Columnist

श्रम कानूनों में बदलाव के मायने

बादल सरोज
श्रम कानूनों में बदलाव दरअसल पूँजी का चारा और मुनाफे की खाद है. 8 नवम्बर को नोटबंदी के लाइव टेलीकास्ट एलान के ठीक पहले एक और बड़ा काम मोदी सरकार चुपके से ही कर चुकी थी. 4 नवम्बर को एक ऐसी प्रयोजना सूचना जारी कर दी गयी थी, जिसके असर देश की पूरी श्रमशक्ति की असुरक्षा को बढ़ाने वाले साबित होने वाले हैं. अब इसे एकतरफा तरीके से अधिसूचित कर दिया गया है. सरकार ने एक झटके से कृषि एवं गैर-कृषि क्षेत्रों में लगभग 5.85 करोड़ प्रतिष्ठानों के श्रम रजिस्टरों के रखरखाव कार्य को सरल बनाने के नाम पर इनकी संख्या मौजूदा 56 से काफी घटकर केवल 5 रजिस्टर कर दी. ये वे रजिस्टर हैं जिनमे कर्मचारियों, उनके वेतन, ऋणों/वसूली, हाजिरी इत्यादि का विवरण रखा जाता है.

सरकार का दावा है कि “इससे इन प्रतिष्ठानों को अपनी लागत एवं प्रयासों में कमी करने में मदद मिलेगी और इसके साथ ही श्रम कानूनों का बेहतर अनुपालन भी सुनिश्चित होगा.” कैसे? इस बारे में वे कुछ नहीं बताते. पूछा भी नहीं जा सकता क्योंकि इन दिनों पूछने का मतलब है राष्ट्रद्रोह, पूछने वाला देशद्रोही.

बहरहाल तर्क को ही लें तो यह बिलकुल वैसा ही जैसे अगर घर के आधे लोग कम हो जाएँ तो छोटा मकान बड़ा हो जाएगा और अभी जो रोटियां कम पड़ती हैं वे काफी पड़ने लगेंगी. जिन्हें नौकरी या मजदूरी करने का अनुभव नहीं हैं वे ही इस सफाई पर यकीन कर सकते हैं. जिन्हें श्रमिकों की दुर्दशा में आनन्द मिलता है, वे सैडिस्ट ही यातनाओं को दूरगामी स्थायित्व देने वाले इस खतरनाक संशोधन से प्रसन्न हो सकते हैं.

मौजूदा सरकार संसदीय निगरानी से बचने के लिए संसद से उसका बुनियादी काम- क़ानून बनाने का काम – ही नहीं छीन रही, नौकरशाही (पढ़े: कारपोरेट) को इतने अबाधित अधिकार सौंपे दे रही है कि अंततः लोकतंत्र और संविधान ही हाशिये पर दिखावटी सज्जा बन कर रह जाएगा. श्रम क़ानून संसद बनाती है, नौकरशाही सामान्यतः उनके नियम और अधिसूचनाएं तैयार करती है. श्रमिक, सेवा और नियोजन से जुड़े रिकॉर्ड रखा जाना श्रम कानूनों को व्यवहार में उतारने के लिए बनाये गए नियमों का हिस्सा है. बिना नियमों के श्रम क़ानून एक फिजूल का शाब्दिक समुच्चय भर बन कर रह जाने वाले हैं. न लीपने के न पोतने के.

सरकारी घोषणा कि “अब रजिस्टर 56 से घटकर सिर्फ 5 रह जाएंगे” से ऐसा आभास होता है जैसे कल्लू कबाड़ी से लेकर रहमत मिस्त्री तक हर छोटे बड़े संस्थान को उतने सारे रजिस्टर रखने होते थे, जिनमे 933 डाटा फील्ड भरनी होती थी, वे अब घटकर 144 रह जाएंगी. असल में होगा यह कि 95 फीसद से ज्यादा संस्थान किसी भी तरह का रजिस्टर न रखने की छूट पा जाने वाले हैं. इनमे बिजली, इस्पात, कोयले सहित बड़े उद्योग तथा बाकी जगह ठेके पर मजदूर रखने वाली देसी विदेशी कारपोरेट कंपनियां, बैंकों सहित सरकारी महकमों में लगे अस्थायी कर्मचारी सहित उनके बाहर खड़े सिक्योरिटी वाले भी शामिल हैं.

यह परिवर्तन कल्लू कबाड़ियों या मिस्त्रियों के लिए नहीं. श्रम कानूनों को पूरी तरह खत्म करवाने की शर्त के साथ निवेश लाने का झांसा दे रहे कार्पोरेट्स के लिए है. इसमें लिखी कृषि को मंगूराम की 7 एकड़ की खेती समझना भूल होगा. यह रियायत हजारों एकड़ की कारपोरेट फार्मिंग और इस बजट में वर्णित ‘सामूहिक खेती’ के नवउदार ‘किसानों’ के लिए है.

हाल में घटी कोयला दुर्घटनाओं के ब्यौरे को ही थोड़ा बारीकी से देख लें तो जो आम रुझान दिखता है वह यह है कि काम पर लगाए जाने ज्यादातर श्रमिकों का नाम तक नहीं लिखा जा रहा है. ऐसे में यह छूट और काँटछांट अब औद्योगिक और कृषि नियोजको/मालिकों को चारा काटने की ऐसी अनियंत्रित मशीन सौंपने जा रही है जिसमे कटने वाले मनुष्य अब संख्या भी नहीं होंगे. बस निवेश का चारा और मुनाफे की खाद बन कर रह जाएंगे.

आज तक एक भी श्रम क़ानून किसी कल्याणकारी राज्य या राजनेता की दया से नहीं बना. हर श्रम क़ानून उसे हासिल करने की जद्दोजहद में बहाये गए मजदूर के रक्त की स्याही से उसी की हड्डी को कलम बनाकर, उसकी चर्बी की रोशनी में लिखा गया है. आज़ादी की लड़ाई के हिस्से के रूप में लड़ा और जीता गया है. भगतसिंह और दत्त ने असेम्बली में बम फैंकने का दिन, जिस दिन ट्रेड डिस्प्यूट बिल और पब्लिक सेफ्टी बिल रखा जा रहा था, ऐसे ही नहीं चुना था. उनसे लेकर डॉ. अम्बेडकर तक सामाजिक न्याय और इंसानी बर्ताब के प्रत्येक हामी ने श्रमिक विधियों को अपनी चिंता में प्राथमिकता दी. इस तरह के मनमाने परिवर्तन दरअसल उस विरासत पर हमला है, जिसमें आज की सत्ता पार्टी का हिस्सा नैनोमिलीग्राम भी नहीं है.

आखिर में यह कि सिर्फ स्वस्थ, सुरक्षित और लोकतांत्रिक व कानूनी अधिकारों के प्रति जागरूक, स्वतंत्रचेता श्रमिक ही बेहतर कौशल के साथ उत्पादन और श्रम का निर्वाह करता है. जो औद्योगिक विकास का ताजमहल बेड़ियों में बंधी श्रमशक्ति के दम पर खड़ा करने का शेखचिल्ली ख्वाब देख रहे हैं वे बाकी तो छोड़िये, पूँजीवाद के बारे में भी कुछ नहीं जानते. उनका पराभव तय है.

उदारीकरण की चौथाई सदी गुजर गयी, ऐसे एक भी देश का नाम इसके पुरोधाओं के पास नहीं हैं जहां श्रम कानूनों में क़तरब्यौन्त के बाद दो डॉलर का भी नया निवेश हुआ हो. अलबत्ता इसके उलट उदाहरण अनगिनत हैं.

error: Content is protected !!