फिर भटक गए पवन दीवान
दिवाकर मुक्तिबोध
संत कवि पवन दीवान राजनीति के ऐसे खिलाड़ी हैं, जो अपनी ही गोल पोस्ट में गोल करते हैं. अपने राजनीतिक जीवन में उन्होंने ऐसे कई गोल किए हैं, जिसका उन्हें तात्कालिक लाभ भले ही मिला हो पर दीर्घकालीन लाभ से वे वंचित रहे हैं. वे कांग्रेस और भाजपा के मैदान में खेलते रहे हैं. कभी कांग्रेस की ओर से तो कभी भाजपा की तरफ से. अब वे भाजपा टीम के खिलाड़ी बन गए हैं, इस उम्मीद के साथ कि उन्हें राजिम से विधानसभा की टिकिट मिल जाएगी. लेकिन क्या उन्हें टिकिट मिल पाएगी?
यह पवन दीवान की राजनीतिक छटपटाहट ही है, जो उन्हें कहीं टिकने नहीं देती. जब मन ऊबने लगता है तो वे पाला बदल लेते हैं. वे कांग्रेस में घुटन महसूस करने लगे थे, उपेक्षा के दंश से छटपटा रहे थे लिहाजा उन्होंने पार्टी से कूच करना बेहतर समझा. किंतु वे इतनी बार दलबदल कर चुके हैं कि उसकी अहमियत खत्म हो गई है.
अब हालत यह है कि वे राजनीतिक नेताओं की उस जमात में शामिल हो गए हैं, जिनकी गतिविधियों को कोई गंभीरता से नहीं लेता. इसलिए हाल ही में जब उन्होंने कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जाने का ऐलान किया, तो वह चौंकानेवाली घटना नहीं बनी. कांग्रेस या भाजपा दोनों के राजनीतिक गलियारों में कोई हलचल नहीं मची और बात आई-गई हो गई. एक राजनयिक के लिए यह बड़ी दु:खद स्थिति है. खासकर ऐसे नेता के लिए जो बेहद संवेदनशील होने के साथ जनकवि भी हैं और भागवताचार्य भी.
पवन दीवान क्या चाहते हैं? सवाल स्वाभाविक है क्योंकि एक राजनीतिक व्यक्ति के रूप में उन्होंने अच्छा खासा सम्मान हासिल किया है. वे विधायक रहे, सांसद भी, अविभाजित मध्यप्रदेश में जेल मंत्री का भी पद उन्होंने संभाला. सन् 2000 में छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बनने के बाद सियासतदारों के बीच उनकी कद्र कम नहीं हुई.
भाजपा शासन में वे छत्तीसगढ़ गौसेवा आयोग के अध्यक्ष बनाए गए जो मंत्री स्तर का पद था. यानी वे कांग्रेस में रहे हों या भाजपा में, संगठन में अथवा संगठन के बाहर उन्हें सम्मान के साथ-साथ वक्त-वक्त पर सम्मानजनक पद भी मिलता रहा है. इस आधार पर कहा जा सकता है कि एक व्यक्ति एवं नेता के रूप में उनकी उपलब्धियां गौरवपूर्ण रही हैं.
फिर क्या कारण हैं कि उन्हें राजनीति से तो वितृष्णा नहीं होती पर राजनीतिक पार्टी से उनका मन भर जाता है. ऐसी छटपटाहट क्यों? क्या वे चाहते हैं कि राजनीति में उनकी वक़त बनी रहनी चाहिए, उपेक्षा नहीं होनी चाहिए, पूछ-परख घटनी नहीं चाहिए? क्या हमेशा यह संभव है? क्या राजनीति में छोटी-मोटी भूलें भी व्यक्ति को हाशिए पर नहीं डाल देती?
मिसाल के तौर पर स्वर्गीय विद्याचरण शुक्ल को याद करें. एक जमाने में उनकी तूती बोलती थी. इंदिरा गांधी सरकार के वे दबंग और तेजतर्रार मंत्री माने जाते थे. अविभाजित म.प्र. में राज्य विधानसभा चुनाव की टिकिटें वे फायनल करते थे. वे राष्ट्रीय नेता थे लेकिन एक बड़ी राजनीतिक भूल से वे कैसे हाशिए पर चले गए? कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जाने की गलती उन्हें भारी पड़ी. यद्यपि वे कांग्रेस में लौट आए पर शीर्ष पीछे छूट गया. शुक्ल ही नहीं राजनीति में सूर्यास्त होने के और भी उदाहरण हैं.
जाहिर है राजनीति में धूप-छांव बहुत स्वाभाविक है. लिहाजा पवन दीवान को यह मान लेना चाहिए कि उनका श्रेष्ठ समय बीत चुका है और वर्तमान में जो कुछ है, उससे संतोष करने की जरूरत है. वे यह सोचकर मन को तसल्ली दे सकते हैं कि उन्होंने राजनीति में भी बहुत कुछ पाया. वे यह याद करके भी संतोष का अनुभव कर सकते हैं कि सन् 1977 की जनता लहर में उन्हें छत्तीसगढ़ के गांधी की उपमा दी गई थी. उनके बारे में यह नारा बहुत प्रसिद्घ हुआ था- ”पवन नहीं, आंधी है, छत्तीसगढ़ का गांधी है.
दरअसल पवन दीवान बहुत भावुक किस्म के राजनेता हैं. फक्कड़ हैं. धर्म-संस्कृति के गहरे अध्येता हैं. भागवत पर बहुत अच्छे प्रवचनकर्ता भी. पूरे छत्तीसगढ़ में उनका मान है. संवेदनशील इतने कि हर छोटी बात दिल को छू जाती है. वे राज्य के यशस्वी कवि भी हैं. हिन्दी और छत्तीसगढ़ी में उनकी कविताओं ने अच्छी प्रसिद्घि पाई है. ऐसा व्यक्ति मौजूदा राजनीति के रंग-ढंग में कैसे रच-बच सकता है? बस यही तकलीफ है. इसीलिए थोड़ी सी भी उपेक्षा सहन नहीं होती.
जीरम घाटी शहीदों की श्रद्घांजलि सभा में उन्हें नहीं बुलाया गया, मन आहत हो गया. कांग्रेस में ऐसी उपेक्षा उन्हें सहन नहीं हुई. इसलिए वे भाजपा में शामिल हो गए. शामिल होने के पूर्व उन्होंने भी दल-बदल पर मान्य नीति का निर्वाह किया और मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह की शान में कसीदे काढ़े. उन्हें विकास पुरुष बताया. एकाएक भाजपा में उन्हें सबकुछ अच्छा-अच्छा दिखने लगा और कांग्रेस में बुरा. दलबदल करने वाले सामान्य नेता में और उनमें कोई फर्क नहीं रहा. ऐसे में कौन उन्हें गंभीरता से लेता? किसी ने नहीं लिया, न नेताओं ने, न जनता ने.
दरअसल पकी उम्र के पवन दीवान को अब अपनी राजनीतिक इच्छाओं को तिलांजलि दे देनी चाहिए. बेहतर तो यही है कि वे अपने भीतर के कलाकार को ज्यादा अहमियत दें और राजनीति को अलविदा कहें. राजनीतिज्ञ से कहीं ज्यादा उनकी कीर्ति कवि, लेखक एवं प्रवचनकर्ता के रूप में है. क्या उन्हें इसका अहसास नहीं है? उम्मीद है, वे खुद को पहचानने की कोशिश करेंगे.
* लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.