मोदी राज में कोलगेट से बड़ा कोल घोटाला
रायपुर | संवाददाता: मोदी सरकार में बड़ा कोल ब्लॉक घोटाला सामने आया है. अगर जांच की जाये तो यह घोटाला मनमोहन सरकार के कोलगेट घोटाला से भी बड़ा हो सकता है.यह आरोप छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन ने लगाया है.
मोदी सरकार ने कोल ब्लॉक की नीलामी रोक कर 61 कोल ब्लॉक का आवंटन कथित रुप से सरकारी कंपनियों को किया है लेकिन इन कोल ब्लॉक को निजी हाथों में सौंप दिया गया है. इस घोटाले से अरबों रुपये की चपत लगी है. छत्तीसगढ़ में काम करने वाले छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन का आरोप है कि पूरे मामले की जांच की जाये तो यह देश का एक बड़ा घोटाला साबित होगा.
जब मई 2016 में मोदी सरकार ने अपने एक वर्षीय कार्य का लेखा जोखा प्रस्तुत किया, उसमें पारदर्शी एवं निष्पक्ष कोयला खदानों का आवंटन सबसे प्रमुख उपलब्धियों में से एक गिनाया गया था. सरकार ने दावा किया था कि 29 खदानों की नीलामी के ज़रिये राज्य सरकारों को 1.72 लाख करोड़ रुपयों का फायदा पहुंचा है. परन्तु इस उपलब्धि के मात्र 2 साल बाद ही ऐसा प्रतीत होता है कि पारदर्शी नीलामी से सरकार की रूचि कहीं पीछे छूट गई है और मनमाने रूप से चुनिंदा कॉरपोरेट घरानों को आवंटन में फायदा पहुंचाने का दौर फिर से वापस आ गया है.
एमडीओ के नाम पर घोटाला
इस बार सरकार ने एक नए कानूनी प्रक्रिया की शुरुवात की है, एम.डी.ओ. यानी माइन डेवलपर कम ऑपरेटर कहा जाता है. इस रास्ते से सरकारी कंपनियों की मिलीभगत से कोयला खदानों का पूरा विकास एवं संचालन पिछले दरवाज़े से सरकार के करीबी कॉरपोरेट घरानों को सौंपा जा रहा है और पारदर्शी नीलामी प्रक्रिया की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं. अदानी जैसी कंपनियां, जिन्हें 2015 की नीलामी प्रक्रिया में कुछ ख़ास सफलता नहीं मिली थी, वह भी देश में सबसे बड़े कोयला खदानों के मालिक बनने का सपना देखने लगे हैं.
जिन भी सरकारी कंपनियों को कोयला खदानें आवंटित की गयी हैं, लगभग सभी ने या तो निजी कंपनियों की एम.डी.ओ. के रूप में नियुक्ति कर दी हैं या फिर वो इस प्रक्रिया में हैं. एम.डी.ओ. अर्थात माइन डेवलपर कम ऑपरेटर कोयला खदान के विकास एवं संचालन के लिए ज़िम्मेदार होता है, जिसमें सभी पर्यावरणीय स्वीकृतियां लेना, भूमि अधिग्रहण करना, माइन के संचालन के लिए अन्य कांट्रेक्टर की नियुक्तियां, कोयला परिवहन, इत्यादि सभी खनन सम्बंधित गतिविधियाँ शामिल हैं. अतः इस रास्ते से कोयला खदान का पूरा नियंत्रण निजी कंपनियों के पास पहुँच जाता है, जबकि दस्तावेजों में जिम्मेदारियां सरकारी कंपनी के पास रह जाती हैं.
यह मॉडल ना केवल प्रतिस्पर्धी नीलामी से बचाकर निजी कंपनियों को कोयला खदानें आवंटित करने का पिछले दरवाज़े का रास्ता है, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के कोलगेट केस में 2014 के निर्णय की मूल भावना की भी घोर अवमानना है. सितम्बर 2014 को अपने ऐतिहासिक निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने उस प्रक्रिया पर भारी सवाल उठाते हुए, गैरकानूनी करार दिया था, जिस प्रक्रिया से सरकारी माइनिंग कंपनियां निजी कंपनियों के साथ जॉइंट वेंचर (संयुक्त उपक्रम) बना लेते थे, जिससे माइनिंग का लाभ निजी कंपनियों के पास चला जाता था.
छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा था कि ऐसी प्रक्रिया पिछले दरवाज़े से निजी कंपनियों को लाभ दिलाने का काम कर रही है और इस ज़रिये सरकार मनमाने रूप से चुनिंदा कंपनियों को लाभ पहुंचा रही है. एम.डी.ओ. मॉडल पूरी प्रतिस्पर्धी नीलामी प्रक्रिया का भी मज़ाक उड़ा देता है और उसकी प्रभावशीलता को ही ख़त्म कर देता है क्योंकि कंपनियों को अब नीलामी प्रक्रिया के बिना ही मनमानी खदानें आवंटित की जा सकती हैं.
उदाहरण के तौर पर अदानी कंपनी ने 2015 में हुई नीलामी प्रक्रिया में बहुत सक्रियता से भाग नहीं लिया परन्तु फिर भी उसे छत्तीसगढ़ में 4 खदानों के MDO कॉन्ट्रैक्ट अभी तक मिल गए हैं और वह अन्य बड़ी खदानों के MDO कॉन्ट्रैक्ट लेने की भरपूर कोशिश कर रहा है, जैसा कि गारे पेलमा सेक्टर 1,2,3, गिधमुड़ी पतुरिया, मदनपुर साउथ, इत्यादि. ये सभी छत्तीसगढ़ की सबसे बड़ी खदानें जिन्हें अब विभिन्न राज्य सरकारों को आवंटित किया गया है.
एम.डी.ओ. प्रक्रिया से निजी कंपनियों को मनमाने खदानों के मिलने के अलावा कई अन्य लाभ भी हैं. इस रास्ते से निजी कंपनियां राज्य सरकार की कम्पनियों से लाभ बंटवारे के सौदे कर सकते हैं, जोकि नीलामी से मिली खदानों से मिले लाभ से कहीं अधिक फायदेमंद होते हैं. यह इसलिए संभव है क्योंकि अलॉटमेंट रूट से मिली खदानों पर सरकारी कंपनी को बहुत कम लगभग 100 -150 रूपये प्रति टन की रायल्टी देनी पड़ती है, जबकि प्रतिस्पर्धी नीलामी में रॉयल्टी की यह दर 3500 रूपये प्रति टन तक भी जा सकती है. ऐसे में इसका मुनाफे का महत्वपूर्ण हिस्सा निजी कंपनियों के पास चला जाता है.