मीडिया, पत्रकारिता जगत और आरएसएस भाजपा की ताकत
आलोक वाजपेयी | फेसबुक
ज्यादातर गैर भाजपाई दल,खासकर कांग्रेस समझती है कि अगर मीडिया निष्पक्ष हो जाए और खुलकर सच लिखने लगे तो वे आसानी से आरएसएस भाजपा को हरा सकते हैं. मेरी समझ से यह सही तथ्य नहीं है और केवल बुनियादी राजनीति से बचने का एक तर्क है.
दुनिया भर के विद्वानों में मीडिया की प्रकृति को लेकर एक सहमति मूलक समझ है कि मीडिया के भरोसे अपनी राजनीति को नही छोड़ा जा सकता. मीडिया मात्र एक जरिया भर है राजनीतिक प्रचार का और यह निर्णायक नही है. निर्णायक है बुनियादी राजनीतिक गतिविधियां और कार्यक्रम और उसमे मीडिया के तमाम रूप एक छोटा सा जरिया भर हैं.
आरएसएस भाजपा की ताकत उसका संगठन है. देश भर में और अब तो गांव गांव तक फैला हुआ उसका सांगठिक ढांचा. आप सार्वजनिक जीवन का कोई हिस्सा उठा लीजिए, आपको आरएसएस भाजपा के प्रतिबद्ध कार्यकर्ता मिल जायेंगे जो वैचारिक धरातल पर जनता से जुड़ने के लिए लगातार सक्रिय रहेंगे.
यह एक कैडर आधारित संगठन है जिसने राज सत्ता का भरपूर इस्तेमाल अपने संगठनिक विस्तार के लिए किया है. देश भर में फैले इसके स्कूल वह प्राथमिक पाठशाला हैं जहां से आरएसएस अपने मूल वैचारिक तर्क दिमागों में एक सॉफ्टवेयर की तरह डालने का काम करता रहा है और कर रहा है.
गैर भाजपाई दल और कांग्रेस इस तरह से बात करते हैं जैसे 2014 से ही आरएसएस भाजपा अस्तित्व में आई हो. आज जो भी आरएसएस भाजपा की बेल हरिया के लहलहा रही है वह पिछले कुछ दशकों की उनकी राजनीतिक मेहनत और हमारी राजनीतिक गलतियों का नतीजा है.
इसमें मीडिया का रोल कितना है? 2014 से पहले मीडिया का मूल चरित्र सांप्रदायिक नही था तो क्या सांप्रदायिकता पर रोक लगाई जा सकी? 1950 से अभी कुछ समय पहले तक प्रगतिशील पत्रिकाओं, मीडिया, साहित्य की भरमार हुआ करती थी, तमाम सरकारी व सार्वजनिक संस्थाओं पर गैर आरएसएस के लोग थे लेकिन क्या सांप्रदायिकता विरोधी सोच देश समाज में फैलाई जा सकी?
समस्या मीडिया से अधिक गैर भाजपा दलों खासकर कांग्रेस की बुनियादी राजनीतिक काम पर ध्यान न देने की है. समस्या जमीनी व ठोस लोगों के बजाय बात बहादुरी किस्म की हवा हवाई व कमजोर वैचारिकी के सहारे नैया पार लगाने की सोच की है. समस्या अपने राजनीतिक टूल तैयार करने की है.