पेरॉल आंकड़ों के मायने
मोदी सरकार रोजगार के उन आंकड़ों को प्रोत्साहित कर रही है, जिनका परीक्षण नहीं हुआ और यह गलत है. मौजूदा सरकार अपने हितों को साधने के लिए औपचारिक क्षेत्र के रोजगार के उन आंकड़ों को प्रोत्साहित कर रही है जिनका परीक्षण नहीं हुआ और जो पहले के मानकों के उलट है. 25 अप्रैल, 2018 को कर्मचारी भविष्य निधि संगठन यानी ईपीएफओ, ईएसआईसी और पीएफआरडीए ने पेरॉल के आधार पर रोजगार के आंकड़े जारी किए. ये आंकड़े कर्नाटक चुनाव के एक पखवाड़ा पहले जारी किए गए. ऐसे ही बजट के पहले भी मध्य जनवरी में आंकड़े जारी किए गए थे. इस अध्ययन के लिए ईपीएफओ, ईएसआईसी और राष्ट्रीय पेंशन योजना के प्रशासनिक आंकड़े लिए गए थे. प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ने इन आंकड़ों के आधार पर दावा किया कि 2017-18 में 70 लाख नए रोजगार पैदा हुए.
जनवरी के आंकड़ों के बाद जो कहा गया था, उसे याद दिलाना जरूरी हैः ये अनुमान सिर्फ ये बताते हैं कि श्रमिक सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का कितना लाभ ले रहे हैं. इनमें कुछ ऐच्छिक हैं जैसे ईएसआईसी. वहीं ईपीएफओ अनिवार्य है. केंद्र सरकार के कर्मचारियों के लिए एनपीएस अनिवार्य है. लेकिन राज्य सरकारों और निजी क्षेत्रों के कर्मचारियों के लिए यह ऐच्छिक है. ईपीएफओ भी उन्हीं संगठनों के कर्मचारियों के लिए अनिवार्य है जो कुछ शर्तों को पूरा करती हों.
सितंबर, 2017 से फरवरी, 2018 के बीच 32.7 लाख ईपीएफओ खाते खुले वहीं 4.2 लाख लोग एनपीएस में शामिल हुए. इनमें से 25 साल से कम उम्र वालों के ईपीएफओ खातों की संख्या 20.5 लाख और ऐसे एनपीएस वालों की संख्या 84,659 रही. ईएसआईसी खातों की संख्या सितंबर, 2017 के 2.9 करोड़ से घटकर फरवरी, 2018 में 2.7 करोड़ रह गई.
ईएसआईसी के आंकड़ों के आधार पर कोई विश्लेषण करना ठीक नहीं है क्योंकि इसमें काफी बदलाव होते रहते हैं. यहां तक की ईपीएफओ के आंकड़ों में भी यह फर्क कर पाना आसान नहीं है कि कितने खाते नए रोजगार पाने वालों के हैं और कितने नए खातों रोजगारों के औपचारिक होने की वजह से खुले हैं. अगर ईपीएफओ और एनपीएस के आंकड़ों को सही मान भी लिया जाए तो कुल नए रोजगारों की संख्या छह महीने में 21 लाख ही होती है और एक साल में 42 लाख. यह 70 लाख के दावे से काफी कम है.
देश में कुल श्रमिकों की संख्या में औपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों की संख्या 10 फीसदी से भी कम है. इस आधार पर कहा जा सकता है कि 90 फीसदी श्रमिक बाजार में रोजगार की स्थिति जस की तस रही. हालांकि, वास्तविक आंकड़ों के आधार इनमें से किसी अनुमान को सही नहीं कहा जा सकता. नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के 2004-05 से 2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक सिर्फ कृषि क्षेत्र में हर साल 50 लाख रोजगार कम हुए. यह पेरॉल के जरिए रोजगार सृजन के आंकड़ों से काफी अधिक है. श्रम ब्यूरो के हालिया सर्वेक्षणों के मुताबिक नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में कृषि क्षेत्र में रोजगार और कम हुए हैं. नोटबंदी और जल्दबाजी में लागू किए गए जीएसटी से स्थितियां और खराब हुई हैं.
असल काम यह होना चाहिए कि नियमित तौर पर घरों का सर्वेक्षण हो. 2004 से 2011 के बीच एनएसएसओ ने रोजगार संबंधित छह वार्षिक सर्वे किए थे. इनमें से चार बड़े सैंपल सर्वे थे. 60वें चक्र के सर्वेक्षण में सालाना रोजगार के आंकड़े मिल रहे थे. लेकिन ऐसे सर्वेक्षण को 2011-12 से बंद कर दिया गया.
ऐसे ही श्रम ब्यूरो के घरेलू सर्वेक्षण को भी बंद कर दिया गया. दूसरे कई सर्वेक्षण में यह बात आई है कि पिछले तीन साल में पहले के सरकार के कार्यकाल के मुकाबले कम रोजगार पैदा हुए हैं. एनएसएसओ ने पहले शहरी और बाद में ग्रामीण क्षेत्र के लिए तिमाही सर्वेक्षण की शुरुआत की है लेकिन इसके आंकड़े 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले उपलब्ध होने की संभावना नहीं है.
पेरॉल आंकड़ों के आधार पर चले रहे विमर्श को व्यापक तौर पर देखना होगा. पिछले एक दशक में सात फीसदी की अधिक विकास दर के बावजूद अर्थव्यवस्था में अपेक्षित रोजगार नहीं पैदा हो रहे हैं. गांवों और शहरों के अधिकांश नौजवान बेरोजगार हैं और सड़कों पर उतर रहे हैं. इनमें कृषक समुदाय से आने वाले जाट, मराठा और पटेल शामिल हैं. इन युवाओं के लिए सच्चाई सरकारी दावों से उलट है. आंकड़ों की बाजीगरी से कम समय के लिए चुनावी मुद्दा तो मिल जाता है लेकिन रोजगार सृजन के लिए बेहतर नीतियों के निर्धारण में इससे कोई मदद नहीं मिलती.
1966 से प्रकाशित इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक का संपादकीय