तो सीएम बनेंगे ओपी चौधरी !
रायगढ़ | गणेश अग्रवाल : ओपी चौधरी ने कलेक्टरी का सूट बूट उतार कर नेताओं का कुर्ता पहन लिया है. ओपी के चाहने वाले मान कर चल रहे हैं कि वे भारतीय जनता पार्टी के एक कद्दावर राजनेता बन कर उभरेंगे. खरसिया में उमेश पटेल के समक्ष चुनौती पेश करने के अलावा प्रदेश के 54% पिछड़ा वर्ग के साथ युवा वोटरों को लुभाने ओपी को चुनावी मैदान में उतार भाजपा ने छत्तीसगढ़ की राजनीति में कांग्रेस को घेरने चुनावी शुरुआत कर दी है. इस शुरुआत के साथ ही अब ओपी चौधरी के फैसले के निहितार्थ को भी समझने-जानने की कोशिश शुरु हो गई है.
कभी खरसिया विधानसभा कांग्रेस के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह व भाजपा के स्वर्गीय दिलीप सिंह जूदेव के दिलचस्प उपचुनाव का गवाह भी बनी थी. भाजपा से जुड़े लोगों ने ही दिलीप सिंह जूदेव की पीठ में छुरा भोंका था. जूदेव की हार के चर्चे मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की जीत से कही ज्यादा थे. 1988 में खरसिया में हुये इस उपचुनाव पर देश भर की नजरें टिकी हुई थीं. तब से लेकर आज तक यह सीट कांग्रेस के कब्जे में रही. भाजपा के पितृ पुरुष कहे जाने वाले स्व. लखीराम अग्रवाल और प्रदेश संगठन के कद्दावर नेता गिरधर गुप्ता इस सीट से भाग्य आजमा कर चुनाव हार चुके. उसके बाद शायद नन्दकुमार पटेल के लिए इस सीट में जीत का स्थाई पट्टा जारी हो गया.
नंद कुमार पटेल की राजनीति को जो लोग जानते-समझते थे, उन्हें यह बात पता है कि बालकराम पटेल, रविन्द्र पटेल एवं ओपी चौधरी के ससुर तीनों भाई नन्दकुमार की चमकीली जीत के आधार स्तम्भ व शिल्पकार माने जाते थे. खुद बालकराम पटेल ने कई बार चंद्रपुर विधानसभा से भाग्य आजमाने की पुरजोर कोशिश की लेकिन उन्हें सफलता नही मिली. यह टीस उनके मन में मौजूद रही.
उनके भाई रविन्द्र पटेल की धर्मपत्नी कृष्णा पटेल जिला पंचायत की अध्यक्ष भी रहीं लेकिन बालकराम पटेल की राजनैतिक इच्छा का रथ विधानसभा की दहलीज तक नही पहुंच पाया. नन्दकुमार पटेल और दिनेश पटेल की माओवादियों द्वारा हत्या के बाद बदली परिस्थितियों में माना जा रहा था कि दिनेश पटेल की पत्नी विधानसभा चुनाव में मैदान में उतरेंगी. इसके अलावा कृष्णा पटेल को भी एक स्वाभाविक उम्मीदवार माना जा रहा था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. नंद कुमार पटेल के बेटे उमेश पटेल को कांग्रेस ने टिकट दी और उमेश पटेल ने भारी मतों से जीत दर्ज की. लेकिन पिछले पांच सालों में हालात बदल चुके हैं और कहा जा रहा है कि उमेश पटेल और बालक राम पटेल के बीच दूरियां बढ़ चुकी हैं और इस विधानसभा चुनाव में बालकराम पटेल अपने दूसरे रिश्तेदार यानी ओपी चौधरी के रणनीतिकार के तौर पर उभर कर सामने आ जायें तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये.
जिस तरीके से कांग्रेस इस सीट पर जीत दर्ज करती रही है, इस बार भी भारतीय जनता पार्टी के लिये यह बड़ा सवाल था कि आखिर कांग्रेस विधायक उमेश पटेल के खिलाफ मैदान में किसे उतारा जाये? अंदरखाने की झूठी-सच्ची खबरों पर यकीन किया जाये तो कहा जा रहा है कि मिशन 65 के तहत अमित शाह ने 11 ऐसी सीटों पर ध्यान केंद्रित किया है, जो लंबे समय तक कांग्रेस के कब्जे में रही है. इनमें से खरसिया भी एक है. 1977 में विधानसभा सीट घोषित हुई खरसिया पर हमेशा से कांग्रेस का कब्जा रहा है.
2 लाख आबादी वाली खरसिया विधानसभा में लगभग 30 हजार अघरिया मतदाता हैं. युवा मतदाताओं की संख्या 1 लाख के आसपास है. खरसिया विधानसभा में नन्दकुमार पटेल के गृह क्षेत्र के नजदीक बयांग गांव में जन्मे ओपी चौधरी को आजमाने से भाजपा मान कर चल रही है कि उसे अघरिया मतों में विभाजन का लाभ मिलेगा. इसके साथ-साथ युवा मतदाताओं को लुभाने की कोशिश भी भाजपा करेगी. हालांकि यह सब आसान नहीं होगा.
यूं भी राज्य बनने के बाद से विधानसभा चुनाव के आंकड़ों को देखें तो खरसिया में हार-जीत का अंतर लगातार बढ़ता चला गया है. इसके उलट हाथ-पैर मारने की तमाम कोशिशों के बाद भी भारतीय जनता पार्टी इस सीट पर पिछड़ती चली गई है. 2003 में नंद कुमार पटेल को जब 70,433 वोट मिले थे, तब भाजपा के लक्ष्मी पटेल को महज 37,665 वोट से संतोष करना पड़ा. अगली बार यानी 2008 में भी नंद कुमार पटेल को 81,497 वोट मिले और भाजपा की लक्ष्मी देवी पटेल को 48,069 वोट मिले. 2013 में उमेश पटेल ने रिकार्ड बनाया और कुल 95,470 वोट हासिल किये, जबकि भारतीय जनता पार्टी के जवाहरलाल नायक 56,582 वोटों में ही सिमट कर रह गये.
राजनीतिक गलियारे में कहा जा रहा है कि ओपी चौधरी को चुनावी मैदान में उतार कर भाजपा ने प्रदेश के 54% पिछड़ा वर्ग के मतदाताओं के अलावा युवा मतदाताओं को भी संदेश देने की कोशिश की है. जाहिर है, खरसिया सीट में भाजपा की हार जीत मायने नही रखती. उमेश पटेल के खिलाफ ओपी को आजमाए जाने से यदि उमेश की जीत का फासला कम भी होगा तो भविष्य में उनकी राह कठिन होगी. खरसिया में भाजपा का रिकॉर्ड रहा है कि हारने वालों का वजूद दिल्ली के गलियारे में जिंदा रहता है. चाहे वो स्व. दिलीप सिंह जूदेव हों या स्व. लखीराम अग्रवाल.
फिलहाल तो सारा कुछ अनुमान है.हालात ये हैं कि अभी यह भी ठीक-ठीक तय नहीं है कि ओपी चौधरी आखिर विधानसभा चुनाव लड़ेंगे कहां से. खरसिया से या चंद्रपुर से ! अफवाहें उन्हें विधायक तो बना ही रही हैं, मंत्री भी और कुछ खबरों में हार के बाद राज्यसभा के रास्ते दिल्ली तक पहुंचाने की बात भी हवा में तैर रही हैं. दूर की कौड़ी लाने वाले उन्हें भविष्य के मुख्यमंत्री के तौर पर भी देख रहे हैं. कहा जा रहा है कि अगर सरकार बनती है और ओपी चौधरी जीतते हैं तो वे छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बनाये जा सकते हैं. यानी पिछले 24 घंटों में सारी संभावनायें पका दी गई हैं. कहते भी तो हैं कि राजनीति को संभावनाओं का ही खेल है, जहां कभी भी, कुछ भी असंभव नहीं है.