मुक्तिबोध: ना कोई पूर्वज ना कोई वंशज
हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि गजानन माधव मुक्तिबोध को गुजरे 50 साल होने को आये. 11 सितंबर 1964 को उन्होंने दिल्ली के एक अस्पताल में अंतिम सांस ली थी. राजनांदगांव के मुक्तिबोध पूरी दुनिया में हिंदी कविता की सबसे बड़ी पहचान के रुप में दर्ज हैं. यहां देशकाल में शीर्ष कवि अशोक वाजपेयी ने उन्हें याद किया है.
अशोक वाजपेयी
बड़े लेखक के सामने एक समस्या नहीं होती, अनेक समस्याएं होती हैं. यह स्थिति मुक्तिबोध की भी है. समस्या की बहुलता एक स्तर पर छायावादी भाषा संस्कार की थी ,उस समय के जो छायावादोत्तर कवि कहलाते हैं, बच्चन,दिनकर इत्यादि इनसे अलग भाषा संस्कार की तलाश थी. दूसरी समस्या यह थी कि कैसे एक ऐसी कविता लिखी जाए जिसमें सामाजिक और निजी का जो द्वैत है ,उसे लांघा जा सके. मुझे लगता है जो मुक्तिबोध की कविता का सबसे जरूरी पक्ष है अपने समय में अंत:करण के आयतन को संक्षिप्त होने से बचाने की कोशिश.
मुक्तिबोध एक भविष्यवक्ता -कवि हो गए, बिना ऐसा होने की आकांक्षा लिए. मुक्तिबोध ने जिस तरह की शक्तियों की सत्ता का बखान किया वह न सिर्फ उस दौर में बल्कि आपातकाल के दौर में भी नजर आई और आज भी यह समस्या है. मुझे लग रहा है कि मुक्तिबोध के दौर में जो समस्याएं थीं वे बनी हुई हैं.
नीतिहीनता को देखते हुए सामाजिक अन्त :करण का प्रश्न केन्द्रीय प्रश्न हो उठा है. बड़ा कवि अन्तर्विरोधों से बना होता है, उसको पढ़ने-समझने के भी कई अन्तर्विरोध होते हैं. किसी बड़े कवि को विचारदृष्टियों के अनुसार घटाया बढ़ाया नहीं जा सकता. हम सभी मानते हैं कि निराला बड़े कवि हैं,कबीर बड़े कवि हैं,तुलसी बडे कवि हैं, इन सभी के अलग अलग पाठ हैं. मैं नहीं समझता किसी बड़े कवि को किसी एक विचारदृष्टि या जीवनदृष्टि में घटाया जा सकता है.
मैंने मुक्तिबोध पर संभवत: पहला आलोचनात्मक निबंध 1965-66 में लिखा था,’भयानक खबर की कविता’ शीर्षक से यह निबंध ‘फिलहाल’ पत्रिका में छपा भी है. यह पहले मैंने ही लिखा मुक्तिबोध पर किसी अन्य ने नहीं. मैंने मुक्तिबोध की कविता को भयानक खबर की कविता कहा था, जो अपने समय के भयानक चेहरे और भयानक सवालों को उदघाटित करती है, और अभी भी कर रही है.
मैं मुक्तिबोध से जिन लोगों से घनिष्ठ परिचय हुआ था, उनमें सबसे छोटा था. मैंने मुक्तिबोध को जानना शुरू किया तब मेरी उम्र 17 साल की थी और जब मेरी उम्र 23 साल की थी तो मुक्तिबोध की मृत्यु् हो गई. मेरा उनसे परिचय मात्र 6 साल का था. मुक्तिबोध की ‘अंधेरे में ‘ कविता को यूरोप में टीएस इलियट की जो ‘वेस्टलैण्ड्’ क्लासिक है ,उस तरह का क्लासिक है ‘अंधेरे में’, यह कहने वाला मैं पहला व्यक्ति था.
मैंने अपने एक पत्र में जो उनके बेटे ने ‘मेरे युवजन मेरे परिजन’ नाम से मुक्तिबोध को लिखे गए पत्रों का जो संकलन किया, उसमें वह पत्र है. जिसमें मैंने मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ को ‘वैस्ट लैंड ‘ की तरह की क्लासिक कविता कहा था. आश्चर्य है कि मुक्तिबोध ने सारे लोगों के पत्र संभालकर रखे थे. खुद अपनी कविता को संभाल कर रखते नहीं थे परन्तु पत्र संभाल कर रखे थे. यह 1960 की बात है जबकि यह कविता प्रकाशित हुई है 1964 में मुक्तिबोध की मृत्यु के बाद. इतनी लंबी कविता थी यह कि इसको छापने में लोगों ने अपनी-अपनी असुविधाएं बतायीं.
दूसरी बात यह कि 1957-58 से जब मैं मुक्तिबोध से मिला था, जिन कवियों और लेखकों को बड़ा मानता आया हूँ, उनमें मुक्तिबोध एक हैं. मुक्तिबोध अपने जीवन भर आश्विस्त नहीं थे कि वे बड़े लेखक हैं, हम ही कुछ लोग थे जो उन्हें बड़ा लेखक मानते थे.
मुक्तिबोध की पुस्तक ‘चांद का मुँह टेढ़ा है’ प्रकाशित हुई तो उसकी तरतीम मैंने की थी, संपादन श्रीकांत वर्मा का था. वह पुस्तक ‘भूल गलती’ कविता से शुरू होकर कैसी बनेगी, इसमें नेमीजी के निर्देशन में और श्रीकांतजी की मदद से मैंने काम किया था.
मैं मध्यप्रदेश लौट गया तो 1974 में मुक्तिबोध फैलोशिप स्थापित की थी, यह पहली बार विनोद कुमार शुक्ल को ”नौकर की कमीज” पुस्तक के लिए दी गयी. अमृता शेरगिल, उस्ताद अल्लाउद्दीन खान फैलोशिप मुक्तिबोध फैलोशिप के साथ शुरू की गई. 1976-77 में पूर्वग्रह के दो आरंभिक विशेषांक मुक्तिबोध पर केन्द्रित हैं,1980 में मुक्तिबोध रचनावली प्रकाशित हुई. इसकी 11 सौ प्रतियों का आर्डर मध्यप्रदेश सरकार की तरफ से दिया गया. 1980 में मणिकौल ने ‘सतह से उठताआदमी’ पर फिल्म बनायी, उसके लिए आर्थिक इंतजाम मैंने किया.
मेरा मानना है कि मुक्तिबोध को मार्क्सवादियों ने लपक लिया. मैं उनका प्रिय शिष्य रहा हूँ. एक शिष्य को जो करना चाहिए, वह मैंने किया. मुक्तिबोध की रचनाओं पर बर्गसां का असर है. यह भी सच है कि मुक्तिबोध पर मार्क्सवाद का भी गहरा प्रभाव है लेकिन वो मार्क्सवाद का अतिक्रमण करने वाले कवि हैं. बड़ा कवि एक विचार या दृष्टि से बंधकर कभी रह नहीं सकता, मैं समझता हूँ कि उनकी अपनी दृष्टि है, जिसे मुक्तिबोधीय दृष्टि कह सकते हैं.
बड़े लेखक की एक दृष्टि होती है. इस दृष्टि को हम मोटे सामान्यीकरण और वाद में बांध नहीं सकते. मुक्तिबोध पर बहुत सारे लोगों का प्रभाव था, गांधी का भी प्रभाव था. आरंभ में तो गांधीवादी ही थे, मार्क्सवादी बने नेमीजी के प्रभाव से शुजालपुर में, जब दोनों ने साथ काम करना आरंभ किया. उनकी ‘अंधेरे में’ कविता में तिलक,गांधी और तॉल्सटॉय आते हैं और तीनों मार्क्सवादी नहीं हैं, इसलिए शुद्ध मार्क्सवाद-मार्क्सवाद चिल्लाने से ध्यान से मुक्तिबोध की कविता पढ़ने से बचना है.
मार्क्सवाद का एक आधार मिल गया और मुक्तिबोध में पांच गुण खोज लिए. ऐसे गुण तो बहुत से गैर मार्क्सवादियों में भी मिल जाते हैं, बस आपकी हिम्मत हो, पाठ कुपाठ करने की. यह एक तरह से मुक्तिाबोध का मार्क्सवादी अवमूल्यन है क्योंकि मुक्तिबोध उससे बड़े कवि हैं. मैं समझता हूँ कि मुक्तिबोध की सबसे बड़ी विशेषता है कि उनका न कोई पूर्वज है और न कोई वंशज है.
मुक्तिबोध पूरे हिन्दी साहित्य में गोत्रहीन निरबंसिया हैं. प्रसाद से उनकी होड़ थी और प्रसाद उनके मॉडल भी थे, लेकिन उन्होंने मार्क्सवादियों के प्रात: स्मरणीय निराला पर एक पंक्ति नहीं लिखी, प्रसाद पर पूरी पुस्तक ही लिख दी.
मुक्तिबोध की तरह की कविता लिखने की किसी ने कोशिश भी नहीं की है. उनका नाम अपने को वैध घोषित करने को लिया जाता है. मुक्तिबोध की कविता में आत्म बहुत बार आता है, अन्तरआत्मा,अन्त:करण आदि के रूप में.
मुक्तिबोध की कविता में साहचर्य की बात बार-बार आती है. हिन्दी के आधुनिक काल के तमाम कवियों के बीच आत्मवियोगी कवि हैं. मुक्तिबोध की कविता में मनुष्य का पूरा अन्तरलोक है. मनुष्य की चिन्ताएं मुक्तिबोध की चिन्ताएं हैं, यहां हम बर्गसां की चिन्ताएं भी देख सकते हैं.
दृढ़ व्यक्तित्व मुक्तिबोध के चिन्तन के केन्द्र में है. जहां तक आज के हिन्दी समाज और लेखकों की बात है तो आज हिन्दी समाज लेखकों के लिए एक क्रूर असंवेदनशील ओर पुस्तकों से मुँह फेरे हुए लोगों का समाज है.
मुक्तिबोध की बीड़ी पीते हुए जो तस्वीर है, वह तस्वीर 60-62 की होगी. उनकी कविता में भी कई बार बीड़ी पीते हुए नायक की छवि आती है. इस तस्वीर में एक तरह का निपट मध्यवर्गीय भाव है दूसरे स्तर पर मुक्तिबोध का हड्डियों से भरा चेहरा, जीवन की भी झलक देता है.
‘चॉंद का मुँह टेढ़ा है’ का शीर्षक आरंभ में मुक्तिबोध ने ‘सहर्ष स्वीकार’ किया था, बाद में श्रीकांत वर्मा, नेमीजी और मैंने मुक्तिबोध की दो काव्य पंक्तियों को उनके काव्य संग्रह के शीर्षक के रूप में चुना- डूबता चाँद कब डूबेगा और चॉंद का मुँह टेढ़ा है. यह चित्र उस चॉंद के टेढ़े मुँह को देखने की ताव देने वाला है. उस समय यह साहस किसी में नहीं था.
माध्यम को मुक्तिबोध जरूरी मानते थे और हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की कोशिश भी की. उनके समय में प्रिंट मीडिया ही था, उसी के संदर्भ में अभिव्यक्तियों के खतरों की बात की है.
नए लेखकों के लिए मुक्तिबोध की सीख है कि अकेलेपन से घबराना नहीं चाहिए.