कि इसी अफसर को रखा जाए, उसकी नहीं सुनी गयी.
दूसरा गोविंद पानसारे. वे सीपीआइ के लीडर थे. ट्रेड यूनयन लीडर, लेकिन इतिहासकार और कालमिस्ट भी थे. तीस साल से वे कालम लिख रहे थे. सुना है नाम? उनका सबसे मशहूर काम क्या था? एक किताब-“शिवाजी कौन थे?” यह रेशनल अप्रोच से लिखी किताब थी. इसमें उन्होंने दिखाया था कि छत्रपति शिवाजी महाराज एक सेकुलर राजा था. उसका पर्सनल बाडीगार्ड था एक अफगान पठान. मुगल साम्राज्य के खिलाफ शिवाजी की लड़ाई सत्ता के लिए की गयी राजनीतिक जंग थी.
शिवाजी महराज ने पंद्रह पत्र लिखे हैं अपने अफसरों को यह कहते हुए कि किसानों को नहीं लूटा जाना चाहिए क्योंकि वे हमारे समाज का आधार हैं. पानसारे ने 2005 से ज्यादा हमला कट्टरपंथियों पर किया. जहां भी उन्होंने लिखा या भाषण दिया, कट्टरपंथियो पर हमला किया. उनको उनके घर के सामने मार दिया गया. इसके बाद एमएम कलबुर्गी. वे पत्रकार थे. अकादमिक थे. विद्वान थे. कालम लिखते थे. उनको भी मार दिया गया. इन लोगों के बीच समान क्या था? तार्किक विचार. चौथी हत्या थी हाइ प्रोफाइल पत्रकार गौरी लंकेश की.
इन चारों के बीच समान बात यह है कि चारों ही भारतीय भाषाओं में लिख रहे थे. भारतीय भाषा में लिखने वाले पत्रकारों पर सबसे ज्यादा हमले हुए हैं. उनका क्लास अलग होता है. उनका एलीट स्टेटस नहीं होता है. पहले हालत यह थी कि आप अपर कास्ट, अपर क्लास (उच्च वर्ण, उच्च वर्ग) से आते हैं तो उसका एक इंश्योरेंस होता था. पिछले पांच साल में उस इंश्योरेंस का प्रीमियम डबल हो गया. अब वे सबको मार रहे हैं. सबको….
मैं ये भी कहता हूं कि पिछले तीन साल में सबसे बड़ा इवेंट जो हुआ- नोटबंदी और जीएसटी- उसका ज्यादा असर ग्रामीण भारत में पड़ा. कारपोरेट मीडिया में आप देखिए कि नोटबंदी के असर पर कितना आर्टिकल छपा है. अभी पवन जायसवाल जी यहां बैठे हैं जिनके ऊपर एफआइआर हुआ मिड डे मील की स्टोरी पर, आपको बधाई, आइ सल्यूट यू. आप सब जानते हैं नमक रोटी कांड के बारे में. नोटबंदी के बाद आपने कितनी स्टोरी देखी कि मिड डे मील पर उसका क्या असर पड़ा? महाराष्ट्र सबसे अमीर राज्य है. वहां एक दो महीने के लिए पूरा मिड डे मील खत्म हो गया. मिड डे मील में गेहूं चावल को छोड़ दें तो बाकी सब कुछ रोजाना नकदी में खरीदते हैं. वो सब खत्म हो गया. इस देश के करोड़ों बच्चों ने मिड डे मिल में बैठकर क्या खाया? चावल और पीले रंग का एक द्रव्य जिसको सांभर कहते हैं, जो नाली में बहायी गयी दाल जैसा दिखता है. इसकी रिपोर्टिंग कौन किया? सिर्फ ग्रामीण और कस्बार्इ पत्रकार.
आप ताली बजा रहे हैं, लेकिन मैं आपको कहना चाहता हूं कि आपके ऊपर तनाव बढ़ने वाला है, हमले बढ़ने वाले हैं. ये भी डिस्कस करना है कि उसके बारे में क्या किया जा सकता है. उस पर भी आता हूं.
देखिए, अभी यूपी में इतना इशू बन गया गाय का. छुट्टा गाय. मुझको समझ में नहीं आता कि जो गाय का भजन गाते हैं वो गाय और देसी गाय के बारे में कुछ नहीं जानते. कुछ भी नहीं जानते. महाराष्ट्र में एंटी काउ स्लॉटर (गोकशी विरोधी कानून) को 2015 में एक्सटेंड कर दिया गया. क्या हुआ? बंबई के बायकुला में सबसे चिड़ियाघर है बॉम्बे ज़ू. उसमें बाघ और शेर को चिकन दिया जा रहा था खाने को. पता नहीं इस पर हंसना चाहिए या रोना. शेरों को मुर्गी खिलायी जा रही थी. आप जानते हैं कि एक शेर को भर पेट मीट देना हो तो कितने चिकेन को मारना पड़ेगा? ये तो चिकेन का जेनोसाइड बन जाता है. बीबीसी ने वहां इस पर जब स्टोरी किया तो ये यह बड़ा मुद्दा बन गया. फिर सरकार ने रात को चुपके से शेरों को बीफ दिया. शेरों का वजन काफी तेजी से घट रहा था इसलिए रात को चोरी से उन्हें बीफ दिया गया. ये तो शहर में था, इसलिए टीवी क्रू आ गया. गांव में क्या हुआ?
आप सब जानते हैं कि हर गांव दो तीन गांवों पर एक मवेशी बाजार होता है. जब आप आइएएस ट्रेनिंग में जाते हैं तो आपको एक सबक सिखाया जाता है. सबक यह है कि जब कैटल मार्केट का दाम 30 परसेंट गिर जाता है तो इसका मतलब आपके जिले में कृषि संकट है. ग्रामीण संकट है. नोटबंदी के बाद मवेशी के दाम 30 नहीं, 80 परसेंट गिरे. मैं ग्रामीण इलाकों में काम करता हूं और शहरों में रहता हूं, तो दो तरफ से गाय पर फोकस करता हूं. जो महाशय कैलकुलेशन किया गोकशी को बंद करने का, उसकी विचार प्रक्रिया यह थी कि इसके बहाने मुसलमानों को नुकसान पहुंचाएंगे. वो ये नहीं जानते कि ग्रामीण इकनॉमी में गाय की भूमिका क्या है. मवेशी के दाम जब बाजार में 80 परसेंट गिर गये तो उससे कुरैशी, कसार्इ को नुकसान हुआ. अहा, तालियां… आप उनको ही तो खत्म करना चाहते थे. वो खत्म हुआ. लेकिन मवेशी बाजार का दलाल सब ओबीसी है. उसका भी धंधा साथ में खत्म हो गया. अब आप मवेशी को न बेच सकते हैं, न खरीद सकते हैं. खरीदने के लिए पैसा नहीं है, बेचने के लिए हिम्मत नहीं है.
और कौन कौन सफ़र किया? किसान. किसान कौन सी जात है? मराठा. पहले मुसलमान, फिर ओबीसी, फिर मराठा किसान और अंत में सबसे नीचे वाले क्षेत्र पर बुरा असर पड़ा. आप मेक इन इंडिया की बात करते हैं. महाराष्ट्र में सौ साल पहले एक मेक इन इंडिया ब्रांड था− कोल्हापुरी चप्पल. वो कौन बनाते हैं? दलित. चप्पल तो दलित ही बनाते हैं, और कौन? वो दिवालिया हो गया. आपने मुसलमान को दंडित करने के लिए जो किया, उससे आपने ओबीसी, मराठा, सारे उच्च वर्ण के किसानों को भी पनिश कर दिया जिनके पास चार पांच मवेशी थे. टाइम्स ऑफ इंडिया में एक रिपोर्ट आयी. एक आदमी के पास दस गायें थीं. वो मराठा किसान था. अकाल पड़ रहा था पांच साल से. उसने कहा- मैं अपने परिवार को खाना नहीं दे सकता हूं, दस गायों को कैसे दूं. रिपोर्टर ने उससे पूछा- आप इसे मार्केट में क्यों नही ले जा रहे? उसने कहा- हाइवे पर बजरंग दल, वीएचपी के लोग मुझे खत्म कर देंगे. तो आप क्या करेंगे? उसने कहा- मैं अपनी गायों को अपनी आंखों के सामने मरता देखूंगा. उधर उत्तराखण्ड में लोगों ने अपने मवेशियों को ले जाकर जंगल में छोड़ दया. बाघों और तेंदुओं को इस तरह मुफ्त मीट आप दे रहे थे, इधर लोग भूखे मर रहे थे.
इस देश में गणना कैसे की जाती है, इसे देखिए. हर पांच साल पर देशव्यापी मवेशी गणना की जाती है. 2017 की मवेशी गणना अब तक नहीं की गयी है, जिसे 2016 में ही शुरू हो जाना था. 2018 की जनवरी में मैंने मंत्रालय से पूछा कि आपकी गणना अब तक शुरू भी नहीं हुर्इ. मालूम है क्या जवाब दिया? साब, इस साल हम लिख के नहीं कर रहे, टैबलेट पर कर रहे हैं. तो हजारों सरकारी कमर्चारियों को टैबलेट के इस्तेमाल करने की ट्रेनिंग अभी चल रही है. अब तक 2017 की गणना नहीं हुर्इ. इस तरह से तीन साल की देरी को जस्टिफाइ किया गया.
मैं 1990 के दशक से इस गणना को देख रहा हूं. 2003 के सेंसस से मैं देख रहा हूं कि हर पांच साल पर उन मवेशियों की संख्या घट रही है जिन्हें गरीब पालते हैं, जैसे ऊँट, सुअर, बकरी, भेड़. सबसे बड़ी गिरावट किसकी आयी है? देसी गाय. भारतीय नस्ल वाली मजबूत प्रजाति की गाय. ये इसलिए, क्योंकि आपका वैज्ञानिक और कृषि प्रतिष्ठान, पशुपालन प्रतिष्ठान, सब संकर नस्ल की सर्विस ब्राउंन जर्सी को प्रमोट कर रहा है. इंडिया में एक और प्रजाति आयी है. करनाल में आप जाएंगे तो आपको लोग बताएंगे- आधा जर्सी. ये क्या चीज है? ये किस चिडिया का नाम है? आधा जर्सी मतलब देसी गाय को जर्सी गाय के वीर्य से गाभिन बनाना. मेरी किताब में पहली कहानी इसी पर है.
मैं 2006-07 का अपना पर्सनल अनुभव बता रहा हूं. मनमोहन सिंह जी ने मुझसे दो-तीन बार बात किया कि क्या करना है. मैंने कहा- प्रधानमंत्री जी, हर किसान मवेशी पालक नहीं है. पशुपालक एक अलग श्रेणी होती है. उसके लिए ट्रेनिंग चाहिए. 2004 से 2006 तक विदर्भ का कृषि संकट चरम पर रहा. मैंने जितने भी पत्र लिखे सरकार को, उनके बावजूद राज्य और केंद्र सरकार ने सैकड़ों भैंस और विदेशी गायें बांट दीं. मैंने जितना भी कहा, मनमोहन सिंह ने उलटे गाय भैंस का वितरण किया क्योंकि विलासराव देशमुख कह रहे थे कि साइनाथ तो पत्रकार है, मैं किसान हूं. ये अलग बात है कि वो कॉरपोरेट किसान थे. इनके लाभार्थी पूरी तरह दिवालिया हो गये. उस गाय को पालने के लिए 300 रुपया प्रतिदिन चाहिए कम सेकम और हर हफ्ते में दो बार पशु चिकित्सक को भी बुलाना होता था. इस नस्ल की पैदाइश योरप के तापमान में हुई है, यहां यवतमाल में 47 डिग्री में आप इसे रखेंगे तो क्या होगा? पहले छह महीने में ही 37 में से 20 गायें मर गईं. परिवार दिवालिया हो गये.
एक महिला थी कमलाबाई गुणे. विधवा थी. उसके पति ने खुदकुशी कर ली थी कृषि संकट के कारण. मैंने तीन दिन देखा कि वर्धा में वह बूढी औरत करनाल वाली बड़ी भैंस लेकर लगातार सड़कों पर घूम रही है. मैंने पूछा- कमलाबाई, आप क्या कर रही हैं भैंस के साथ. उसने कहा- साब, देख रही हूं कोई लेने वाला मिल जाए तो. मैंने कहा- इतनी बड़ी और अच्छी भैंस है, इसे आप किसी को क्यों दे रही हैं. वो बोली- साहेब, ये भैंस नहीं है भूत है. मेरे पूरे परिवार से ज्यादा खाती है. अगर आप किसान को 250 रुपया रोज देते हैं तो कृषि संकट ही खत्म समझिए, जबकि उस गाय या भैंस की न्यूनतम लागत ही रोजाना 250 रुपये है, दो बार हफ्ते में पशु चिकित्सक को दिखाना भी है अलग से.
मेरा सबसे बड़ा अनुभव बताता हूं. एक रात मैं आठ बजे एक गांव में घूम रहा था. एक आदमी आया बड़ी सी भैंस लेकर. वह एक पढ़ा-लिखा किसान था, बीएससी साइंस. वो बहुत पी के आया मेरे सामने. वो बोला- आप कौन हैं मेरे गांव में? मैं बोला; पत्रकार हूं, आपके डिमांड और हितों के बारे में लिखने आया हूं. वो बोला- मैं डिस्काउंट पर देता हूं, यह भैंस खरीद लो. मैंने बोला- मैं पत्रकार हूं, भैंस का क्या करूंगा. उसने कहा- देखो, समझो, यह साधारण भैंस नहीं है, प्रधानमंत्री की भैंस है. स्पेशल है. फिर मैंने कहा- देखो यार, मैं शहर का रहवासी हूं, क्या करूंगा ले जाकर. उसने कहा- आप पत्रकार लोग एकदम बेकार हैं. आप नोटबुक निकालो, मेरी मांग लिखो. उसी समय छठवां वेतन आयोग आया था. उसने मुझे लिखवाया- “अब अगला पे कमीशन आएगा, तो जितना बाबू लोग को आपने इंक्रीमेंट दिया, सबको एक एक गाय भैंस दे देना, इंक्रीमेंट हम किसान लोग को दे देना. उनको एक एकड़ ज़मीन भी दे दो उसको पालने के लिए, लेकिन नकदी हमको दे दो.” बढ़िया डिमांड था.
गांवों में जो नुकसान हुआ है वह कुदरती नहीं, हमारी आर्थिक नीतियों से हुआ है. यह जान बूझकर हुआ है. मानवीय है. उसके साथ देश में असमानता बढ़ गयी है. असमानता सबसे ज्यादा गांवों में बढ़ी. आपको मैं दो आंकड़े देता हूं. 1991 में नर्इ आर्थिक नीति से पहले इस देश में एक भी डॉलर अरबपति नहीं था. फिर फोर्ब्स मैगजीन- जो ग्लोबल पूंजीवाद की पुजारी है- उसका 2000 में जो अंक आया, उसमें बताया गया कि डॉलर अरबपति भारत में 8 हो गए. फिर 2012 में 53 डॉलर अरबपति हो गए. 2018 में 121 डॉलर अरबपति इस देश में हो गए. आपकी जनसंख्या 130 करोड़ से ज्यादा है, इसमें 121 आदमी (तीन चार महिला भी है उसमें) की धन-दौलत का वैल्यू हिंदुस्तान की जीडीपी का 22 परसेंट है. दुनिया में कोई भी समाज ऐसी असमानता पर टिके नहीं रह सकता.
2011 की जनगणना में पता चला कि सबसे बड़ा पलायन हुआ है इस देश के इतिहास में. विभाजन के बाद भी इतना बड़ा पलायन नहीं दिखा था. कोई नौकरी तो कोई छिटपुट काम के लिए गांव छोड़कर भाग रहा है जबकि शहर में काम है नहीं. आपने एक रोजगार नहीं क्रिएट किया. जो किसान बनारस छोड़ कर जाते हैं उनको लखनऊ में इंफोसिस में काम मिलेगा क्या? हां, मिल भी सकता है, लेकिन उसकी कैंटीन में चाय बांटने काकाम. 1991 और 2011 सेंसस में देखिए, किसानों की आबादी 150 लाख गिर गयी. कहां गए ये किसान? सेंसस में एक और कॉलम में आप देख सकते हैं कि खेत मजदूरों की संख्या बढ़ रही है. मतलब जितनी जमीन गयी, जितने लोग खेती छोड़ गए, वे सब मजदूर बन गए. इसकी रिपोर्टिंग किसने की? उन ग्रामीण पत्रकारों ने, जो मेरे साथ घूमते हैं. वे ही दिखा सकते हैं आपको कि देश में दरअसल क्या हो रहा.
थोड़ा सा आपकी संसद के बारे में भी बात करना चाहता हूं. 2004 में आप नया हलफनामा ले आए जिसमें हर प्रत्याशी को खुद अपनी धन दौलत के बारे में उद्घाटन करना था. हमारा विधायक सब कितना ईमानदार है, कोई आइटी रिटर्न उससे नहीं लेगा, जो खुद बताए वो ही चलेगा. इस हलफनामे के मुताबिक 2004 में निर्वाचित लोकसभा प्रत्याशियों में 32 परसेंट करोड़पति निकले. खुद उन्होंने स्वीकार किया. 2009 में यह बढ़कर 53 परसेंट हो गया. 2014 में 82 परसेंट करोड़पति लोकसभा में पहुंचे. तब मैंने सोचा कि इस बार 2019 में 100 परसेंट क्रॉस करना ही पड़ेगा, लेकिन इतनी मॉडेस्टी है हमारे नेताओं में कि यह आंकड़ा 88 परसेंट पर ही रह गया. इस बार सेल्फ डिक्लेयर्ड 88 परसेंट करोड़पति लोकसभा में हैं. यह एडीआर (असोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स) का आंकड़ा है. वो हर साल इसे जारी करता है. एक तरफ ये हो रहा है. दूसरी तरफ अरबपति बढ़ रहे हैं. और एक तरफ नरेगा को देखिए, कि वहां क्या हो रहा है.
मैंने अरबपति और नरेगा मजदूरों की तुलना की है. कुल 121 अरबपतियों में नंबर वन कौन है? जिसके पास इतना पैसा है कि दो और तीन नंबर वाले को मिलाकर भी उससे कम पड़ता है? उसका नाम है मुकेश भाई. मुकेश भार्इ ने 2017 में एक साल में 16.9 अरब डॉलर पैसा कमाया. रुपये में उस समय यह एक लाख पांच हजार करोड़ था. मैंने सोचा कि अगर मैं नरेगा मजदूर हूं तो मैं भी एक लाख पांच हजार करोड़ रुपया कमा सकता हूं. हां, लेकिन थोड़ा टाइम लगेगा इसमें. एक लाख 87 हजार साल लगेगा इतना पैसा कमाने में. या कहें, 187 लाख नरेगा मजदूर लगेंगे इतना पैसा एक साल में कमाने में.
यह संकट जितना बढ़ रहा है गांव में, उतना ही धन का संकेंद्रण बढ़ रहा है राजधानी में, मुंबई में. मुंबई हिंदुस्तन का सबसे अमीर शहर है. वहां से नब्बे किलोमीटर दूर ठाणे में भुखमरी से 17000 आदिवासी की मौत हर साल होती है, 2017 में बाम्बे हाइकोर्ट के एक फैसले में यह सामने आया था. ये कुपोषण से जुड़ी मौतें थीं, सरकार ने माना था. जैसे जैसे यह असमानता बढ़ रही है, गांवों की जीवनशैली खराब हो रही है. इसकी रिपोर्टिंग एक बड़ी चुनौती है जिसे ग्रामीण पत्रकार ही पूरा कर सकते हैं. जब आप इस तरह की चीजें रिपोर्ट करेंगे तो एक तो प्लेटफार्म की दिक्कत है कि इसे कौन छापेगा, दूसरा हमले की आशंका. हमला केवल शारीरिक नहीं है, दूसरे किस्म का भी हो सकता है.
जैसे दिल्ली में परंजय गुहा ठाकुरता ने जब गैस वार्स नाम की किताब लिखी थी रिलायंस पर. रिलायंस ने उनको सौ करोड़ का नोटिस थमा दिया था. जब रिलायंस 100 करोड़ का नोटिस परंजय को देता है तो वह जानता है कि उसकी जेब में सौ रुपया भी शायद होगा, लेकिन रिलायंस को पैसा नहीं चाहिए. यह तो चेतावनी है बाकी पत्रकारों को, कि आप भी अगर ऐसा लिखेंगे तो आपको खत्म कर दिया जाएगा.
एक के बाद एक रैकेट है यहां. फसल बीमा योजना को लें… मैं बार बार कह रहा हूं कि यह राफेल घोटाले से भी बड़ा घोटाला है. राफेल का कितना है? 58000 करोड़. फसल बीमा में अब तक की कुल पब्लिक मनी है 86 हजार करोड़ और ये पैसा किसान को नहीं, बीमा कंपनियों को जा रहा है. चंडीगढ़ के ट्रिब्यून अखबार ने आरटीआइ लगाया था इस पर. उसमें सामने आया कि पहले 24 महीने में जब 42000 करोड़ सेंटर और स्टेट का खर्च हुआ, तो 13 बीमा कंपनियों ने मिलकर 15,995 करोड रुपये का मुनाफा बनाया यानी हर दिन का मुनाफा 21 करोड रुपये. यह फसल बीमा योजना कितनी खराब स्कीम है, इससे अंदाजा लगाएं कि कौन से राज्य ने सबसे पहले केंद्र से कहा कि हमको यह नहीं चाहिए− मोदी जी का गुजरात. उसने केंद्र से कहा कि हमें अपनी योजना चाहिए, केंद्र की नहीं. अगर मोदी जी का गृहराज्य कह रहा है कि हमें यह योजना नहीं चाहिए, तो बाकी का हाल समझो क्या होगा.
जो बड़े बुद्धिजीवी हैं, वे सब कॉरपोरेट के लिए लिखते हैं. आप देखिए, 2014 में जब ये सरकार आयी तो इसने स्वामिनाथन कमीशन के हिसाब से एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) देने का वादा किया यानी उत्पादन लागत प्लस पचास परसेंट. साल भर के भीतर सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने हलफनामा दे दिया कि वह यह नहीं कर सकती क्योंकि इससे बाजार मूल्य बिगड़ जाएगा. 2016 में राधामोहन सिंह, तत्कालीन कृषि मंत्री, ने बोला कि हमने ऐसा वादा कभी किया ही नहीं था. 2017 में इन्होंने कहा कि स्वामिनाथन छोड़ो, शिवराज चौहान का एमपी वाला मॉडल देखो. एक बड़े बुद्धिजीवी और अर्थशास्त्री ने इस पर एक किताब लिखी. जिस दिन दिल्ली के आइआइसी में उसका लोकार्पण हो रहा था, उसी दिन मंदसौर में पांच किसानों को गोली मार दिया गया. ये था एमपी मॉडल. जब आपने मुझे पब्लिक इंटेलेक्चुअल कहा तो मैंने सोचा कि बाकी सब प्राइवेट इंटेलेक्चुअल हो गये हैं क्या. सच यही है कि एलीट बुद्धिजीवी सब कारपोरेट के लिए लिख रहे हैं.
पत्रकारिता में अभी दो स्कूल हैं− एक है पत्रकारिता, दूसरा स्टेनोग्राफी. अभी अखबार और चैनल में स्टेनोग्राफी कर रहे हैं सब. जो मालिक बोलता है, वे लिखते हैं. मैं पीपुल्स आर्काइव आँफ रूरल इंडिया (परी) नाम की वेबसाइट तेरह भाषाओं में चला रहा हूं. बड़े-बड़े पत्रकार छद्म नाम से हमको लेख और फिल्में दे रहे हैं क्योंकि उनके यहां वह छपने वाला नहीं है. मेरी सीनियरिटी के लोग मुझे लिख कर दे रहे हैं. वे भी एक जमाने में पत्रकारिता में अच्छा काम करने के लिए आए थे, समाज में सुधार करने के लिए आए थे. गांधी, आंबेडकर, भगत सिंह, सब इसी आदर्शवाद और समाज सुधार को लेकर पत्रकारिता में आए थे.
जिसे हम कृषि संकट कहते हैं, वह दरअसल समाज का संकट है. मिस्त्री, दर्जी, मोची, सारे संबद्ध पेशे कौलैप्स कर रहे हैं. मैं कहता हूं कि यह समाज का संकट भी नहीं है, यह सभ्यता का संकट है. हमारी सभ्यता छोटे किसान, छोटे मजदूर पर आधारित है. इसलिए यह सभ्यता का संकट है. मैं आखिर में ये भी कहता हूं कि जो आग कृषि में लगी है वो मध्यवर्ग तक पहुंच चुकी है तब भी हम आवाज नहीं उठाते हैं. तीन लाख 20 हजार किसान खुदकुशी कर चुके हैं और हम चुपचाप बैठे हैं. क्या समाज है जो चुपचाप इसे स्वीकार कर रहा है? इसलिए मैं कह रहां हूं कि यह हमारी इंसानियत का संकट है.
इस संकट के बीच आखिर ग्रामीण पत्रकार कैसे अपना काम करे? मैं क्या सलाह दूं आपको? आप खुद ही अनुभव कर रहे हैं. यह संकट आपका है. दिक्कत यह है कि डिबेट नहीं हो रही है, संवाद नहीं हो रहा है. यह दरअसल क्लाइमेंट चेंज का मुद्दा है, लेकिन अखबारों में रिपोर्टिंग के नाम पर कुल मिलाकर अमेज़न या आस्ट्रेलिया के जंगलों की आग या फिर अंटार्कटिका की बर्फ पिघलने की खबरें हैं. मैंने मराठी ग्रामीण पत्रकार संघ को भी यही कहा, कि मैं इसे मौसम का महासंकट मानता हूं. मैं परी में देशव्यापी रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट कर रहा हूं. अरुणाचल से महाराष्ट्र और तमिलनाडु तक हम क्लाइमेंट चेंज पर अलग तरीके से रिपोर्टिंग कर रहे हैं− आम लोगों के अनुभवों के हिसाब से क्लाइमेंट चेंज की रिपोर्टिंग. मुझको आश्चर्य लगता है कि जब हम एक्सपर्ट से बात करते हैं तो वे एक्सपर्ट भी आम लोगों के अनुभवों की ही पुष्टि कर रहे होते हैं. गरीब आदमी उनकी तरह शब्द भले इस्तेमाल नहीं कर सके लेकिन गांव के लोग तापमान, मौसम आदि के बदलने का बेहतर अनुभव करते हैं. मछुआरे बेहतर जानते हैं कि तापमान, मौसम और जलवायु के बीच क्या अंतर है.
दक्षिण एशिया में बुरी तरह मौसम का महासंकट आ रहा है. मोदी जी जाते हैं पेरिस में, वैसे तो वे घूमते ही रहते हैं, वहां वे कुछ भी कह देते हैं क्लाइमेट के बारे में और अखबार छाप देते हैं. आप देखिए, हिमालय के बंजारे, तमिलनाडु के मछुआरे, ये सब इसका विकल्प अपने स्तर पर खोज रहे हैं. तमिलनाडु के मछुआरों ने एक सामुदायिक रेडियो निकाला है “साउंड आँफ द वेव्स”. इससे वे अपने समुदाय को क्लाइमेंट चेंज के बारे में शिक्षित कर रहे हैं. केरल सबसे पहला राज्य है जो समुद्र का जलस्तर बढ़ने से प्रभावित होगा. वहां रह रहे ग्रामीण लोग अपने अनुभवों से जानते हैं कि क्लाइमेट चेंज में क्या हो रहा है. इसे केवल ग्रामीण पत्रकार ही रिपोर्ट कर सकता है, शहरी पत्रकार नहीं. नगरी पत्रकार तो बहुत मुश्किल से गाय और भैंस या गेहूं और चावल के बीच फर्क बता सकता है. दिक्कत यह है कि अभी तो हमारा हाल बुरा है, आगे और बुरा होने वाला है. हम लोग क्या करें ऐसे में…?
मेरी समझ में एक प्लेटफॉर्म होना चाहिए, और एक नेटवर्क होना चाहिए. अभी एक बात देखें. ये क्राइसिस इतनी दूर रह गयी है कि अगले साल दो लाख आइटी वर्कर बेरोजगार हो जाएंगे. 2018 में 70000 लोग आइटी सेक्टर से बेरोजगार हुए थे. मैं चाहता हूं कि आप लोग वो करें जो हमने किया है. आप लोग सहकारी मॉडल पर वेबसाइट बनाइए. हम आपकी मदद करेंगे. परी आपकी मदद करेगा. एक जिले में आठ दस लोग मिल कर सहकारी वेबसाइट बनाओ. कंपनी नहीं बनाना है. ट्रस्ट या सोसायटी बनाओ. कोशिश करो एक बड़ी वेबसाइट बनाने का, जो यूपी के सभी जिलों को कवर करे. प्लेटफार्म तो मिलेगा. आप विज्ञापन भी ले सकते हैं. वेबसाइट चलाना अखबार से ज्यादा सस्ता है. अखबार में 70 परसेंट न्यूज़प्रिंट की ही लागत आ जाती है. आइटी सेक्टर में बहुत से आदर्शवादी बच्चे हैं, नौजवान हैं, जो इसको सेटअप करने में आपकी मदद करेंगे.
दूसरा, सुरक्षा के लिए पत्रकारों का एक नेटवर्क. उसको सपोर्ट कर के संगठन बनाओ. यूनियन को रिवाइव करो. अगर कुछ होगा, जैसा पवन जायसवाल के साथ हुआ, तो देश के हर पत्रकार को 24 घंटे में उसका पता चलना चाहिए. वहां प्रोफेसर विजय प्रसाद के साथ मिलकर मैं भी सोच रहा हूं कि पत्रकार सुरक्षा पर एक साइट बनायी जाए, नेटवर्क खड़ा किया जाए. इसमें समाधान तो नहीं होगा, लेकिन उसकी तरफ हम पहला कदम जरूर उठा सकते हैं. इतना ही मैं आपसे कहना चाहता था.
मेरे लिए ग्रामीण पत्रकार बहुत अहम हैं. इसीलिए मैं एडिटरशिप छोड़ कर ग्रामीण पत्रकारिता में आया. अभी यह काम करते मुझे पूरा 26 साल हुआ. कल मैं रीयूनियन कर रहाहूं यूएनआइ दिल्ली में. एक आखिरी कहानी बताकर खत्म करूंगा, कि कैसे एक छोटे से कस्बे के एक पत्रकार ने मुझको इनवेस्टिगेशन का एक सबक सिखाया.
उस वक्त मैं यूएनआइ ज्वाइन नहीं किया था. बागपत में एक रेप केस हुआ था… बहुत फेमस. पीटीआइ में स्टोरी आयी. छोटी सी स्टोरी. हमारा यूएनआइ का एडिटर आ कर रोया आफिस में, कि पीटीआइ की स्टोरी आ गयी, लेकिन हमको नहीं मिली, क्या करें. हमने बागपत, मेरठ के एक स्ट्रिंगर को फोन किया. उसने कहा कि चिंता मत करिए साहब, मैं दस मिनट में स्टोरी दिलवा देता हूं. और दस मिनट में स्टोरी आ गयी. इधर दिल्ली आफिस में सब सोच रहे थे कि स्टोरी जेनुइन है या नहीं. कोई भी इंसान दस पंद्रह मिनट में इतनी बड़ी स्टोरी नहीं ला सकता है. हमने उसे कैरी किया. स्टोरी सही थी. उसके बाद मैंने बीस साल तक उसको परेशान किया पूछ कर, यार बड़े भाई, आप मुझको बताओ, कैसा मिली ये स्टोरी दस मिनट में. बीस साल के बाद एक दिन हलके मूड में उसने मुझे बताया कि उनका एक दोस्त था जिसका छोटा सा आफिस थाने के उस पार पहली मंजिल पर था. इसने यहां से एसएचओ को फोन कर के कहा− “आपका एक मिनट जान बचा है, मैं डीआइजी वेस्टर्न रेंज बात कर रहा हूं, एक मिनट के अंदर बताओ क्या क्या हुआ है.” उसने सब सही सही बता दिया.
बीस साल के बाद उसने ये सब मुझे बताया. मैंने उससे पूछा बीस साल तक मुझे ये क्यों नहीं बताया. उसने कहा- यार ये मेरठ है, बागपत है. अगर मेरा नाम पता लग गया होता तो एक और रेप केस हो जाता.
(बनारस के पराड़कर स्मृति सभागार में 29 नवंबर, 2019 को “पत्रकारों पर हमले के विरुद्ध समिति” CAAJ द्वारा आयोजित कार्यक्रम में दिया गया व्याख्यान)