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कोयले की चाह में अटका लेमरु हाथी रिजर्व

आलोक प्रकाश पुतुल
कोरबा ज़िले की पतुरियाडांड के सरपंच उमेश्वर सिंह आर्मो को 15 जून 2015 को मदनपुर में कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी का वह वादा याद है, जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर आदिवासी और ग्रामसभा नहीं चाहेगी तो इस इलाके में कोयला खनन नहीं होने दिया जायेगा.

अब जबकि राज्य में कांग्रेस पार्टी की सरकार है और कुछ महीने पहले तक राज्य सरकार ने इस इलाके को हाथी अभ्यारण्य में शामिल करने का हवाला दे कर केंद्र को एक के बाद एक चिट्ठियां भेजी हैं. बावजूद इसके, इस इलाके में कोयला खदान के लिए भूमि अधिग्रहण की अधिसूचना केंद्र सरकार द्वारा जारी कर दी गई है.

आर्मो कहते हैं, “हम आदिवासी सरपंचों ने मुख्यमंत्री, राज्यपाल, प्रधानमंत्री को कई-कई बार चिट्ठी भेजी है कि ग्रामसभा यहां कोयला खनन नहीं चाहती लेकिन हमारी आवाज़ कोई नहीं सुन रहा है. कम से कम बेजुबान हाथियों की आवाज़ ही सुन लें, जिनका घर उजाड़ने की तैयारी चल रही है.”

इस साल छत्तीसगढ़ के रायगढ़ ज़िले के छपराडांड में 29 मार्च को एक हाथी का शव मिलने के साथ ही राज्य में 2020-21 में मरने वाले हाथियों की संख्या 18 हो गई है. राज्य के वन विभाग के अनुसार पिछले 20 सालों में छत्तीसगढ़ में इतनी बड़ी संख्या में हाथियों की मौत कभी नहीं हुई थी.

कोयला खदान वाले इलाके में इस हाथी की मौत के साथ ही यह सवाल फिर से उभरने लगा है कि क्या छत्तीसगढ़ में हाथियों के लिए 15 साल से लंबित लेमरू हाथी अभ्यारण्य कभी आकार ले पायेगा या कोयला खदानों के कारण भटकते हुये ये हाथी मारे जाने को अभिशप्त ही रहेंगे?

इस हाथी की मौत ऐसे समय में हुई है, जब चार दिन पहले ही केंद्र सरकार ने छत्तीसगढ़ की 18 कोयला खदानों समेत कुल 67 कोयला खदानों की नीलामी की घोषणा की है. उन इलाकों में भी लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरु की जा रही है, जिस इलाके को छत्तीसगढ़ सरकार ने हाथियों की बढ़ती संख्या के कारण लेमरू हाथी अभ्यारण्य में शामिल करने की योजना बनाई है.

राज्य भर में पर्यावरण और आदिवासी मुद्दों पर काम करने वाले संगठनों के समूह, छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के आलोक शुक्ला का कहना है कि कोयला खदानों के लोभ में जंगलों से हाथी बेदखल किये जा रहे हैं. कई सालों से लंबित जिस लेमरू हाथी अभ्यारण्य पर मुहर लगाने की बात कही थी, वह भी खटाई में पड़ता नज़र आ रहा है.

हसदेव अरण्य जंगल: कोयले का खदान और हाथियों का घर

पूरे देश में सर्वाधिक कोयला उत्पादन करने वाले छत्तीसगढ़ में 5990.78 करोड़ टन कोयला का भंडार है. यह देश में उपलब्ध कुल कोयला भंडार का करीब 18.34 फ़ीसदी है.

अगर छत्तीसगढ़ की बात करें तो कुल 12 कोयला प्रक्षेत्र के 184 कोयला खदानों में से, सर्वाधिक 90 कोल ब्लॉक मांड-रायगढ़ में और 23 कोल ब्लॉक हसदेव-अरण्य के जंगलों में हैं.

करीब 1,70,000 हेक्टेयर में फैले हसदेव अरण्य के जंगल को जैव विविधता और पारिस्थितकी रुप से संवेदनशील माना जाता रहा है. इसे हाथियों का घर भी कहा जाता है.

झारखंड के गुमला से छत्तीसगढ़ के कोरबा तक हाथियों के आवागमन का यह एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है. महाराष्ट्र-मध्य प्रदेश के पेंच अभ्यारण्य , मध्य प्रदेश के कान्हा टाइगर रिज़र्व, छत्तीसगढ़ के अचानकमार टाइगर रिज़र्व और झारखंड के पलामू टाइगर रिज़र्व तक फैले कॉरिडोर का यह बीच का हिस्सा है.

नवंबर 2000 में छत्तीसगढ़ अलग राज्य बनने के बाद, कुछ सालों तक तो इन हाथियों को झारखंड और ओडिशा का प्रवासी हाथी घोषित कर इनसे संबंधित ज़िम्मेवारियों को टालने की कोशिश होती रही. लेकिन बाद में कोरबा, जशपुर, सरगुजा और रायगढ़ के कोयला खदान वाले जंगल के इलाकों में हाथियों के स्थाई रहवास और प्रजनन को देखते हुये 11 मार्च 2005 को विधानसभा में सर्वसम्मति से रायगढ़, जशपुर और कोरबा ज़िले में प्रोजेक्ट ऐलीफेंट के अंतर्गत हाथी अभ्यारण्य बनाने का अशासकीय संकल्प पारित किया गया.

फाइलों में ही रह गया लेमरू हाथी अभ्यारण्य

राज्य की भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने हसदेव अरण्य और धर्मजयगढ़ के 450 वर्ग किलोमीटर के इलाके में लेमरू हाथी अभ्यारण्य बनाने की योजना पर काम करना शुरु किया और केंद्र को इससे संबंधित प्रस्ताव भेजा गया. इसके अलावा पहले से ही संरक्षित तमोर पिंगला अभ्यारण्य के 972.16 वर्ग किलोमीटर और बादलखोल सेमरसोत अभ्यारण्य के 176.14 वर्ग किलोमीटर को भी हाथी अभ्यारण्य घोषित करने के लिए केंद्र को प्रस्ताव भेजा गया. हालांकि इन दो अभयारण्यों में नियमानुसार किसी भी तरह के खनन या गैर-वानिकी गतिविधियों की इजाजत पहले ही नहीं थी.

केंद्र सरकार ने मार्च 2007 में एक विशेषज्ञ अध्ययन दल को भेजा और इस दल की रिपोर्ट के आधार पर 5 अक्टूबर 2007 को इन सभी तीन हाथी अभ्यारण्य को अपनी सहमति भी दे दी.

राज्य सरकार ने सहमति के तुरंत बाद तमोर पिंगला अभ्यारण्य और बादलखोल सेमरसोत अभ्यारण्य को तो हाथी अभ्यारण्य घोषित कर दिया लेकिन प्रस्तावित लेमरू हाथी अभ्यारण्य के इलाके में ही बड़ी संख्या में कोयला खदानों के आवंटन के कारण इस पर चुप्पी साध ली.

कोयला खनन की चाहत से इस इलाके की परिभाषा बदलती रही. केंद्र सरकार के दस्तावेज़ों को देखें तो 2010 में कोयला मंत्रालय और वन पर्यावरण मंत्रालय ने देश के नौ कोयला प्रक्षेत्र के एक साझा अध्ययन के बाद हसदेव अरण्य के जंगलों की अति संपन्न जैव विविधता और पारिस्थितकी रुप से संवेदनशील पाया. और इस पूरे इलाके को ‘नो-गो एरिया’ घोषित कर दिया. फैसला लिया गया कि यहां कोयला खनन नहीं किया जाएगा.

लेकिन कुछ ही दिनों में कोयला खनन की ज़रुरतों का हवाला देकर ‘नो गो’ पर सरकार के भीतर ही सवाल उठने लगे. इसके कुछ दिनों के बाद ही 53 प्रतिशत हिस्से को ‘नो गो एरिया’ से बाहर कर दिया गया. साल भर बाद ‘नो गो एरिया’ का हिस्सा 47 प्रतिशत से घटा कर 29 प्रतिशत कर दिया गया.

जून-जुलाई 2014 में इस इलाके के 11.99 प्रतिशत हिस्से को निर्बाध क्षेत्र घोषित किया गया. घटते-घटते दिसंबर 2015 में इस इलाके का केवल 7 प्रतिशत हिस्सा ही निर्बाध क्षेत्र रह पाया. शेष इलाके को कोयला खदानों के लिए खोल दिया गया.

इधर 2018 में जब राज्य में सरकार बदली और इस इलाके में कोयला खदानों के ख़िलाफ़ आंदोलन कर चुके भूपेश बघेल मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने हाथियों की बढ़ी हुई संख्या और पर्यावरण संरक्षण के लिहाज से 15 अगस्त 2019 को, राज्य के 1995.48 वर्ग किलोमीटर इलाके में लेमरू हाथी अभ्यारण्य बनाने की घोषणा की और 27 अगस्त को मंत्रीमंडल ने इसकी मंज़ूरी भी दे दी.

हाथी अभ्यारण्य में कोयला खदान

राज्य सरकार के दस्तावेज़ के अनुसार लेमरू हाथी अभ्यारण्य के लिए घोषित 1995.48 वर्ग किलोमीटर के दायरे में मांड-रायगढ़ कोयला प्रक्षेत्र के 11 कोल ब्लॉक का क्षेत्र भी शामिल है. इसके अलावा प्रस्तावित हाथी अभ्यारण्य के 10 किलोमीटर के बफर क्षेत्र में भी मांड-रायगढ़ के 12 कोल ब्लॉक शामिल हैं.

कुल मिलाकर राज्य के 184 में से 54 कोल ब्लॉक हाथी अभ्यारण्य के दायरे में आ रहे हैं.

इन कोयला खदानों के कारण मंत्रीमंडल की मंजूरी के लगभग 20 महीने बाद भी लेमरू हाथी अभ्यारण्य को अब तक अधिसूचित नहीं किया गया है.

वन्यजीव विशेषज्ञ और राज्य सरकार की वन्यजीव बोर्ड की सदस्य मीतू गुप्ता का कहना है कि पिछले कई सालों से लेमरू हाथी अभ्यारण्य का मामला अटका हुआ है और नई सरकार के फ़ैसले के बाद भी इस पर मुहर नहीं लगी है जिसके कारण वन और वन्यजीव लगातार ख़तरे में है.

मोंगाबे-हिंदी से बातचीत में उन्होंने कहा, “छत्तीसगढ़ में लगभग 300 हाथी हैं और लगातार खनन के कारण ये हाथी पूरे राज्य भर में भटक रहे हैं. लेकिन कोयला खदानों के कारण हाथी अभ्यारण्य बनाने की सरकारी घोषणा अधर में लटकी हुई है.”

प्रस्तावित लेमरु हाथी अभ्यारण्य का घटता-बढ़ता दायरा

वर्ष 2005 में 450 वर्ग किलोमीटर में और 2019 में 1995.48 वर्ग किलोमीटर इलाके में लेमरू हाथी अभ्यारण्य बनाये जाने की घोषणा हुई. पर्यावरण मामलों के जानकार लोगों ने राज्य सरकार से अनुरोध किया कि हसदेव अरण्य और मांड रायगढ़ के जलग्रहण क्षेत्र में भी कोयला खनन की अनुमति नहीं देनी चाहिए और इसे भी लेमरू हाथी अभ्यारण्य में शामिल किया जाना चाहिए.

तर्क ये था कि हसदेव अरण्य और मांड रायगढ़ के जिन इलाकों को हाथी अभ्यारण्य में शामिल नहीं किया गया है, उन्हीं इलाकों में हाथियों का आवागमन और प्रवास अधिक है.

जिन इलाकों को हाथी अभ्यारण्य में शामिल करने की मांग की गई, उससे वन विभाग ने भी सहमति जताई. वन विभाग के दस्तावेज़ों के अनुसार हसदेव अरण्य के जिन 18 कोयला खदानों में खनन नहीं करने और उन्हें लेमरू हाथी अभ्यारण्य में शामिल करने का फ़ैसला लिया गया. उसमें परसा, केते-एक्सटेंशन, गिधमुड़ी-पतुरिया, तारा, पेंडराखी, पुटा परोगिया, मदनपुर उत्तर, मदनपुर दक्षिण, मोरगा-1, मोरगा-2, मोरगा-3, मोरगा-4, मोरगा दक्षिण, सैदू उत्तर व दक्षिण, नकिया-1-2-3, भकुर्मा मतरिंगा, लक्ष्मणगढ़ और सरमा कोयला खदान शामिल हैं.

इसके बाद राज्य सरकार ने आरंभिक तौर पर 1995.48 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के लेमरू हाथी अभ्यारण्य का क्षेत्रफल बढ़ा कर 3827 वर्ग किलोमीटर करने पर सहमति जताई और प्रस्तावित इलाकों में वन्यप्राणी संरक्षण अधिनियम 1972 की धारा 36 (ए) के तहत ग्रामसभाओं में चर्चा शुरु की गई.

पर इन सब प्रक्रियाओं के बीच ही केंद्र सरकार ने प्रस्तावित इलाके में कोल खदानों की नीलामी की प्रक्रिया शुरु की. राज्य के वन मंत्री मोहम्मद अकबर ने केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को पत्र लिख कर अपनी आपत्ति दर्ज़ कराई. इन्होंने केंद्र से अनुरोध किया कि आगामी कोल ब्लाक नीलामी में हसदेव अरण्य एवं उससे सटे मांड नदी के जल ग्रहण क्षेत्र तथा प्रस्तावित हाथी अभ्यारण्य की सीमा में आने वाले क्षेत्रों में स्थित कोल ब्लाकों को शामिल न किया जाए.

केंद्र सरकार ने इसे माना और कई कोल ब्लॉक को नीलामी की सूची से बाहर कर दिया. हालांकि, छत्तीसगढ़ की तीन नई कोयला खदानों को इस सूची में जोड़ लिया गया.

विरोध, भूमि अधिग्रहण और सरकारी मंशा

खत का सिलसिला फिर शुरू हुआ. जनवरी 11 को राज्य के खनिज सचिव ने केंद्र सरकार के कोयला मंत्रालय के सचिव को पत्र लिखा. इस खत में मदनपुर दक्षिण और 19 जनवरी को केते एक्सटेंशन कोयला खदान की नीलामी के तहत आवंटन पर रोक लगाने की मांग की गयी.

लेकिन इस बार बात नहीं बनी और केंद्र सरकार की कार्रवाई चलती रही. दिलचस्प ये है कि जिन कोयला खदानों में राज्य सरकार ने खनन नहीं करने का फ़ैसला किया था, उन्हीं खदानों में खनन के लिए केंद्र सरकार ने अब भूमि अधिग्रहण की कार्रवाई शुरु कर दी है.

कोरबा ज़िले की कलेक्टर किरण कौशल का कहना है कि केंद्र सरकार ने कोयला धारक क्षेत्र अर्जन और विकास अधिनियम 1957 की धारा 7 की उपधारा 1 के प्रावधानों का उपयोग करते हुए भूमि अर्जन के लिए जो अधिसूचना भारतीय राजपत्र में जारी की है, उस पर फ़िलहाल आगे कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है.

उन्होंने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “ग्राम सभाओं ने कोयला खनन के ख़िलाफ़ प्रस्ताव पारित किया है. ज़मीन अधिग्रहण के लिए जारी अधिसूचना पर फिलहाल तो कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है. आगे शासन से जो निर्देश मिलेंगे, उसी के अनुरुप कार्रवाई की जाएगी.”

छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला कहते हैं- “हाथियों के इस घर में कोयला खनन पर इतना जोर जरूरत के लिए नहीं बल्कि मुनाफे के लिए है.” आलोक शुक्ला का कहना है कि खुद छत्तीसगढ़ सरकार भैयाथान के जिस बिजली परियोजना के लिए पतुरिया-गिधमुड़ी में कोयला खनन करना चाहती थी, वह परियोजना ही रद्द हो गई, इसके बाद भी कोयला खदान का आवंटन रद्द नहीं किया गया. ऐसी ही स्थिति कुछ अन्य कोयला खदानों के साथ है.

हालांकि वन्यजीव विशेषज्ञ मीतू गुप्ता का कहना है कि क़ानूनी और संवैधानिक प्रक्रियाएं अपनी जगह हैं लेकिन अगर राज्य सरकार सच में लेमरू हाथी अभ्यारण्य बनाना चाहती है तो इस हाथी अभ्यारण्य को अधिसूचित करना उसकी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए.

वे कहती हैं, “सरकार को चाहिए कि जितने इलाके पर सहमति बन रही है, उतने इलाके को तो हाथी अभ्यारण्य के तौर पर अधिसूचित कर दे. अभी तो लेमरू हाथी अभ्यारण्य फ़ाइलों में ही है. इसे धरातल पर उतारे बिना न तो हसदेव अरण्य के जंगल बचेंगे और ना हाथियों की जान. आख़िर कोयला खदानों से संबंधित फारेस्ट क्लियरेंस पर अंतिम फ़ैसला लेना तो राज्य सरकार के पाले में है. राज्य सरकार क्या चाहती है, यह सबसे महत्वपूर्ण है.”

Mongabay से साभार

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