लखनऊ ने गोमती को मार डाला
वास्को-द-गामा | इंडिया साइंस वायर: करीब दो दशक से लखनऊ के निरंतर बढ़ते शहरीकरण का असर गोमती नदी पर भी पड़ रहा है और इसका पानी अब मानवीय उपभोग लायक नहीं बचा है. गोमती नदी के जल-गुणवत्ता सूचकांक के विश्लेषण के आधार पर लखनऊ विश्वविद्यालय और बाराबंकी स्थित रामस्वरूप मेमोरियल विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने यह खुलासा किया है.
अध्ययनकर्ताओं के अनुसार गोमती नदी के पानी का औसत जल-गुणवत्ता सूचकांक 69.5 पाया गया है. लखनऊ के प्रवेशद्वार पर गोमती का जल-गुणवत्ता सूचकांक 42.9 है और वहां पानी की गुणवत्ता बेहतर पायी गई है. लखनऊ से होकर गुजरने के बाद शहर के अंतिम छोर पर गोमती नदी का जल-गुणवत्ता सूचकांक 101.9 पाया गया है.
सतह जल और भूजल गुणवत्ता मानकों के बीच संबंध का पता लगाने के लिए लखनऊ के आठ अलग-अलग स्थानों से गोमती नदी और उसके आसपास केछहस्थानों से भूजल के नमूने इकठ्ठे किए गए हैं.जल के पीएच मान, चालकता, नाइट्रेट, फ्लोराइड, घुलित ऑक्सीजन (डीओ), जैविक ऑक्सीजन मांग (बीओडी), फॉस्फेट और कुल कोलीफोर्म बैक्टीरिया को केंद्र में रखकर नमूनों का विश्लेषण किया गया है.
जल-गुणवत्ता सूचकांक नदी के पानी की खराब गुणवत्ता का सूचक है. यह सूचकांक जल के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुणधर्मों के आधार पर उसके समुचित उपयोग को दृष्टिगत रखते हुए निर्धारित किया जाता है.
अध्ययन से प्राप्त आंकड़े दर्शाते हैं कि लखनऊ में प्रवेश करते ही शहर से निकले नदी में सीधे प्रवाहित होने से गोमती का जल प्रदूषित होने लगता है. शहर के मध्य में इसका जल-गुणवत्ता सूचकांक लगभग 75.9 पाया गया है,जो बेहद खराब माना जाता है. वैज्ञानिकों का कहना है कि ऐसे जल का उपयोग पीने के लिए नहीं किया जा सकता. भूजल की गुणवत्ता के लिए भी प्रदूषण की समान प्रवृत्ति देखी गई है.
अध्ययन में पाया गया है कि शहर में प्रवेश करने से पूर्व गोमती के जल में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा 11 मिलीग्राम प्रति लीटर थी, जो शहर से बाहर निकलते समय मात्र 1 मिलीग्राम प्रति लीटर रह गई.
गोमती के प्रवेश-स्थल पर जहां जल में कुल कोलीफार्म अर्थात मल-कोलीफार्म जीवाणुओं की सर्वाधिक संभावित संख्या 1700 एमपीएन प्रति 100 मिलीलीटर आंकी गई थी, वहीं गोमती के अंतिम छोर पर बढ़कर यह एक लाख तीस हजार एमपीएन प्रति 100 मिलीलीटर दर्ज की गई है. भूजल में भी नाइट्रेट की मात्रा प्रारंभिक स्थल पर 1.3 पीपीएम थी, जो बढ़कर अंतिम स्थल पर 39.5 पीपीएम आंकी गई. वहीं, भूजल में फ्लोराइड भी 0.431 से बढ़कर 1.460 पीपीएम दर्ज किया गया.
इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि गोमती के प्रदूषित होने से इस नदी और आसपास के इलाकों के भूजल की गुणवत्ता भी प्रभावित हो रही है. हालांकि, लखनऊ में पीने और अन्य घरेलू उपयोग के लिए प्रयुक्त 415 एमएलडी (मिलियन लीटर प्रति दिन) जल की आपूर्ति के लिए 245 एमएलडी जल गोमती नदी से और 170 एमएलडी जल भूजल स्रोतों से प्राप्त किया जा रहा है.
अध्ययन में शामिल वैज्ञानिक डॉ. अभिषेक सक्सेना ने बताया कि “गोमती नदी के लखनऊ शहर में प्रवेश करने और बाहर निकलने के बीच उसके प्रवाह मार्ग पर शहरीकरण की विभिन्न प्रक्रियाओं द्वारा प्रतिकूल असर पड़ता है.एक समय था, जब गोमती भूजल से जल लेती थी. जबकि, इस समय गोमती का प्रदूषित जल रिसते हुए भूजल को रिचार्ज कर रहा है.शहर की बढ़ती आबादी द्वारा भूजल के अत्यधिक दोहन से गिरते भूजलस्तर दोबारा संतुलित करने के लिए गोमती का प्रदूषित जल वहां रिसकर पहुंच रहा है. यह शोचनीय स्थिति है, क्योंकि भूजलप्रकृति में निरंतर गतिशील है और यदि खराब गुणवत्ता वाले जल के रिसाव के कारण भूजल संसाधनों के प्रदूषित होने की संभावना बढ़ जाती है.”
डॉ. सक्सेना के अनुसार “नदी में सीवेज के सीधे प्रवाह को रोकने के लिए त्वरित उपाय किए जाने चाहिए. नदी के प्राकृतिक प्रवाह को भी बनाए रखना जरूरी है,क्योंकिप्रत्येक नदी की अपनी आत्म-शुद्धि प्रणाली होती है,जिसमें कृत्रिम प्रयासों की आवश्यकता नहीं पड़ती.”
अध्ययन में शामिल एक अन्य शोधकर्ता डॉ पूजा गोयल के अनुसार “यह शोध सीधे तौर पर तेजी से बढ़तेशहरीकरण के प्रतिकूल प्रभाव को दर्शाता है. बढ़ती आबादी के साथजल सहित विभिन्न प्राकृतिक संसाधनों की मांग में वृद्धि ने विकराल रूप ले लिया है. यदि हम संसाधनों के उपयोग के प्रति संवेदनशील नहीं होते हैं, तो निकट भविष्य में गुणवत्तापूर्णभूजल के लिए भीगंभीर संकट का सामना करना पड़ सकता है.”
शोधकर्ताओं के अनुसार “गोमती के प्रदूषण में सबसे अधिक योगदान देने वाले क्षेत्रों की पहचान करने और इस निपटने के लिए कारगर रणनीति बनाने में यह अध्ययन मददगार हो सकता है.गोमती के प्रदूषण के स्तर और भूजल पर इसके प्रतिकूल प्रभाव को जानने के लिए विस्तृत अध्ययन की आवश्यकता है.”
अध्ययनकर्ताओं में डॉ. अभिषेक सक्सेना और डॉ. पूजा गोयल के अलावा डॉ. ध्रुव सेन सिंह और दीप्ती वर्मा भी शामिल थे. यह शोध हाल ही में शोध पत्रिका करंट साइंस में प्रकाशित किया गया है.