प्रसंगवश

अब मीट को लेकर सियासत

मांसाहार-शाकाहार पर सियासत और मानवाधिकार का बहाना, राजनीति किसी भी विषय को कब कैसा रंग दे दे, नहीं मालूम. मांसाहार के नाम पर भी कुछ ऐसा ही हो रहा है. विषय तो स्वविवेक का है, लेकिन धर्म से जोड़कर हल्ला मचाने का जरिया जरूर है इन दिनों.

यह भी सही, किसी भी स्थान का भोजन वहां की भौगोलिक परिस्थितियों पर निर्भर होता है. अब समुद्र तट के लोग मछली, झींगा छोड़ हर रोज शाक-भाजी तो नहीं खाएंगे. सच तो यह है कि मांसाहार किसी धर्म और जाति का मामला है ही नहीं, इसे जोड़ना भी नहीं चाहिए. कई जातियों में तो पूजा-पाठ के बाद पशु बलि और शराब के प्रसाद चढ़ाने का चलन है तो इसे क्या कहेंगे?

कई जाति के लोग मांसाहारी वर्ग के बावजूद प्याज-लहसुन तक नहीं खाते. हिन्दू, जैन को तो छोड़िए, मुसलमानों की भी बड़ी संख्या है जो अंडा तो दूर, प्याज-लहसुन तक नहीं खाते, यानी विशुद्ध शाकाहारी. बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि खाने और न खाने के विषय भी अब अदालतें तय करेंगी.

एक ओर विकासशील देश होने और दुनिया का सिरमौर बनने की बात करते हैं, वहीं दूसरी ओर आहार को लेकर बहस में समय गंवाते हैं? आचार-विचार की सोचते तक नहीं. लगता नहीं कि यह विषय गौण है, अहम अमन और तरक्की की बात हो.

जैन धर्म के पर्यूषण पर्व के चलते मुंबई में मीट की बिक्री पर पहले 4 दिन, फिर 8 दिन, अहमदाबाद नगरपालिका, राजस्थान और जम्मू-कश्मीर में 3 अलग-अलग दिनों के लिए रोक लगाई गई है, जिसको लेकर खूब बवाल हो रहा है. छत्तीसगढ़ में भी पहले 8 उसके बाद 2 दिनों के लिये इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया है.

एक हकीकत यह भी कि जो स्वयं स्वीकार्य परंपरा है, सावन के पूरे महीने महाराष्ट्र में हिन्दू धर्मावलंबी मीट नहीं खाते. मीट खाने या न खाने को लेकर भले ही वैज्ञानिक तर्क हों कि सावन में समुद्री जीव-जंतुओं का प्रजनन काल होता है, अत: परहेज हो. बहुत लोग हैं जो सोमवार, मंगलवार, गुरुवार या विभिन्न पर्व तिथियों पर मास नहीं खाते, कुछ तो सप्ताह में एक दिन नमक से भी परहेज करते हैं. इसके पीछे धार्मिक कारण भले ही गिनाए जाएं, लेकिन स्वास्थ्य संबंधी वैज्ञानिक आधार भी एक हकीकत है.

एक सच यह भी है कि राजनीति और धर्म एक-दूसरे से अछूते नहीं हैं, लेकिन खान-पान को लेकर राज्य का हस्तक्षेप भी ठीक नहीं. लगता नहीं कि हस्तक्षेप कर मामले को उलझा दिया गया है?

पर्व, तीज, त्योहार हर वर्ष आते हैं, आते भी रहेंगे, लेकिन उनको लेकर मीट पर प्रतिबंधों की हिदायतें क्या सही हैं? विषय वाद-विवाद का नहीं पर बना जरूर दिया गया. कभी गौमीट को लेकर बेवजह के बयान सामने आते हैं तो अब पर्वो के नाम, मीट बिक्री का सरकारी प्रतिबंध, कितना न्यायोचित लगता है यह सब?

देश के तमाम छोटे-बड़े शहरों, कस्बों यहां तक गांवों में भी मीट-मदिरा की दुकानें देवालयों के पास या भीड़ भरे आम रास्तों पर हर रोज स्थायी रूप से लगती हैं, स्पष्ट कानून के बावजूद सड़कों और बीच बाजार में खुले में मीट बिकता है. क्या 3 या 4 दिन के प्रतिबंध से सब ठीक हो जाएगा? फिर ऐसा कुछ क्या हुआ जो ठीक करने की जरूरत आन पड़ी?

कुछ राज्य सरकारों, महानगर पालिकाओं ने पर्व विशेष की आड़ में मीट बिक्री पर रोक क्यों लगाई, वही जानें, पर इतना जरूर है कि बैठे-बिठाए एक नया विषय जरूर गर्म है जो अप्रासंगिक, अव्यावहारिक और बेवजह की फसाद के जरिए से कम नहीं.

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