क्या कहता है नया कृषि क़ानून
ओम थानवी | फेसबुक
तीन महीने पहले केंद्र सरकार ने भयंकर महामारी के बीच तीन नए कृषि क़ानून बना दिए.यह कहकर कि इनसे किसानों का भला होगा. भले की मामूली गतिविधि का चहेते गोदी मीडिया से हल्ला करवा देने वाली सरकार ने इस बार यह काम बग़ैर प्रचार क्यों अंजाम दिया? क़ानून किसानों के भले के लिए बना रहे थे तो किसानों से इस बारे में बात क्यों नहीं की?
देखें कि नए क़ानून कहते क्या हैं.
सरकार किसानों को चुनिंदा फसल की ख़रीद में जो गारंटी देती है न्यूनतम समर्थन मूल्य की, वह अब ख़त्म समझिए. क्योंकि नई व्यवस्था में मंडियाँ ही उठ जाएँगी. दूसरा क़ानून: खेती अनुबंध पर होगी- ‘कॉंट्रैक्ट फ़ार्मिंग’. किसान मानो बंधुआ मज़दूरों की तरह पूँजीपतियों के लिए अन्न उगाएँगे. जो अन्न ठेकेदार व्यापारी चाहें, जहां चाहें बेचें. सरकार का मानना है कि सरकारी ख़रीद से यह सीधी ख़रीद किसान के लिए ज़्यादा फ़ायदेमंद होगी.
तीसरा क़ानून, निजी क्षेत्र फसल भंडारण के लिए गोदाम खड़े कर सकेगा. इसकी कोई सीमा नहीं होगी. इसमें सरकार का कोई दख़ल भी नहीं होगा. किसान तो भंडारण के ऐसे निर्माण करने से रहा. यहाँ भी पूँजीपति धंधा करेंगे. कहने की ज़रूरत नहीं कि ये क़ानून किसानों के नहीं, बल्कि पूँजीपतियों के भले के लिए बनाए गए हैं.
महज़ संयोग नहीं है कि प्रधानमंत्री के चुनावी धनदाता अडानी (जिसका धंधा पिछले बरसों में देश में अव्वल दरज़े में पहुँच चुका है) ने क़ानून बनते-न-बनते हरियाणा में (जहाँ से पंजाब और उत्तरप्रदेश दूर नहीं) बेहिसाब ज़मीन फसलों के भंडारण के लिए ख़रीद ली है.
नए क़ायदे में सबसे बड़ी ख़ामी यह है कि अगर पूँजीपति और किसान में उक्त व्यवस्था में विवाद उत्पन्न हुआ तो किसान अदालत में नहीं जा सकेंगे. विवाद का निपटारा यह निपटारा सरकारी अधिकारियों के स्तर पर किया जाएगा, जो कहने को भले न्यायाधिकरण कहलाए. यानी देश की 60-70 प्रतिशत ज़मीन जोतने वाले भारतीय नागरिक होंगे, फिर भी भारतीय अदालत का दरवाज़ा खटखटाने के नागरिक अधिकार उनके पास नहीं रहेंगे.
यही सब चाल किसानों ने पकड़ ली है. वे सड़कों पर हैं. बच्चे-बूढ़े, माएँ और जवान. उन्हें, स्वाभाविक ही, लगा है कि यह उनका भविष्य ख़रीदने की साज़िश है. विवादित क़ानूनों के ख़िलाफ़ उनका प्रतिरोध एक विराट आंदोलन में बदल चुका है. ऐसा मंज़र देश ने आज़ादी के बाद शायद पहले नहीं देखा.
पूँजीपतियों की हितकारी सरकार जितना कहती है कि आंदोलन के पीछे देशविरोधी तत्त्वों, खालिस्तान-समर्थकों, अर्बन-नक्सल, टुकड़े-टुकड़े गैंग (इनका अर्थ सरकार की प्रोपेगैंडा मशीनरी को ही पता है) आदि-आदि का हाथ है, उतना ही आंदोलन को जन-समर्थन बढ़ता जाता है.
इस आंदोलन में किसानों की जीत अवश्यंभावी है. सरकार जितना देर करेगी, उतनी ही उसकी साख जाएगी. आंदोलन के चलते दूर देशों में भी बड़ी फ़ज़ीहत हुई है.