चित्रकला और विचार, संदर्भ: मार्क रोथको
कुमार अंबुज | फेसबुक
यदि आप कभी ख़ाली कैनवस या ख़ाली काग़ज़ के सामने घंटों उजबक की तरह नहीं बैठे हैं या एक वाद्ययंत्र के सामने अचानक निहत्थे नहीं हो गए हैं और सोचते हैं कि आप लेखक, चित्रकार या संगीतकार हैं तो फिर आपसे कला के बारे में, कलाकार की तरह बात करने का कोई मतलब नहीं है. तब विनम्रता में दृढ़ता का समावेश करते हुए आगाह यह करना है कि अपना समय और ऊर्जा यहाँ लिखे इन शब्दों में नष्ट न करें.
क्या आप कला संबंधी सामाजिक प्रश्नों को लेकर कभी चिंतित हुए हैं और सोचा है कि कला संसार को कैसे बदल सकती है. यह समझते हुए कि कला उस तरह संसार नहीं बदल सकती है जैसे राजनीति या तकनीक या विज्ञान और इसलिए कला की लौकिक ताकत पर संदेहग्रस्त हैं तब भी आप यहाँ अपना वक़्त ख़राब ही करेंगे.
यह लिखते हुए मैं 1930 से 1970 के बीच सक्रिय अमेरिकी चित्रकार मार्क रोथको की कला, उनके जीवन की याद दिला सकता हूँ. जो अपनी एक उम्र में कैनवस पर दो रंग ठीक तरह लगाने के पहले दो दशक तक प्रतीक्षा करते हैं. यह दो दशक दरअसल ‘कला में विचार’ की प्रतीक्षा है. कि बिना विचार के आप ऐब्सट्रैक्ट भी नहीं बना सकते.
विचार और दृष्टि ही आपको रंग लगाने की, स्ट्रोक्स और संतुलन की समझ देती है, कला माध्यम में प्रवेश की राह बताती है. कि नरसंहारों, युद्धों और बम विस्फोटों के बाद आप मनुष्य जीवन के चित्र, उनके घायल, विकलांग या उजड़ जाने के रूपाकार में ही बना सकते हैं.
फ़ासिज्म की, संकीर्ण अमानवीय दुनिया में फूल-पत्ती, आरामदेह न्यूड, लुभावन प्रकृति, ज्यामितीय, सूक्ष्म नक्काशी और निष्क्रिय जीवन के विलासिता और तमाम चाशनियों में लिथड़े चित्र निरर्थक हो जाते हैं.
दुनिया बदलती है तो चित्रों को भी बदलना होता है. मानवीय विचार के लिए चित्रकार को भी साहित्य के पास जाना पड़ता है. अपनी माइथोलॉजी, दुखांतिकाओं और जीवन दर्शन की तरफ़ मुँह करना पड़ता है जैसे अन्य कलानुशासनों को इस तरफ़ आना पड़ता है. निकष यह भी कि कलाकार के जीवन में ‘सेंस ऑव ट्रै़ज़कि’ नहीं है तो फिर उसके पास कुछ नहीं है.
इस आवाजाही के बिना आप ऐसे कलाकार हैं जो विकसित नहीं हुआ. यह कोई विचित्र बात नहीं है कि एक बेहतर चित्रकार में से वाचनालयों, संग्रहालयों और संगीत सभागारों की गंध उठती है जैसे किसी अच्छे लेखक में रंग और कैनवस की गंध भाप की तरह उठती दिख सकती है.
इसके बिना आप योग्य वकील, ब्रोकर, अधिकारी, लिपिक, यंत्री, संपादक, व्यवसायी, डॉक्टर, अध्यापक, प्रबंधक आदि इत्यादि हो सकते हैं, आप इतनी चतुर भेड़ें भी हो सकते हैं जो बाज़ारवाद और पूँजीवाद में अपना ऊन खुद बेचना सीख गईं है. लेकिन कलाकार शायद नहीं हो सकते. कलाकार, लेखक, संगीतकार होने की प्रतीति दे सकते हैं.
मार्क रोथको के कला संसार से गुज़रते हुए अंदाजा लग जाएगा कि उल्लेखनीय ऐब्सट्रैक्ट (आकृति रहित या आकृतियों का) रंग भरा ऐसा समुच्चय है जो जीवन से निसृत है. विचार से संचरित है. वहाँ गहराई और चकाचौंध का फ़र्क करना सीखना होगा वरना आप कला के पास जाने के हक़दार नही हो सकेंगे. यह विचार है जो कला में दृश्य को बदल देता है. वह आपके रंगों को, पैटर्न को, विषय वस्तु को तय कर देता है.
इस तरह प्रत्येक पेंटिंग अपना विषय चुनती है, कथ्य बनाती है और अपनी लय. उसका माध्यम रंग हैं. और विचारहीन नहीं हैं. जो विचारहीन हैं वे चित्र नहीं हैं.
रोजमर्रा की मेट्रो, रेलयात्राओं और सब-वे शृंखला के चित्र इसके पहले साक्ष्य हैं. और उसके बाद एक या दो रंग के एकाधिकार की वे शृंखलाएँ जो कहती हैं कि प्रेम की शक्ति मृत्यु की शक्ति से कहीं अधिक है. हर संस्कृति में ऐसी पुराण कथाएँ उपलब्ध हैं.
अपनी सभ्यता और परंपरा में ‘कला की सभ्यता और परंपरा’ के योग से कलाकार यह नया संदर्भ और समकालीन मानवीय परिप्रेक्ष्य निर्मित करते हैं. प्रेक्षक को इतना अद्यतन हो सकने की जिज्ञासा या अपेक्षा के साथ.
यह विडंबनापूर्ण लेकिन रोचक नियमावली रोथको में मिल सकती है कि वे शिक्षा देते हैं कि पेंटिंग सहज संगीत की तरह व्यक्त होना चाहिए लेकिन जब वे खुद चित्र बनाते हैं तो एक तरह की कर्कशता में व्यक्त होते हैं.
यह उस यथार्थ का राग है जो आठवाँ सुर है. मगर वे हेनरी मतीस को याद रखते हैं: चीज़ों को उनके अपने जाने-पहचाने रंगों से मुक्त करके नये रंग देना भी कला का एक कार्यभार है.
अपने कला संबंधी विचारों के पक्ष में रोथको यहाँ तक चले जाते हैं कि ‘सीग्रम’ जैसी अमीर कंपनी के मैनहटन शहर में ‘फोर सीज़न रेस्तराँ’ के लिए ढाई मिलियन डॉलर के कमीशंड काम, जो आज की भारतीय मुद्रा में 1000 करोड़ रुपये हो सकते हैं, ठुकरा देते हैं.
कारण- ”मैं नहीं चाहता कि अमीर और कला के नासमझ लोग मेरी पेंटिंग्स के नीचे, बगल में या सामने बैठकर रात्रिभोज करें.” यह उन्हें अनैतिक और अश्लील लगा. कि उनके ये चित्र तो ऐसे लोगों के जीवन या जीवन प्रणाली के प्रतिवाद से ही प्रेरित हैं.
रोथको का विचार था कि जो लोग भोजन, कपड़ों पर या प्रदर्शनकारी जीवन के लिए ज्यादा व्यय करते हैं वे सब अनैतिक लोग हैं. यदि आप धन को अपनी कला के आगे दुत्कार देते हैं या किसी तरह उसे पराजित कर देते हैं तो वह कला अपना मूल्य बचाए रखेगी. यह विचार उनकी खुद की पेंटिंग्स के बारे में तो भविष्यवाणी की तरह फलीभूत हो चुका है.
रोथको की पेंटिंग्स उनके उस बयान का निर्वहन करती हैं कि कलाकर्म को अपने इतिहास का भार भी उठाना चाहिए. उनका बाद का काम जैसे उदासी और विचारोत्तेजना के अवयवों में स्थित है. वे ऐब्सट्रैक्ट चित्र हैं लेकिन इहलोक से इहलोक में पैदा हुए हैं.
रोथको अपने चित्रों की रहस्यात्मक व्याख्या के सख़्त ख़िलाफ़ हैं. वे कहना चाहते हैं: यह सभ्यता एक अवास्तविक और उत्पादित किस्म की जीवन प्रणाली में फँस चुकी है, जैसे पानी के बंबे में धीरे-धीरे विशाल कचरा, धातुओं और प्लास्टिक के टुकड़े, खपच्चियाँ आदि फँस कर बहाव को अवरुद्ध करते हैं इसलिए अब कला को चाहिए कि वह एक वास्तविक और भौतिक दुनिया की तरफ़ कुछ मानवीय, नये तरीके से यात्रा करे.
कला की सुंदरता और कला की शक्ति में से शक्ति को चुनना चाहिए. सुंदरता को कृति में विन्यस्त हो सकनेवाली ताक़त की कीमत पर नहीं चुना जा सकता. बाकी वार्तालाप तो ‘डच करेज’ है यानी किसी नशे से प्राप्त अस्थायी और खोखला साहस.
ये विचार रोथको का आडंबर नहीं है. यहाँ फिर याद कर लें कि उन्होंने सीग्रम के लिए जो चित्र बनाए थे वे उनके रेस्तराँ को नहीं दिए बल्कि करोड़ों की राशि की उपेक्षा करते हुए अन्य संस्था को दान कर दिए थे.
प्रतिबद्धता के पक्ष में इतनी बड़ी धनराशि के दशमलव एक प्रतिशत की अवहेलना भी व्यवहार में असंभव कल्पना है, ज़रा एक बार फिर अपने आसपास निगाह डालकर देखें. और यह भी कि संस्थाएँ, अकादेमियाँ, न्यास और बाज़ार किस तरह कला से पेश आते हैं.
रोथको एक बार अपने शुभचिंतक से लगभग आत्मसंलाप में कहते हैं- ‘जब मैं युवा था, मेरे लिए कला एक एकांतिक काम था. कोई गैलरी नहीं, कोई संग्राहक क्रेता नहीं, कला आलोचक नहीं और पैसा भी नहीं. लेकिन वह स्वर्ण युग था. मेरे पास खोने के लिए कुछ नहीं था और पाने के लिए नयी दृष्टियाँ थीं. आज का समय अच्छा है या पहले का, इस पर बहस नहीं करना चाहता. मैं इसका उत्तर जानता हूँ.’
फि़ल्म निर्माता लेखक साइमन शामा, रोथको के बहाने कहते हैं- गैलरी कक्ष में प्रदर्शित कला का प्रभाव ऐसा हो कि प्रेक्षक को लगे कि वह उसमें क़ैद हो गया है जबकि कक्ष के सारे दरवाजे, खिड़कियाँ और रोशनदान खुले हुए हैं.
लेकिन कला दर्शक सोच रहा है कि अब मेरे पास यहाँ से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं. वह भौतिक रूप से बाहर आकर भी उस कक्ष की पेंटिंग्स से मुक्त नहीं होता. वे उसके मस्त्ष्कि में, विचारों में बस चुकी हैं.
एक निजी पक्ष यह कि मार्क रोथको, जो अपनी कला में जीत गए, बाज़ार के प्रलोभनों पर विजयी हुए लेकिन अति शराब-सिगरेट से अपना स्वास्थ्य हार गए. बाकी बातों के लिए जिज्ञासु गूगल कर लेंगे. बीबीसी की ‘कला की ताक़त’ (पॉवर ऑव आर्ट) सीरीज़ को याद रखें जिसके प्रस्तुतकर्ता साइमन शामा अपने डॉक्युड्रामा और स्क्रिप्ट के जरिये इतना संपन्न करते हैं कि कोई कला-अज्ञानी भी कुछ इस तरह प्रेरित, उत्कंठित होकर लिख सकता है. सोचते हुए कि ये बिंदु साहित्य एवं अन्य कलानुशासनों के बारे में उतने ही विचारणीय बने रहे हैं.