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अल्लाह जाने क्या होगा आगे !

कनक तिवारी
छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट में जाति आरक्षण आधारित मामले की सांप छछूंदर की गति है. विधानसभा में अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछडे़ वर्गों के आरक्षण का संशोधन विधेयक पारित कर उसे मंजूरी के लिए सरकार ने राज्यपाल को भेजा है.

राज्यपाल ने कोई फैसला नहीं किया. इसलिए सरकार और एक निजी पक्षकार ने हाई कोर्ट में याचिका दायर की है कि राज्यपाल को संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत कार्यवाही कर लेनी चाहिए थी.

जो कहता हैः ‘‘जब कोई विधेयक राज्य की विधानसभा द्वारा पारित कर दिया गया है. तब वह राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा और राज्यपाल घोषित करेगा कि वह विधेयक पर अनुमति देता है. या अनुमति रोक लेता है. अथवा वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखता है.‘‘

सरकार और याचिकाकार की याचिका में तर्क है कि राज्यपाल के पास चौथा विकल्प नहीं है. हाई कोर्ट ने नोटिस जारी किया है लेकिन राज्यपाल के सचिव को कि अपना जवाब पेश करें. याचिका में सभी आरोप राज्यपाल पर लगाए गए हैं, राज्यपाल के सचिव पर नहीं.

जानकारी है कि राज्यपाल के सचिव की ओर से हाई कोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई है कि संविधान के अनुच्छेद 361 के अनुसार राज्यपाल अपने पद की शक्तियों के प्रयोग और कर्तव्यों के पालन के लिए या उन शक्तियों का प्रयोग और कर्तव्यों का पालन करते हुए अपने द्वारा किए गए या किए जाने के लिए तात्यर्पित किसी कार्य के लिए किसी न्यायालय को उत्तरदायी नहीं होगी.

संभवतः राज्यपाल की ओर से सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ (2005) में इस बिंदु पर भरोसा किया गया है. सवाल यही है कि राज्यपाल और राष्ट्रपति के खिलाफ मामला चल भी सकता है?

रामेश्वर प्रसाद के मुकदमे में संबंधित राज्य बिहार के राज्यपाल ने अनुच्छेद 356 के तहत राज्यपाल ने प्रतिवेदन दिया था कि यह ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमें उस राज्य का शासन इस संविधान के उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है, तो राष्ट्रपति उद्घोषणा द्वारा-उस राज्य की सरकार के सभी या कोई कृत्य और राज्यपाल में या राज्य के विधान-मंडल से भिन्न राज्य के किसी निकाय या प्राधिकारी में निहित या उसके द्वारा प्रयोक्तव्य सभी या कोई शक्तियां अपने हाथ में ले सकेगा.

जानकारी है कि हाई कोर्ट ने राजभवन की याचिका के कारण अपने खुद के आदेश पर फिलहाल रोक लगा दी है.

बिहार के राज्यपाल द्वारा बिहार विधानसभा भंग करने की सिफारिश राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यूनाइटेड के झगड़े से उत्पन्न असंमजस की स्थिति और विधायकों की खरीद बिक्री होने की संभावनाओं के मद्देनजर की गई थी. उसे केन्द्रीय मंत्रि परिषद् की सलाह पर राष्ट्रपति ने मंजूर कर विधानसभा को भंग कर दिया था.

सुप्रीम कोर्ट ने पाया था कि राष्ट्रपति का विधानसभा को भंग करने का आदेश असंवैधानिक है.

छत्तीसगढ़ में अभी तो कोई अन्तिम या परिणाममूलक आदेश राज्यपाल ने दिया ही नहीं है. शायद कहा है कि अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल को कब किसी एक विकल्प का सहारा लेना चाहिए. उस संबंध में समय सीमा निर्धारित नहीं है. हालांकि यदि राज्यपाल को विधेयक हस्ताक्षर के लिए स्वीकार नहीं करना है तो वह उसे सरकार या विधानसभा को यथाशीघ्र अर्थात् जल्दी लौटा सकेगा.

राज्यपाल ने विधेयक को छत्तीसगढ़ सरकार को लौटा दिया होता तो विधेयक दुबारा पारित होने के बाद राज्यपाल को उस पर हस्ताक्षर करना अनुच्छेद 200 के परंतुक के तहत लाजिमी हो जाता. हाई कोर्ट के सामने अब नया सवाल है कि अनुच्छेद 200 के तहत संवैधानिक आचरण करने के लिए क्या राज्यपाल को निर्देश दिया भी जा सकता है. उसकी संविधान की भाषा में कोई मजबूरी नहीं दिखती.

ऐसा सवाल शायद देश की संविधान न्यायपालिका में पहली बार उठा है. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के क्षेत्राधिकार बहुत व्यापक और लचीले हैं लेकिन संविधान की इबारत में शाब्दिक या व्याख्या के लिए तोड़मरोड़ करने की गुंजाइश बिल्कुल नहीं है.

रामेश्वर प्रसाद के प्रकरण में संविधान पीठ ने माना था कि अनुच्छेद 361 के तहत राज्यपाल को अदालती कार्यवाही में बुला लेने कोई नोटिस नहीं दिया जा सकता और नोटिस दिया भी नहीं. अलबता कहा कि राज्यपाल खुद या कोई अन्य पक्ष उनकी तरफ से स्वेच्छा से हलफनामा दे सकता है.

कोर्ट ने कहा कि प्रतिबंध के बावजूद सुप्रीम कोर्ट का अधिकार है कि राज्यपाल के आदेश या कृत्य में कोई दुर्भावना या कानूनरहितता दिखाई पड़े तो न्यायिक क्षेत्राधिकार के तहत ऐसी विवादमयता का सम्यक परीक्षण कर उसे चुस्त दुरुस्त कर सकेगा. बिहार में भी राज्यपाल या राष्ट्रपति के विवेक और अधिकारों से संतुष्ट होने से केन्द्र सरकार से कहा कि वह सुप्रीम कोर्ट को संतुष्ट करे कि कोई संवैधानिक चूक नहीं हुई है. अन्यथा सुप्रीम कोर्ट मुनासिब आदेश कर सकेगा. केन्द्र सरकार ने कोशिश की लेकिन सुप्रीम कोर्ट सहमत नहीं हुआ.

छत्तीसगढ़ के मामले में केन्द्र सरकार को पक्षकार बनाया गया है. तब केन्द्र को पूरी अधिकारिता के साथ पैरवी का हक मिल गया है. राज्यपाल को पक्षकार ही नहीं बनाया जा सकता, तो निर्देश कैसे दिए जा सकते हैं. राज्यपाल के मन में क्या है? केन्द्र सरकार और राज्यपाल के बीच क्या कोई संवाद है?

छत्तीसगढ़ सरकार ने जो जवाब राज्यपाल को भेजा और राज्यपाल ने जो सवाल पूछे थे. इन सबकी उपादेयता, प्रासंगिकता और वांछनीयता की जांच करने का काम हाई कोर्ट को अनुच्छेद 361 के दायरे और सुप्रीम कोर्ट के अब तक दिए गए फैसलों के तहत रहकर ही करना हो सकता है.

मौजूदा प्रकरण में अनुच्छेद 200 के लचीले भाषायी चमत्कार से लाभ उठाते राज्यपाल ने आदेश किया ही नहीं है. अनुच्छेद के भाषायी विन्यास का श्रेय संविधान सभा को है. संविधान निर्माताओं की भाषायी प्रतिबंधात्मकता का विचारण हाई कोर्ट के स्तर पर होना दूर की कौड़ी है.

इसी अनुच्छेद में राज्यपाल द्वारा संवैधानिक कर्तव्यों को नहीं करने या अत्यधिक विलम्ब से करने की सहूलियत ले लेना भी तार्किक दृष्टि से कैसे माना जा सकता है? लगता है कि पूरे मसले का संवैधानिक निरूपण शायद छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट में नहीं, सुप्रीम कोर्ट में निपटेगा.

छत्तीसगढ़ सरकार और केन्द्र सरकार के बीच सियासती पिंगपांग में बेचारा मुकदमा ही कमजोर गेंद है. मामला राजनीति के गलियारों में फंसा है, लेकिन मुखौटा अदालती कार्यवाही का है.

पिटना तो सबसे ज्यादा आदिवासियों को है. उनका आरक्षण 32 प्रतिशत की आबादी के बावजूद 20 प्रतिशत हो गया है. शिकायत अनुसूचित जाति वर्ग और अन्य पिछड़े तथा अनारक्षित वर्ग को भी है. इन्हें पक्षकार बनाए बिना क्या मामला चल सकता है?

न्याय वह हवा है जिसे मुट्ठी में बंद कर पकड़ने की कोशिश की जा रही है. अदालती कार्यवाही की सरगनिसेनी पर चढ़ने से पता लगता है कि यह तो धुएं का बगूला है जो और कहीं आग लगने के कारण अदालत में उठ रहा है.

पीड़ित पक्ष को समझ नहीं आता है कि ‘आग लगाए जमालो दूर खड़ी‘ वाली जमालो क्यों नहीं दिखती कि उससे हिसाब पूछा जाए. छत्तीसगढ़ सरकार को ग़लतफहमी है कि राज्यपाल के लिए वकील उससे पूछकर ही लगाया जाएगा.

राज्यपाल को तो हाई कोर्ट जाना ही कहां है? अदालतों में मुकदमों का निपटारा तो हो सकता है. न्याय मिल जाता है क्या? सामने विधानसभा चुनाव आ रहा है. सर्जिकल स्ट्राइक कौन करेगा?

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