प्रसंगवश

अपने गाडरवारा में ओशो

बिकाश के शर्मा | गाडरवारा: ग्यारह दिसम्बर. शुक्रवार. शाम के करीब सवा पांच बजे, गाडरवारा की शक्कर नदी के किनारे स्थित ‘ओशो लीला आश्रम’के मुख्य द्वार पर पहुंचे तो धीमे स्वर में तालियों की आवाज सुनाई दे रही थी. बड़ा द्वार बंद है किन्तु उसके छोटे दरवाजे को खुला पाकर हम अन्दर प्रवेश करते हैं. एक किशोरी हमसे एंट्री करने को कहती हैं. प्रवेश की औपचारिकता पूरी होने के तुरंत बाद, आश्रम के केंद्र में स्थित छोटे से पार्कनुमा स्थान पर बमुश्किल एक दर्जन लोगों में से एक कैमरा से तस्वीर उतरना रोक कर, हमें जल्दी से उनके समूह में शामिल होने को कहता है. “बैग रखो, जल्दी आओ, केक कटने वाला है.” कहने का ढंग थोड़ा आदेशात्मक तो थोड़ा अनुरागपूर्ण.

समूह में शामिल होने के बाद पता चला कि वे चंद लोग, विश्व भर में अपने विचार का लोहा मनवाने वाले अध्यात्मिक गुरु ओशो का जन्मदिवस मना रहे है. उत्सव को मनाने का केक ओशो के मित्र के एल शुक्ला ने अपने हिलते हुए, नरम पड़े हाथों से सहयोगियों के साथ काटा. “हैप्पी बर्थ डे ओशो, हैप्पी बर्थ डे ओशो. . .ओशो… ओशो… ओशो…” कहने के बाद सबने एक दूसरे को बधाई दी, केक चखा और फिर सब ध्यान कक्ष की और बढ़ चले.

दरअसल ओशो लीला आश्रम वही स्थान है, जहाँ आचार्य रजनीश ओशो को मृत्यु का ज्ञान हुआ था और शक्कर नदी के तट पर तो वे घंटों बैठा करते थे. ओशो के परिवार का कछ्वाडा (मध्य प्रदेश) से गाडरवारा आगमन सन 1939 में हुआ और रजनीश ओशो का बाल्यकाल इसी नगर में गुजरा.

उनके देहावसान के करीब 12 वर्षों बाद उनके परिवार के लोगों ने और कुछ अन्य मददगारों की सहायता से इस स्थान पर इस आश्रम का निर्माण 2003 में पूरा करवाया. आश्रम में ओशो के ध्यान करने के स्थान पर एक स्मारक बनवाया गया है और उसमें ओशो की तस्वीर लगी है. इसके अलावा आश्रम में आने वाले संन्यासी सदस्यों को रियायती दर पर रहने-खाने की व्यवस्था भी की गई है.

ध्यान सत्र संपन्न होने के बाद केएल शुक्ला उर्फ़ स्वामी शुक्ला अपने बचपन के अनुभव बतलाते हैं, “वो एक दिन में दो-तीन किताबें पढ़ डालते थे, उस वक्त आश्चर्य होता था कि कोई बच्चा अपने सिलेबस की किताब को न पढ़कर केवल धर्म, अध्यात्म और विभिन्न विचारकों की किताबें पढ़े.”

प्रत्येक वर्ष देश के साथ-साथ विश्व के विभिन्न कोने में लाखों की संख्या में ओशो के विचार को मानने वालों के द्वारा उनका जन्मदिन भव्य आयोजन कर मनाया जाता है किन्तु गाडरवारा में तो केवल मुट्ठी भर लोग ही आयोजन में शामिल हुए, यह देखकर पहली बार आने वाले किसी भी व्यक्ति को आश्चर्य होना स्वाभाविक है.

स्वामी शुक्ला समझाने वाले अंदाज में कहते हैं- “ओशो द्वारा दिए गए प्रत्येक प्रवचन को समझने के लिए आपको अपने मस्तिष्क को हरदम अपडेट करते रहना होगा, वो समझ यहाँ है कहाँ? गाडरवारा के लोगों को तो अभी और कई सौ साल लगेंगे ओशो को जानने में किन्तु फिर भी यह अनिश्चित है कि वो उनके विचारों से जुड़ पाएं.”

हमारी मुलाकात आचार्य रजनीश ओशो के भतीजे अरविंद जैन से भी हुई, जिन्होंने आश्रम के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. उन्होंने बताया कि आश्रम में रोज दोनों प्रहर ध्यान सत्र होते हैं, जिसमें ध्यान मुद्राओं के साथ-साथ ओशो के दर्शन से भी अवगत कराया जाता है. बड़े शहरों में एवं अनेक देशों में ओशो प्रेमियों की लाखों संख्या के बारे में वो कहते हैं कि अक्सर लोग अपने घर के देवता की पूजा नहीं करते या संत की बातों को वो तरजीह नहीं देते जो बाहर वालों को मिलती है, यही भारत के मानस की सोच है.

अरविंद कहते हैं-“अव्वल तो ओशो कहा भी करते थे कि वे खुद जिस गाँव में जन्म लिए, वहां के लोग तो रामलीला के आगे कुछ सोच ही नहीं पाते. बाकी इधर उनका विरोध भी बहुत होता था क्योंकि वो तर्क संगत बात करते थे तो लोगों की कोरी धार्मिक आस्थाओं पर चोट पहुँचती थी, इसलिए वो ज्यादा यहाँ आते भी नहीं थे.”

उन्होंने बताया कि आचार्य रजनीश का दो-तीन बार ही परिवार के किसी आयोजन में आगमन गाडरवारा में हुआ था किन्तु वो पूरे संसार को ही अपना घर मानते थे.

हम ओशो के ध्यान स्थल के पीछे जाकर खड़े होते हैं तो नदी का विस्तार जरूर दिखता है, किन्तु पानी से कहीं अधिक रेत दिखाई देती है. कुछ देर आश्रम में बैठने के बाद, उसी छोटे दरवाजे से बाहर निकलने पर कुछ कदम की दूरी पर हमें कुछ युवक एक छोटे से मंदिर के सामने पीपल के पेड़ के नीचे खड़े हो कर बतियाते मिले. एक से पूछने पर कि यह ओशो लीला आश्रम है क्या चीज? तो एक ने जवाब दिया- “है किसी बाबाजी का आश्रम, जैसे हमलोग अपने भगवान की पूजा करते हैं, वैसे ही कुछ लोग यहाँ भी आते हैं अपने भगवान की पूजा करने.”

*लेखक युवा पत्रकार है

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