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यह तो होना ही था

अभिषेक श्रीवास्तव | फेसबुक: दिल्ली की राज्यसभा की सीटों के लिए चुने गए दो गुप्त व्यक्तियों को लेकर जो लोग बनियावाद का रोना रो रहे हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि गुप्ता तो आशुतोष भी हैं. इसलिए यह तर्क कहीं ठहरता नहीं है. आशुतोष को नहीं भेजने के दूसरे कारण हैं. कुमार विश्वास को नहीं भेजना था, यह पहले से तय था. संजय सिंह का फैसला राजनीतिक रूप से ठीक है क्योंकि वे एक समर्थ लायज़नर हैं और ठाकुर भी. यूपी में 2014 में टिकट बिक्री की तमाम घटनाएं उनकी ही देखरेख में हुई हैं, ऐसा कार्यकर्ता कहते हैं. राज्यसभा में जाकर वे ठीक ठाक भाषणबाज़ी कर पाएंगे और भविष्य में कभी आम आदमी पार्टी पर्याप्त सक्षम हुई, तो यूपी के मुख्यमंत्री पद के लायक वे निर्विरोध उम्मीदवार होंगे. वैसे, यह दूर की कौड़ी है.

मनीष सिसोदिया को राज्यसभा में अरविंद कभी दांव पर नहीं लगाते. मनीष उनके सक्षम सिपहसालार हैं. केजरीवाल जब भी गोली चलाएं, कंधा मनीष का ही होना मांगता. इसलिए उनका बाहर रहना ज़रूरी है. बाकी चेहरे अभी राज्यसभा की सांसदी के हिसाब से बुतरू हैं, चाहे खेतान हों या मालीवाल. ये सब पार्टी में कलर्क से ज्यादा की हैसियत नहीं रखते. अरविंद को वैसे भी दो-तीन लोगों को छोड़कर किसी पर भरोसा नहीं है.

बचे दोनों गुप्ता, तो इन्हें लेकर दुखी होने की ज़रूरत कतई नहीं है. अरविंद केजरीवाल राजनीतिक रूप से समझदार आदमी हैं. उनसे नैतिकता की उम्मीद समझदार लोगों ने उसी दिन छोड़ दी थी जब उन्होंने अरुणा रॉय का साथ छोड़ दिया था. दलगत संसदीय राजनीति में आने के बाद गुप्ता हो और शर्मा- सब धान बाईस पसेरी हो जाता है. अरविंद कुछ पैसा कमा ही लिए होंगे तो इसमें किसी को क्या दिक्कत है. अरविंद को भी बुद्धिजीवियों की धारणा से कोई लेना-देना नहीं है. उनकी निगाह में 2019 नहीं, 2024 है. जिन्होंने गुप्ता बंधुओं को रखवाया है, वे भी 2024 के ही इंतज़ार में हैं.

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