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वन नेशन वन इलेक्शन : यह बाबा साहब नहीं चाहते थे

कनक तिवारी
हमारा एक सहपाठी स्कूल में बने तालाब के किनारे अकेला बैठा रहता था. हम खेलते रहते. तो कहता मैं कुछ ज्ञान पैदा कर रहा हूं. तुम लोग नहीं समझोगे.

तालाब के किनारे बैठकर एक छोटा पत्थर या कंकड़ तालाब के जल में वह फेंकता. गोल गोल लहरें उठने लगतीं. फिर बड़ी होती होती किनारे से टकराकर गायब हो जातीं. वह तुरंत एक पत्थर या कंकड़ फिर फेंकता. फिर वही लहरें उठतीं. बढ़तीं और खत्म हो जातीं.

उसने हमसे कहा था- तुम लोग बच्चे हो. कभी जीवन में कुछ सीखोगे. तब मेरे इस खेल का मतलब समझ पाओगे. हम सच में नहीं समझ पाए. लेकिन अब समझ रहे हैं कि कैसे एक उलझन पैदा की जाती है. फिर उसे बड़ा किया जाता है. और उसके खत्म होते ही दूसरी उलझन पैदा कर दी जाती है.

उलझन पैदा करने समाज के शांत जल में केवल एक कंकड़ या पत्थर की तरह जुमला फेंकना होता है. आज उस दोस्त की बहुत याद आ रही है. उसका नाम नरेन्द्र था.

एक राजनीतिक सनसनी फैलाई जा रही है. नेपथ्य में उठती हुई फुसफुसाहटें हैं ‘वन नेशन वन इलेक्शन.’ इसके मायने हैं कि सरकार का इरादा है कि देश में सभी विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ कर दिए जाएं.

ऐसा अजूबा देश की आज़ादी के बाद आज तक नहीं हुआ. वन नेशन, वन इलेक्शन नहीं हुआ, क्योंकि वह अम्बेडकर के दो टूक कथन के कारण संविधान में मुमानियत होने से हो ही नहीं सकता था.

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सियासी फितूर के खिलाड़ी हैं. वे असंभावनाओं और उन्माद के बीच की विभाजक रेखा मिटा देते हैं. कभी कांग्रेस में जुमला चलता था, न खाता न बही, जो केसरी कहें वो सही. अब जुमला है न गलत, न, सही जो नरेन्द्र मोदी कहें, वही सही.

संविधान की अनुसूची में 28 राज्य हैं. इनके चुनाव राजनीतिक हालातों के चलते अलग अलग समय पर होते रहते हैं. सभी का कार्यकाल 5 वर्षों का ही तय है. राजनीति चिड़ियाघर या संग्रहालय नहीं है.

वहां मनुष्यों अर्थात् विधायिका के प्रतिनिधियों के करतब से कभी कभार पांच साल से पहले भी मध्यावधि और आकस्मिक चुनाव होते जाते हैं. लोकसभा का भी कार्यकाल नियत 5 वर्ष से कभी ज़्यादा तो कभी कम राजनीति के खिलाड़ियों द्वारा किया जाता रहा है.

पहली नज़र में मुझे तो ये सभी इरादे शेखचिल्ली के खयालों और दिमागी फितूर की तरह लगते हैं. संविधान और लोकतंत्र के जीवित और स्वस्थ रहते ऐसा हो पाना मुमकिन नहीं लगता. इसमें तमाम पेचीदगियां, लोकतांत्रिक मुद्दे, आर्थिक कठिनाइयां और न्यायिक दखल की संभावनाएं रहेंगी.

अपनी पार्टी और NDA नाम के जमावडे़ की राजनीतिक उम्मीदों का चेहरा चमकाने की मुहिम में खब्तख्याली, कठिन और कारगर नहीं दीखने वाली संभावनाओं में भी लोगों के सोच को उलझाया जा रहा है.

कहानी 15 जून 1949 से शुरू होती है. संविधान सभा में भारसाधक सदस्य तथा प्रारूप समिति के अध्यक्ष डा. बीआर अम्बेडकर ने चुनाव आयोग की स्थापना तथा अधिकारिता सम्बन्धी अनुच्छेद 324 (प्रारूप में अनुच्छेद 289) को सभा की बहस के लिए पेश किया.

अब वह इस तरह है ‘(1) इस संविधान के अधीन संसद् और हर राज्य के विधान मंडल के लिए कराए जाने वाले सभी चुनावों के लिए तथा राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के पदों के लिए चुनावों के लिए मतदाता सूची तैयार कराने का और उन सभी चुनावों के संचालन की देखभाल, दिशा निर्धारण और नियंत्रण एक आयोग में निहित होगा. (उसे संविधान में निर्वाचन आयोग कहा गया है.)

अम्बेडकर ने राज खोलते हुए समझाया कि चुनने का तो जनता को मूल अधिकार है लेकिन चुनाव लड़ने का नहीं. इसलिए हमने चुनाव कराने की मशीनरी कायम करते चुनाव मैनेजमेन्ट का प्रावधान किया है.

अम्बेडकर ने बहुत खुलकर कहा इसमें कोई शक नहीं कि आम तौर पर चुनाव हर पांच वर्ष के बाद ही होंगे. लेकिन सवाल फिर भी रहेगा कि उपचुनाव तो किसी भी समय हो सकते हैं. पांच वर्ष पूरे होने के पहले विधानसभा कभी भी भंग की जा सकती है. इसलिए हमने हर तरह की संभावना को शामिल किया है.

अम्बेडकर की तरह सक्सेना ने इस बात पर जोर देकर कहा “हमारे संविधान में मसलन यह शामिल नहीं किया गया है कि हर चार वर्ष के बाद अवश्य ही चुनाव होगा जैसा कि अमेरिका में होता है. भारत में शायद किसी न किसी प्रान्त में हमेशा चुनाव होते ही रहेंगे. भारत में देशी रियासतों के शामिल होने पर हमारे लगभग तीस प्रान्त हो जायेंगे. संविधान के मुताबिक अविश्वास प्रस्ताव पारित होने पर भी विधान-मंडल का विघटन हो जायेगा. इसलिये यह मुमकिन है कि केन्द्र तथा अलग अलग प्रान्तों के विधान मंडलों के चुनाव एक ही समय पर नहीं हों. हर समय कहीं न कहीं चुनाव होता रहेगा. यह हो सकता है कि अभी शुरुआत में अथवा पांच या दस वर्ष तक ऐसा न हो. लेकिन दस बारह वर्ष के पश्चात हर समय किसी न किसी प्रान्त में चुनाव होता रहेगा.”

डॉ. अम्बेडकर ने अंतिम उत्तर में सभी तर्कों को समेटकर उनके सिलसिलेवार उत्तर देना जरूरी नहीं समझा. अलबत्ता आरके सिधवा, नजीरुद्दीन अहमद, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, ठाकुरदास भार्गव जैसे सदस्य सरकारी प्रस्ताव के समर्थन में रहे हैं.

दरअसल संविधान में चुनावों को लेकर राज्यों को ऐसा क्षेत्राधिकार दिया गया है जो बर्फ की सिल्ली की तरह चट्टान होने का धोखा देता है. जैसे ही उस पर केन्द्र सरकार की कार्यवाही की गर्मी पड़ती है, वह पिघलकर पानी हो जाता है. संविधान सभा में संतुलन चाहने संबंधी जिरह अंधेरे में खो गई आवाज की तरह है.

अनुच्छेद 83 में लोकसभा और 172 में विधानसभा का कार्यकाल अठारह माह बढ़ाया जा सकता है बशर्ते मउमतहमदबल लागू कर दी जाए. वे प्रावधान कहते हैं- लोकसभा, यदि पहले ही विघटित नहीं कर दी जाती है तो, अपने प्रथम अधिवेशन के लिए नियत तारीख से {पांच वर्ष} तक बनी रहेगी, इससे अधिक नहीं और {पांच वर्ष} की उक्त अवधि की समाप्ति का परिणाम लोक सभा का विघटन होगाः परन्तु उक्त अवधि की, जब आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में है तब, संसद् विधि द्वारा, ऐसी अवधि के लिए बढ़ा सकेगी, जो एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं होगी और उद्घोषणा के प्रवर्तन में न रह जाने के पश्चात् उसका विस्तार किसी भी दशा में छह मास की अवधि से अधिक नहीं होगा. क्या पता यह भी कहीं विचार में हो?

अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे. तब संविधान समीक्षा के नाम पर एक आयोग गठित किया जा रहा था. लोगों में हंगामा मचा. फिर उन्होंने कहा यह समीक्षा आयोग नहीं होगा. संविधान के रिव्यू की कमेटी होगी.

सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड चीफ जस्टिस एमएन वेंकटचलैया की अध्यक्षता में 11 सदस्यीय कमेटी बनाई गई. उसने 2002 में सरकार को सिफारिशों सहित अपनी रिपोर्ट पेश कर दी. सिफारिशों के सार संक्षेप के अध्याय 4 में चुनाव प्रक्रियाओं को लेकर 64 सुझाव हैं.

उनमें कहीं भी किसी विधानसभा को भंग कर ‘वन नेशन वन इलेक्शन‘ जैसा शगल छेड़ने का सुझाव नहीं है. अलबत्ता उसी रिपोर्ट में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन याने इवीएम का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करने की सिफारिश की गई है जिसका खमियाजा देश भुगत रहा है.

उसमें यह भी सिफारिश है कि यदि कोई विधायक या सांसद दलबदल करता है. तो उसे अपनी संसद या विधानसभा की सीट से तत्काल इस्तीफा देना पड़ेगा. अन्यथा उसकी सदस्यता छीन ली जाएगी. उन्हें मंत्री वगैरह नहीं बनाया जाएगा. इस पर मोदी जी कैसे अमल करेंगे जो दलबदल के संरक्षक हैं.

क्या नरेन्द्र मोदी जी अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में गठित संविधान पुनरीक्षण समिति की 64 सिफारिशों के बारे में कोई श्वेत पत्र जारी करने की हिम्मत या नीयत रखते हैं?

मोदी जी अटलजी की बात कैसे मान सकते हैं जो 2002 के दंगों में गुजरात में मोदी जी को राजधर्म सिखाने की बात कर रहे थे. 2002 में गुजरात में भारी संख्या में देश में नरसंहार होने के कारण देश के प्रधानमंत्री भाजपा के ही अटल बिहारी बाजपेयी ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए कहा था कि वे राजधर्म का पालन करें. तब लालकृष्ण आडवाणी ने बाजपेयी को कहा कि मैंने मोदी का विकास किया है.

इसलिए मोदी ने गुरुभक्ति में अडवाणी को संरक्षक मंडल का मुखिया बना दिया और वाजपेयी की परवाह नहीं की. बाद में किसी ने पूछा कि आपने वाजपेयी के राजधर्म निबाहने की बात पर अमल क्यों नहीं किया. तब नरेन्द्र मोदी के दाहिने हाथ रहे एक बहुचर्चित नेता ने कहा कि राजधर्म का निर्वाह करना तो मनुष्यों के लिए नसीहत है. मोदी जी तो धर्मराज हैं. इन्हें राजधर्म का निर्वाह करने से ज्यादा बड़े धर्म के राज्य की स्थापना करनी है.

समझना फिर ज़रूरी है. अम्बेडकर ने दो टूक कहा अमूमन सभी विधायिकाओं का कार्यकाल पांच वर्ष के लिए ही होगा. सिवाय इसके कि कोई उपचुनाव हो जाएं या पांच वर्ष के पहले विधायिका को भंग कर दिया जाए. अम्बेडकर ने ऐसा कतई इशारा या कथन नहीं किया था कि केन्द्र सरकार चाहे तो किसी विधानसभा का कार्यकाल घटा, बढ़ा दे.

चुनाव लोकतंत्र की आत्मा और मतदाता का मौलिक अधिकार हैं. संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 तक चुनाव सम्बन्धी प्रावधानों का ब्यौरा है. गवर्नमेन्ट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935 और अन्य ब्रिटिश कानूनों के तहत चुनाव कराने का जिम्मा कार्यपालिका अर्थात सरकार पर होने से केवल मज़ाक होता था.

इसलिए संविधान सभा में शुरू से आम राय उभरी कि वोट देना नागरिक का मूल अधिकार बनाएंगे. चुनाव के लिए स्वतंत्र मशीनरी की स्थापना भी करना होगा. विख्यात संविधानविद् जस्टिस वी.आर. कृष्ण अय्यर के अनुसार प्रजातंत्र का अर्थ ही चुनाव के प्रजातंत्र से है. संविधान एक अंतहीन बहस और लचीला हथियार है. उसकी संवेदना और गरिमा की घोषणाएं नागरिक संस्कारों की कहानी हैं.

केन्द्र सरकार या प्रधानमंत्री की किसी मंशा को मंजूर नहीं करना संविधान का उल्लंघन नहीं है. तो प्रदेश की सरकारों का कार्यकाल खत्म कैसे हो सकता है? देश में खुद को ताकतवर समझते प्रधानमंत्री की निरंकुश हुकूमत संविधान को चुनौती देती चल रही है.

प्रधानमंत्री को हर बार लगता होगा संविधान उनके राजपथ पर पड़ा हुआ एक रोड़ा ही तो है. वह जबरिया उन्हें जनपथ पर चलने की नसीहत क्यों देता रहता है. यह रोड़ा हटा देना उनका अधिकार है. फिर सपाट चिकनी सड़क का नाम होगा ‘एक नेशन, एक इलेक्शन.’

अंधभक्त पीढ़ी भक्तिभाव में डूबकर वैधानिक सच नहीं समझ पा रही है. लोकतंत्र की बुनियाद नेता, सरकार, राष्ट्रपति और उनके द्वारा नियुक्त संवैधानिक पदाधिकारी नहीं हैं. देश में कोई सार्वभौम नहीं है. न राष्ट्रपति, न प्रधानमंत्री, न सुप्रीम कोर्ट, न राज्यपाल और न मुख्यमंत्री वगैरह.

सुप्रीम कोर्ट ने बार बार कहा है देश में अगर कोई सार्वभौम है तो वे हैं हम भारत के लोग. अर्थात् जनता. यहां तक कि संविधान भी सार्वभौम नहीं है. जनता अर्थात् हम भारत के लोगों की सार्वभौमिकता के रहते सभी पार्टियों के सांसद और विधायक मिलकर भी ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ को जनता पर लाद नहीं सकते. यह ध्यान रहे.

जनता द्वारा चुनने का अधिकार मूल अधिकार है. लेकिन सांसद, विधायक बनने के लिए चुनाव लड़ने का अधिकार संविधान के तहत बने अधिनियम का उससे छोटा अधिकार है. ऐसी हालत में ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ की आड़ में केन्द्र सरकार जनता के अधिकारों में कटौती नहीं कर सकती.

पार्टीबंदी या धड़ेबंदी के नाम पर प्रदेश की सरकारों को गिराकर वहां ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के नाम पर राष्ट्रपति शासन थोप देना जनता के अधिकारों पर सरकारी डकैती होती है. ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ करें, जिससे आपकी मंशा पूरी हो जाए. लेकिन शर्त है अगर केन्द्र सरकार को ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ लागू करना है, तो वह एक बार संविधान में अधिकार मांगकर जनमत संग्रह क्यों नहीं करा ले.

भारत के नागरिक संविधान बल्कि भारतीय अस्तित्व की बुनियाद हैं. पहले के प्रधानमंत्री चाहे जैसे रहे हों. लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संविधान की इमारत की एक एक ईंट को खिसकाने का एक एक आयत का कचूमर निकालने का अपना अनोखा अभियान शुरू तो कर दिया है. दिल्ली सरकार के पर कतर दिए. जम्मू कश्मीर से 370 हटाकर उसे केन्द्र शासित कर दिया. राजद्रोह हटाने का सुप्रीम कोर्ट ने वादा करके उसमें आजीवन जेल की सजा ठूंस दी. हरकतें जारी हैं.

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