Columnist

राजनीति की दिशा

नंद कश्यप

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जब बुधवार को कंफेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री यानी सीआईआई के सालाना समारोह में बोल रहे थे तो उम्मीद थी कि खराब अर्थव्यवस्था का रोना रोने के बाद वे कम से कम इससे निपटने का भी कोई तरीका ज़रुर बताएंगे. लेकिन मनमोहन सिंह ने यह कह कर हमेशा की तरह मुद्दे को टाल दिया कि अर्थव्यवस्था में गिरावट अस्थाई है. इसे दूर करने के लिए सरकार प्रयास कर रही है और इसमें कामयाबी जरूर मिलेगी.

दुनिया भर में गहराते आर्थिक संकट की खबरें हर रोज मिलती रहती है. विशेषज्ञों की बहसें टीवी पर हैं. संसद सदस्य चिंता जता रहे हैं. लेकिन यह संकट क्यों सामने आया, आम जनता पर उसका कितना प्रभाव पड़ रहा है, उससे उबरने के लिये राजनीति की कौन-सी दिशा होनी चाहिये और इन सबमें वोट देने वाली जनता की कितनी हिस्सेदारी होगी, यह बहस गायब है.

वस्तुत पूंजीवादी विकास का मॉडल सिमटते रोजगार और बढ़ती जन अपेक्षाओं के द्वंद्वों के बीच मुनाफे को बनाये रखने की कवाय़द बन कर रह गया है. विकसित पूंजीवादी देश अपने ही जाल में फंसते जा रहे हैं. उनके उपभोक्तावादी लालच ने सोवियत यूनियन को तोड़ने में योगदान जरूर दिया परंतु सामाजिक विकल्पहीनता ने उन्हे मंदी के चपेट में ले लिया है. एक ओर भव्यता तो दूसरी ओर कचरों का ढेर विकास के इस मॉडल की उपलब्धि रही है, जहां करोड़ों पेट भूखे रहने को बाध्य किये जाते हैं.

मनुष्य की बराबरी और सम्मान से जीने के अधिकार की बात करना विकास विरोधी हो गया है. परंतु अपनी मनुष्यता को बचाये रखने के लिये पश्चिम की जनता लगातार सड़कों पर है. वह एक प्रतिशत द्वारा 99 प्रतिशत के शोषण के खिलाफ नारे लेकर उठ खड़ी हुई है.

एक के बाद एक यूरोपीय देश गहन आर्थिक संकट में फंसते जा रहे हैं और उन्हे संकट से निकालने जो फार्मूला लाया जा रहा है, वह जनता से उनके अधिकार, उसकी सुविधाएं छीनने के लिये है. इसी संकटग्रस्त मॉडल की भारत में नयी उदारवादी नीति के रूप में नकल भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी अस्त-व्यस्त करने की ओर बढ़ रहा है. सरकारों की नीतियां जिस तरह की हैं, उससे ऐसा लगने लगा है कि देश आज भी गुलाम है.

आजादी के बाद हमने जो संविधान चुना वह प्रतिनिधि लोकतंत्र का है. हमारे प्रतिनिधि लोकतंत्र को स्वीकार करने के कारण ही आज तमाम विपरीत परिस्थतियों के बावजूद यहां पर वैसी राजनैतिक सामाजिक अस्थिरता पैदा नही हुई जैसी एशिया के अन्य देशों में देखने को मिलती है. प्रतिनिधि लोकतंत्र होने से क्षेत्रीय आकांक्षाओं को केन्द्र की सत्ता में भागीदारी का मौका मिला और राज्यों में वो मजबूती से उभर कर सामने आयी. इससे सामाजिक न्याय की अवधारणाओं को बल मिला और लोकतंत्र मजबूत हुआ.

परंतु एक बार फिर ठीक 80 के दौर की तरह जब अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से 5.2 अरब डालर सशर्त ऋण लिया गया था, जिसमें केन्द्र सरकार की नौकरियों में कटौती और राज्य स्तर पर नयी भर्ती पर प्रतिबंध जैसी बातें थी; के खिलाफ ऐतिहासिक भारत बंद हुआ था और 75 के आपातकाल के बाद पूरे देश में बड़ी राजनैतिक गिरफ्तारियां हुई थी. दूसरी ओर सत्ताधारी पार्टी को भी गंभीर चुनौती मिल रही थी. उसी समय राजनैतिक अस्थिरता का भय पैदा कर अमरीका जैसी राष्ट्रपति प्रणाली अपनाने एक अभियान तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता बसंत साठे द्वारा शुरु किया गया था. चूंकि उस समय इलेक्ट्रानिक मीडिया आज के स्वरूप में मौजूद नही था. बावजूद इसके उस समय के कार्पोरेट मीडिया ने इसे खूब उछाला था.

अब जरा आज की हालत देखें. 2011 से फरवरी 2013 तक देश में अन्ना के आंदोलन सहित कम से कम 40 करोड़ लोग सरकार के खिलाफ, उसकी नीतियों के खिलाफ सड़कों पर उतरे. अकेले 20-21 फरवरी 2013 की हड़ताल में देश के 10 करोड़ से उपर संगठित, असंगठित क्षेत्र के मज़दूर, खुदरा व्यापारी, नौजवान, किसान इसमें शामिल हुए. क्या थी उनके मांग? उदारवादी साम्रज्यवाद उन्मुख आर्थिक नीतियो को बदलो, उससे पैदा हो रहे भ्रष्टाचार पर रोक लगाओ.

जाहिर है, इन्हीं नीतियों के चलते 66 खरबपति भारतीय देश के कुल घरेलू उत्पाद का 20 प्रतिशत पर काबिज़ हैं. वहीं 50 प्रतिशत से अधिक आबादी न्यूनतम मजदूरी, शिक्षा, स्वास्थ्य से वंचित है. समाज का एक बड़ा हिस्सा 20 रु प्रतिदिन में अपना गुजर बसर कर रहा है. ऐसी असमानता के कारणों पर, सरकार और उसकी नीतियों, अन्य राजनैतिक दलों की क्या नीति हो, इन सब पर चर्चा की जगह, कार्पोरेट मीडिया ने पुन: देश का प्रधानमंत्री कौन होगा, इस पर व्यक्तिगत बहस छेड़ दिया है.

वस्तुत: राहुल बनाम मोदी बहस उस कार्पोरेट मीडिया की उपज है, जो दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहता है. उसे देश का प्रतिनिधि लोकतंत्र रास नही आ रहा है. अब उन्हें एक ऐसा प्रधानमंत्री चाहिये, जो संविधान की परवाह न करे, अपने को पार्टी से ऊपर समझे और कार्पोरेट लाभ के लिये जनता का दमन करने से न हिचके, सार्वजनिक संपंति को धड़ाधड़ बेच दे. उनके लिये मोदी सबसे फिट उम्मीदवार दिखते हैं.

2002 के बाद पार्टी और आर एस एस के विरोध के बाद भी लगातार मुख्यमंत्री बने रहना, पार्टी की बैठको में न जाना, भाजपा अध्यक्ष को ही हटवा देना और गुजरात में किसानों की परवाह किये बिना भू अधिग्रहण करना उनकी योग्यता साबित हुई है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले को ठेंगा दिखाने के लिये लोकायुक्त को लेकर विधानसभा में उन्होंने जो कुछ किया, वह उनकी मंशा को बताने के लिये पर्याप्त है.

मोदी के इन्हीं गुणों के कारण अमरीका, ब्रिटेन जैसे साम्राज्यवादी देश मोदी पर दांव लगा रहे हैं. मोदी के जनसंपर्क अधिकारी के तौर पर देश के प्रमुख उद्योगपति टाटा हैं, जो आज ब्रिटेन में निजी क्षेत्र में सर्वाधिक रोजगार देने वाले अकेले उद्योगपति हैं. टाटा ने सबसे पहले मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की बात कही थी. यह भी देखने की बात है कि टाटा के फंड से संचालित जनांदोलनों ने सबसे ज्यादा हमला जन प्रतिनिधियों पर किया, संसद पर किया. यह सच है कि एक तिहाई सांसद करोड़पति हैं, भ्रष्ट हैं परंतु इसी कारण हमारे प्रतिनिधि लोकतंत्र को नकार नहीं दिया जा सकता.

मजेदार बात यह है कि इस पूरी बहस से देश की सत्ताधारी कांग्रेसनीत सरकार खुश है. क्योंकि उसके साम्राज्वाद परस्त नवउदारवादी नीतियों को ही बल मिल रहा है. बल्कि उन नीतियों को और कठोरता से लागू करने और लोक कल्याणकारी योजनाओं को फिलहाल स्थगित करने का माहौल बना है.

देश में करोड़ो किसान भू अधिग्रहण के खिलाफ लगातार लड़ रहे हैं. न जाने कब से भू अधिग्रहण कानून का मसौदा बना पड़ा है परंतु उद्योगपतियों, साम्राजवादियों, रियल स्टेट के दलालों के दबाव में वह संसद में नही आ पा रहा है. यही हाल खाद्य सुरक्षा कानून का है. दूसरी ओर सार्वजनिक क्षेत्र के शेयर बेचे जा रहे हैं. नरेंद्र मोदी का यह बयान कि रेल्वे का आंशिक निजीकरण करेगें, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का स्वागत करेंगे, कांग्रेस को मजबूत कर गया और एनडीए में फूट पैदा कर गया.

आज सबसे ज्यादा फंसी हुई पार्टी भाजपा हो गई है. मोदी के सवाल पर वहां आंतरिक संघर्ष जारी है. वहीं नीतिश कुमार उससे दूर हो रहे हैं. सवाल है कि क्या भाजपा में योग्य उम्मीदवारों का अभाव है, जो एनडीए को नेतृत्व दे सके?

छतीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने पिछले 10 वर्षों से मुख्य विपक्षी पार्टी से संतुलन बनाये रखा है और इसी कारण तीसरी बार सत्ता का आस लगाये हुये हैं. यहां तक कि उनके बारे में कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री पद के दावेदार हो सकते हैं. वैसे भी इस देश में छत्तीसगढ़ ऐसा राज्य है, जिसने मनमोहन-मोंटेक-चिदंबरम की प्रत्येक नीतियों को अत्यंत सफलतापूर्वक लागू किया है.

भाजपा की सरकार ने अपने प्रदेश के गरीबों को गरीब रखते हुए उनके महज पेट भरने का इंतजाम किया और बड़े लोगों के लिये, दिल्ली वालों के लिये बिज़ली,पानी, कोयला, लोहा का इंतजाम किया. वो उन्हीं की इच्छानुरूप प्रदेश के सबसे सिंचित जिले जांजगीर-चांपा से सिंचाई के पानी को छीन कर उसे राख का रेगिस्तान बनाना चाह रहे हैं.

लेकिन लाख टके की बात तो यही है कि राजनीतिक बहसों से इतर जनता के असली मुद्दों पर बहस करेगा कौन ? ये समय जनता के सवालों पर बहस का समय है. उन्हें पूरा करने की शुरुवात हो तभी हमारा प्रतिनिधि लोकतंत्र बच सकेगा. आज देश में विचारों की राजनीति की उम्मीद कम है, फिर भी यदि वह पहलकदमी करे तो शायद गैर कांग्रेस-गैर भाजपा ताकतें एक बार फिर मजबूती से उभर सकती हैं. ऐसी कोई भी कोशिश किसी भी पार्टी को कार्पोरेट गुलामी से रोक सकेगी और देश के प्रतिनिधि लोकतंत्र को और मजबूत कर सकेगी.

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