नेहरू और निराला
अनुज शुक्ला | फेसबुक
दारागंज पक्की सड़क पर एक हवेली है. बहुत शानदार. किसी राय बहादुर की हवेली. वहां नेहरू चचा आए थे. राय बहादुर से मिलने. उसी पक्की सड़क पर करीब चार पांच सौ मीटर आगे और नागबासुकी से पहले निराला की भी कुटी थी. नागबासुकी वह जगह है जहां भगवान महावीर ने तपस्या की थी. महाप्राण को खबर मिली. नेहरुआ आया है. चाय बनवाई. कांसे के एक लोटे में भरा. कलकतिया गमछे को हाथ के ऊपर ऐसे डाला कि लोटा ढंक गया.
नंग धड़ंग निराला रायबहादुर की कोठी की ओर यूं लपक के चले जैसे सालों परदेस से लौटा कोई पति प्राणप्यारी नव ब्याहता पत्नी से मिलने के लिए, उसकी सूरत देखने के लिए सांझ और रात के गहराने का इंतजार करता रहता है. पलक झपकते ही निराला राय बहादुर की कोठी के सामने थे.
वहां चौखट पर बड़े बड़े लोग खड़े थे. सारे नगर सेठ, प्रयाग और आसपास के सभी गणमान्य. चचा का जलवा इलाहाबाद में बादशाही भी था और राजर्षि का भी. महाप्राण भी प्रयाग के महर्षि थे. महाप्राण दूसरे लोक के महर्षि थे. उनका फोटो नेहरू से कमजोर था. नेहरूओं को बेशक उनके लोक का पता था.
रायबहादुर की कोठी के सामने तमाम बाहर थे, जिनमें घुसने की अर्हता थी वे अंदर. निराला को रोक दिया गया. उन्होंने कहा जाके बोलो उसको. निराला आया है. औघड़ निराला का रूप रंग देखकर लोगों को लगा कि कोई पागल है. यहां तमाम नगर सेठ और नगर वधुएं बाहर खड़ी हैं. और ये यूं तुर्रा बखान रहें कि कहीं के जहांपनाह हों. कुछ लोगों ने तंज भी कसा और निराला भावुक हुए. अपने उत्सर्ग और गरीबी पर आह भरते लौट आए.
कहते हैं कि इसी घटना के बाद उन्होंने कुकुरमुत्ता लिखी थी-
एक थे नव्वाब,
फ़ारस से मंगाए थे गुलाब.
बड़ी बाड़ी में लगाए
देशी पौधे भी उगाए
रखे माली, कई नौकर
गजनवी का बाग मनहर
लग रहा था.
एक सपना जग रहा था
सांस पर तहजबी की,
गोद पर तरतीब की.
क्यारियां सुन्दर बनी
चमन में फैली घनी.
फूलों के पौधे वहाँ
लग रहे थे खुशनुमा.
बेला, गुलशब्बो, चमेली, कामिनी,
जूही, नरगिस, रातरानी, कमलिनी,
चम्पा, गुलमेंहदी, गुलखैरू, गुलअब्बास,
गेंदा, गुलदाऊदी, निवाड़, गन्धराज,
और किरने फ़ूल, फ़व्वारे कई,
रंग अनेकों-सुर्ख, धनी, चम्पई,
आसमानी, सब्ज, फ़िरोज सफ़ेद,
जर्द, बादामी, बसन्त, सभी भेद.
फ़लों के भी पेड़ थे,
आम, लीची, सन्तरे और फ़ालसे.
चटकती कलियां, निकलती मृदुल गन्ध,
लगे लगकर हवा चलती मन्द-मन्द,
चहकती बुलबुल, मचलती टहनियां,
बाग चिड़ियों का बना था आशियाँ.
साफ़ राह, सरा दानों ओर,
दूर तक फैले हुए कुल छोर,
बीच में आरामगाह
दे रही थी बड़प्पन की थाह.
कहीं झरने, कहीं छोटी-सी पहाड़ी,
कही सुथरा चमन, नकली कहीं झाड़ी.
आया मौसिम, खिला फ़ारस का गुलाब,
बाग पर उसका पड़ा था रोब-ओ-दाब;
वहीं गन्दे में उगा देता हुआ बुत्ता
पहाड़ी से उठे-सर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता-
“अब, सुन बे, गुलाब,
भूल मत जो पायी खुशबु, रंग-ओ-आब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट!
कितनों को तूने बनाया है गुलाम,
माली कर रक्खा, सहाया जाड़ा-घाम,
हाथ जिसके तू लगा,
पैर सर रखकर वो पीछे को भागा
औरत की जानिब मैदान यह छोड़कर,
तबेले को टट्टू जैसे तोड़कर,
शाहों, राजों, अमीरों का रहा प्यारा
तभी साधारणों से तू रहा न्यारा.
वरना क्या तेरी हस्ती है, पोच तू
कांटो ही से भरा है यह सोच तू
कली जो चटकी अभी
सूखकर कांटा हुई होती कभी.
रोज पड़ता रहा पानी,
तू हरामी खानदानी.
चाहिए तुझको सदा मेहरून्निसा
जो निकाले इत्र, रू, ऐसी दिशा
बहाकर ले चले लोगो को, नही कोई किनारा
जहाँ अपना नहीं कोई भी सहारा
ख्वाब में डूबा चमकता हो सितारा
पेट में डंड पेले हों चूहे, जबां पर लफ़्ज प्यारा.
पूरी कविता नीचे है. पढ़ सकते हैं.
यह किस्सा मैंने दारागंज के दूधियों और मल्लाहों से सुना है. नागवासुकी में तपस्या करते हुए. कई किस्से. लगभग ऐसे ही. और इस भाव से सुना है कि उसके बारे में क्रॉस चेक करने की जरूरत नहीं महसूस हुई. जैसे कि उस सुने किस्से का स्वाद कसैला हो जाएगा. और उससे अच्छा कोई क्या निराला को बता पाएगा.
नेहरू को बाद में पता चला और उन्होंने लोगों को डपटा. दारागंज वालों का कहना है कि निराला को लगता था कि नेहरू और फिराक साब अंग्रेजी में अंग्रेजों के भी बाप हैं. निराला नेहरू से इसलिए भी खुश थे कि नेहरुआ का ठाठ फारस के नवाबों से भी खास है. बावजूद कि निराला फकीर थे. निराला को पीने के लिए लोग शराब दे देते थे. कोई भाड़ा देकर रिक्शा भेज देता था.
रॉयल्टी उनकी घर पहुंचने से पहले रास्ते में खत्म हो जाती थी. शॉल किसी महिला के कंधे पर डाल देते थे और जूते भी बांट देते थे. दिन दिन रात रातभर गंगा की रेत में पड़े रहते थे. मल्लाहों ने मछली पकाई या दाल, पेट भर लेते थे.
सरोज की मौत के बाद विक्षिप्त हो गए थे. एक पिता का करुण विलाप सरोज स्मृति में है. कान्यकुब्ज ब्राह्मणों को उन्होंने जिस भाषा में गरियाया है, कुशवंशी स्वर्गीय सोने लाल पटेल ने भी नहीं गरियाया होगा.
आज फारस का गुलाब लगाया (दो और पौधे लगाए हैं) तो गुलाब के बहाने बाल दिवस पर चचा नेहरू और महाप्राण दोनों को एक साथ याद कर लिया. कवि होना और कवि को जीना सबके बूते का नहीं.
राय बहादुर वाले किस्से को संदिग्ध ही मानें. स्मृतियों की वैज्ञानिकता पुष्ट ही कहां हो पाती है.