Columnist

बड़े भाई साहब

दिवाकर मुक्तिबोध
तीन दिसंबर को देशबन्धु परिसर में दोपहर के वक्त ललित सुरजन जी का अंतिम दर्शन मेरे लिए किसी देव-दर्शन से कम नहीं था. काँच से घिरे ताबूत में उनकी मृत देह रखी हुई थी. उन्हें गुजरे करीब बीस घंटे हो चुके थे लेकिन शांत चेहरे पर वैसी ही ताजगी थी जिसे मैं बरसों से देखता आ रहा था.

कुछ पल मैं उनके ताबूत के पास खडा रहा. एकटक उन्हें देखते. मन में एक लहर सी उठी- शायद बोल पड़ेंगे- दिवाकर, कैसे हो. पर नहीं. वे चले गए थे. एकाएक. अपने पीछे एक विराट शून्य छोड़कर.

मुझे इस बात का सख्त अफसोस है कि मैं उनसे लम्बे समय से नहीं मिल पाया. कोरोना ने दूरी बढा रखी थी और जब वाट्सएप पर बीमारी की खबर मिली तो वे विशेष विमान से दिल्ली रवाना होने की तैयारी में थे. फिर मैसेज आया कि वे अस्थि रोग से पीड़ित हैं जिसके इलाज में काफी समय लगेगा. अतः मित्रों से दूर रहेंगे पर फोन पर संदेश व जरूरी होने पर बातचीत होती रहेगी. वे अस्पताल में भरती हुए. मैंने चिंता व्यक्त की, जल्दी स्वस्थ होने शुभकामनाएं दीं. प्रत्युत्तर में उन्होंने आभार जताया. इसके बाद कोई संवाद नहीं हो सका.

दरअसल मैं उनका दोस्त नहीं था, अनुज था. साथ होने पर औरों को वे मेरा परिचय वे इसी तरह देते थे. यह मेरे लिए बहुत सम्मान की बात थी. आखिरकार दोस्त दोस्त होता है, अनुज अनुज. अनुज था पर मेरी उनसे बातचीत कम ही होती थी. लेकिन प्रत्येक प्रसंग पर वे घर जरूर आते थे. वे यह भी कहते थे, जब भी बुलाओगे, आऊँगा.

मुझे इस बात का भी अफसोस है कि दीवाली मनाने वे रायपुर आए पर उनसे मुलाकात नहीं हो सकी. जिन दोस्तों को इसकी सूचना मिली ,उन्होंने जरूरी नहीं समझा कि इसे साझा किया जाए. यह तो जाहिर है कि ललित जी ने अपने रायपुर आगमन की खबर नहीं लगने दी. शायद एकांतवास चाहते थे क्योंकि उन्हें चाहनेवाले मित्रो, हितैषियों व शिष्यों की संख्या इतनी विशाल थी कि घर में मिलने-जुलने वालों का तांता लग जाता. इनमें मैं भी शामिल रहता. सूचना नहीं थी इसलिए मुलाकात का अवसर हाथ से निकल गया.

29 नवंबर को वे चिकित्सकीय परीक्षण के लिए नयी दिल्ली के अस्पताल में थे. यह सामान्य प्रक्रिया थी लेकिन एकाएक मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की उनके स्वास्थ्य संबंधी चिंता व शुभकामना संदेश से आशंकाएं घनीभूत हुई कि स्थिति ठीक नहीं है. फिर ब्रेन हेमरेज व बाद में मृत्यु की खबर किसी सदमें से कम नहीं थी.

मन में सन्नाटा-सा खींच गया. एक अजीब-सी नैराश्य की भावना. बाद के चंद घंटे बड़े खराब गुजरे. बस ललित जी के साथ बीता देशबन्धु का समय याद आता रहा.

ललित जी ने छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता को किस तरह समृद्ध किया, यह बताने की जरूरत नहीं. इसके गवाह हैं वे पीढियां, वे पत्रकार जो उनके मार्गदर्शन में दीक्षित हुए. चाहे वे देशबन्धु स्कूल से निकले हों या इतर समाचार संस्थानों में कार्यरत रहें हों. सभी ने उनसे कुछ न कुछ, बहुत कुछ सीखा. वे अपने आप में पत्रकारिता के विश्वविद्यालय थे. इस विश्वविद्यालय से मैं भी दीक्षित हुआ.

वे सभी से स्नेह रखते थे पर मैं उनका स्नेहपात्र इसलिए भी था क्योंकि मैं उस व्यक्ति का बेटा था, जिनकी कविताओं पर, जिनके रचनाकर्म पर वे मुग्ध थे. मुझे याद है वह पहली मुलाकात, जब मैं बीएससी प्रथम वर्ष का विद्यार्थी था और वे शायद एम ए फायनल के.

बूढापारा स्थित नयी दुनिया (बाद में देशबन्धु ) में जब उनसे मेरा परिचय पिताजी के नाम के साथ कराया गया तो वे बेहद खुश हुए. यह हमारा भाग्य है कि हिंदी साहित्य के रचनाकारों से जब कभी मेल-मुलाकात होती है तो वे यह जानकर आनंदित होते हैं कि हम एक ऐसे व्यक्ति की संतानें हैं, जिन्हें युगप्रवर्तक कहा जाता है. ललित जी का भी अभिभूत होना इस दृष्टि से स्वाभाविक था.

पचास बरस पूर्व हुई यह संक्षिप्त मुलाकात जल्दी ही प्रगाढ़ आत्मीयता में बदल गई, जब मैंने 1969-70 में देशबन्धु में संपादकीय सहकर्मी के रूप में कदम रखा. अब वे संपादक के साथ ही बडे भाई भी थे. उनसे पारिवारिक रिश्ते कायम हुए.

मैं जितने वर्ष भी देशबन्धु में रहा, उनसे कुछ न कुछ नया सीखता रहा. उन्हें हमेशा पढ़ता रहा. उनकी सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक समझ इतनी गहरी थी कि समसामयिक घटनाओं पर उनका विश्लेषण बेहद सटीक व तथ्यपरक हुआ करता था.

देशबन्धु से अलग होने के बावजूद मैं उनका नियमित पाठक था. बीच-बीच में फोन पर अपनी प्रतिक्रिया देता. वे बोलते कुछ नहीं थे पर उनकी आवाज में प्रसन्नता का पुट बखूबी महसूस होता था. प्रसन्नता मुझे भी होती थी जब वे मेरे लिखे की तारीफ करते हालांकि ऐसे अवसर कम ही आते थे पर मुझे इस बात का संतोष रहता था कि वे भी मेरे पाठक हैं.

ललित जी ने खूब लिखा. अपने अखबार में नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के अलावा राजनीतिक टिप्पणियां, देशबन्धु के अब तक के प्रवास पर संस्मरण श्रृंखला. वे अच्छे कवि, लेखक, निबंधकार व यात्रा वृत्तांती भी थे. उन्होंने अपने प्रिय कवि गजानन माधव मुक्तिबोध जी पर भी समीक्षात्मक लेख लिखे.


पिछले ही महीने दिल्ली में बीमारी के दौरान उन्होंने फेसबुक पर वह जवाबी पत्र पोस्ट किया, जो पिताजी ने सन 1961 में उन्हें लिखा था. उसे उन्होंने अमूल्य धरोहर बताया. अपने अंतिम दिनों में फेसबुक पर उन्हें कविताएं पढ़ते देखना-सुनना इस बात का संकेत था कि वे मानसिक रूप से बहुत मजबूत हैं तथा भयानक बीमारी कैंसर से लड़कर स्वस्थ हो रहे हैं लेकिन कविताओं से बेहद नजदीकियों के बावजूद शायद उन्हें इस बात का मलाल था कि हिंदी जगत में उन्हें कवि-लेखक के रूप में वैसे स्वीकार नहीं किया, जिसके वे हकदार थे. हालांकि प्रखर पत्रकार के रूप में देशभर में उनकी विशिष्ट पहचान थी. पत्रकार तो वे अद्वितीय थे ही, कवि भी उतने ही महत्त्वपूर्ण. हालांकि उनके साहित्यिक पक्ष का वास्तविक मूल्यांकन अभी होना शेष है.

विषयांतर के साथ एक अंतिम बात. छत्तीसगढ़ छोटा राज्य है पर प्रतिभाओं का विराट आकाश इस धरती पर मौजूद है, प्रत्येक क्षेत्र में मौजूद है. कला, साहित्य, संस्कृति के मामले में देश-दुनिया में इस राज्य की पहचान है. लेकिन अपनों को अपनाने में, उन्हें सम्मान देने में सत्ता प्रतिष्ठान गरीब है.

क्या कारण है कि ललित जी जैसा समर्थ पत्रकार कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय का कुलपति नहीं बन सका, जबकि उसकी स्थापना हुए पन्द्रह वर्ष बीत चुके हैं. देश के बहुत बडे कवि व उपन्यासकार विनोद कुमार शुक्ल अब तक भारत सरकार के राष्ट्रीय अलंकरण से वंचित क्यों हैं ?

विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे अनेक कलावंत हैं, जिनकी प्रतिभा को नया आकाश मिलना चाहिए. यहां बात क्षेत्रीयतावाद की नहीं है, यकीनन विद्वत्ता को इसके दायरे में नहीं बांधा जा सकता लेकिन यदि राज्य में प्रतिभाएँ मौजूद हैं तो चयन में प्राथमिकता उन्हें मिलनी चाहिए. यह सरकार का दायित्व है. इसके लिए बेहतर समझ व इच्छा-शक्ति होनी चाहिए, सत्ता भले ही किसी भी राजनीतिक पार्टी की हो.

पन्द्रह वर्षों तक राज्य में भाजपा का शासन रहा, पत्रकारिता विश्वविद्यालय भी उसी ने शुरू किया. कितना अच्छा होता यदि इस विश्वविद्यालय के पहले कुलपति का सम्मान यहां के किसी वरिष्ठ व नामचीन पत्रकार को मिलता. वे ललित सुरजन हो सकते थे या गोविंद लाल वोरा, बबन प्रसाद मिश्र ,राजनारायण मिश्र या बसंत कुमार तिवारी. बहुत से नाम हैं जिन्होंने जीवन संघर्ष में तपकर पत्रकारिता को नया आयाम दिया है. नई उचाइयां दी हैं. पर यह नहीं हो सका. ललित जी केवल विश्वविद्यालयों की कार्य परिषद के सदस्य बनकर रह गये. चूंकि अब राज्य में कांग्रेस की सरकार है अतः उम्मीद की जा सकती है कि इन क्षेत्रों में बहुत बेहतर काम होगा तथा योग्य व्यक्ति ही सम्मानित होंगे.

(ललित जी पर बस इतना ही. दरअसल इसी वर्ष 25 जुलाई को वरिष्ठ पत्रकारों पर केंद्रित स्मरण श्रृंखला ‘कुछ यादें कुछ बातें’ में उन पर विस्तृत लेख प्रकाशित है. शुरुआत उन्हीं से की गई थी, जिसे ब्लॉग पर देखा जा सकता है.)

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