mediocrity से लंबी लड़ाई
डॉ. विक्रम सिंघल
राहुल गाँधी को पिछले कुछ समय से अलग-अलग कामगार वर्गों से मिलते देख कुछ अजीब लग रहा है. भारतीय लोकतंत्र में समुदाय या सामुदायिक चेतना का आधार धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्र ही रहे हैं. मज़दूर यूनियन के ज़रिये कुछ हलकों में वर्ग चेतना की भी गुंजाईश दिखाई दी है. मगर अलग-अलग कार्यक्षेत्रों को अलग समुदाय के रूप में पहचानना और उससे राजनीतिक लामबंदी तैयार करने का न तो कोई प्रयास याद आता है और न ही उसकी कोई गुंजाइश दिखती है.
इंदिरा गाँधी ने गरीबी को एक राजनीतिक पहचान में बदला था और वो आज भी स्थापित है और उसे बीपीएल कार्ड के रूप में प्रशासन ने सुदृढ़ किया है. लेकिन राहुल का प्रयास अनूठा है. कभी ट्रक चालकों के साथ तो कभी मोटर मैकेनिक या डिलीवरी बॉयज और सिलाई करने वाली महिलाएं… उनसे अलग-अलग मिलना और उनसे सुनना या उन्हें बोलने के लिए कहना एक नयी राजनीति दिखती है. उन्हें बोलने से पहले खुद को एक नई पहचान देनी पड़ेगी. तभी वो अपनी स्थिति का आंकलन कर सकेंगे और समस्याओं को चिन्हित कर सकेंगे.
सवाल है कि ये नई राजनीतिक लामबंदी कितनी कारगर होगी. प्रियंका गाँधी ने उत्तर-प्रदेश चुनाव से पहले महिला चेतना की कड़ी को मजबूत करने की कोशिश की और बुरी तरह विफल हुईं. तो जब यह देश और उसकी राजनीति की हालत इस तरह के प्रयोगों के लिए उपयुक्त नहीं है और जब चुनाव के लिए एक साल से भी कम वक़्त बचा है, और पूरा विपक्ष सिर्फ उन्हीं की और उम्मीद से देख रहा है, तो वो वक़्त क्यों बर्बाद कर रहे हैं ?
लेकिन काम शायद लंबा है और वर्तमान सत्ता और राजनीति ने अब उससे बच कर निकलने का कोई रास्ता छोड़ा नहीं है. 2013 में जब अन्ना आंदोलन से शुरू हुई कांग्रेस विरोध और मोदी समर्थन की लहर चल रही थी तब राहुल NRMB की बात कर रहे थे. मतलब (नॉट रिच मिडिल क्लास और बीपीएल). यानि वो गुमनाम बहुसंख्यक, जो न तो इंकम टैक्स या संपत्ति के रजिस्टर में दर्ज़ हैं और न ही सरकारी योजनाओं और लाभार्थी रजिस्टर में. ये कहीं दर्ज़ नहीं हैं और शायद इसीलिए इन्होंने आधार कार्ड को भी ख़ुशी से स्वीकार कर लिया.
देश में लगभग 92% लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं और इसमें से यदि खेत मज़दूर या शारीरिक रूप से अक्षम या सामाजिक रूप से बहिष्कृत वर्गों को निकाल दिया जाये तो लगभग पूरा उत्पादक कामगार समाज इसमें शामिल है. इसे हम ‘वर्किंग क्लास’ भी कह सकते हैं.
यही वर्ग सही मायने में देश है. यह अपनी पहचान इस देश के विशाल सामाजिक और आर्थिक तंत्र में खोजता है और उसमें खुद को विलीन कर देना चाहता है. यहाँ अलगाव अभी स्पष्ट नहीं हुआ है और इस वर्ग के पास शिकायत करने के लिए भी वक़्त नहीं है. इसी वर्ग को भाजपा ने ‘एस्पिरेशनल इंडिया’ कहा. ये भावनात्मक रूप से तो सही है क्योंकि इस वर्ग ने अभी तक उम्मीद का दामन छोड़ा नहीं है, लेकिन इसमें इनके काम और ज़रूरतों को पहचान नहीं मिली.
NRMB को भी अपने “मंडल” क्षण का इंतज़ार है. जो शायद धार्मिक बहुसंख्यकवाद के नीचे दब कर रह गई. राहुल गांधी शायद इसे बेहतर समझ रहे हैं.
अपने हालिया भाषण में वो कहते हैं कि लोकतंत्र और उत्पादन में विच्छेद हो गया है. दरअसल इस उत्पादक वर्ग का राजनीति से संपर्क टूटा हुआ है. शहरीकरण ने इसे और भी पेचीदा बना दिया है. यह वर्ग प्रवासी अराजनीतिक वर्ग में तब्दील हो गया है और शायद इसीलिए लोकतंत्र और उत्पादन का संपर्क टूट गया है.
बाज़ार और उपभोक्तावाद ने इसमें राजनीतिक चेतना बनने भी नहीं दिया. विज्ञापन और उस पर आश्रित मीडिया, “पॉपुलर कल्चर” जो ग्लैमर से मूल्यों का निर्धारण करती है, उसने “लाइफ स्टाइल” को ही साध्य बना दिया है.
दरअसल यही ‘mediocrity’ के निर्माण की प्रक्रिया है. mediocrity को विस्तार से डर लगता है, वो सिमटी हुई, सिकुड़ी हुई चेतना है. वो सोशल मीडिया से अपने पोषण के लिए चुनिंदा तथ्य तो ले सकती है पर अनजाने और अनिश्चित सत्य का सामना नहीं करसकती. mediocrity का अनुवाद साधारण, सामान्य या उससे भी खतरनाक “आम आदमी” के रूप में करना गलत है. इसका मतलब होगा कि बहुसंख्यक समाज गतिशील नहीं हो सकता. यदि ऐसा होता तो दुनिया इस तरह न बदलती. नए मानव मूल्यों का निर्माण इस गति से नहीं होता. यही उत्पादक समाज हमेशा से दक्षता के लिए प्रयासरत रहा है.
गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर ने जब शांतिनिकेतन के समक्ष श्रीनिकेतन की स्थापना की तो यही भाव था. एकल चेतना अपने काम और उत्पादन क्षमता से समाज के सामूहिक चेतना का हिस्सा बनता है और उसकी दक्षता का प्रयास ही इस वृहद् मानव चेतना को गति प्रदान करती है. ये दक्षता कला या विज्ञान के अमूर्त ज्ञान तक सीमित नहीं है.
1930 में बापू ने भी चरखा के नए डिज़ाइन और निर्माण की एक प्रतियोगिता रखी थी, जिसमें उस समय 1 लाख रुपयों की पुरस्कार की राशि रखी गयी थी, जो आज लगभग 10-15 करोड़ रुपयों के बराबर होगी. लक्ष्य था इसी उत्पादक समाज को शिथिलता और अविश्वास से निकाल कर उसकी दक्षता के इतिहास का आह्वान करना.
वर्धा के मदन संग्रहालय में उसकी संरक्षक विभा दीदी ने दिखाया था कि सदियों बाद भारतीय कृषि के लिए औज़ारों की रचना में नए प्रयोग आश्रम में किये जा रहे थे. सवाल यहाँ विज्ञान और तकनीक के विकास को रोकने या उसे नकारने का नहीं था. बल्कि उसकी रफ़्तार और दिशा को इस तरह संचालित करने का था कि यह बहुसंख्यक उत्पादक समाज उस रथ पर चढ़ सके.
आज की mediocrity पर आश्रित राजनीति इसका आह्वान नहीं कर सकती और नहीं करना चाहती. वो तो पहचान पर आधारित संशय, भयभीत सीमित चेतना का आह्वान करती है.
यह नयी चेतना, जो काम के गौरव, उसमें हासिल दक्षता पर गर्व और जुटान के निर्माण से ही राजनीति को बदल सकती है. जिसकी उपजाऊ ज़मीन लोकसंस्कृति है.
विजयदान देथा की कहानी “रिजक की मर्यादा” भी इसी गौरव और गर्व की बात करती है. ये हमारे लोक चेतना का आधार है. एक भांड, जिसे व्यवसायों में हीन माना जाता है, उसका अपने व्यवसाय का गौरव और अपने दक्षता के गर्व पर प्राण त्याग देना लोक चेतना के इस पक्ष को परिलक्षित करता है.
अमरीका में भी जॉन हेनरी की लोक कथा प्रचलित है, जिसने अपने हथौड़े से ड्रिल मशीन को हराने में प्राण त्याग दिए थे. कर्म और श्रम की महत्ता को स्थापित करना ही नेतृत्व का सर्वात्तम गुण है. बापू के बाद इस पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया. लोकतंत्र का भविष्य इसी पर टिका हुआ है. राहुल ये जानते हैं, mediocrity से लड़ाई लम्बी होगी.