कच्छ की आत्मा की तलाश
पुष्य मित्र | फेसबुक
कच्छ से पहला रिश्ता 2001 में बना जब वहां भूकंप आया था और भोपाल से कुछ युवाओं का समूह बस अपना शरीर लेकर लोगों की मदद करने चला गया. उस समूह में हम भी थे. संयोग ऐसा बना कि अहमदाबाद में एक ऐसी संस्था मिल गई जिसके पास बांटने के लिए बहुत सारा सामान था मगर लोग नहीं थे. फिर हमलोग एक दूसरे के पूरक बन गए.
वहां 15 दिन रहा. रोज शाम राहत सामग्रियों से लदे कई ट्रक खुलते थे और हर ट्रक पर दो स्वयंसेवक सवार होते थे. भीषण सर्द रात में ट्रक के ऊपर खुले में हमलोग पूरी रात सफर करते, जगह जगह ठहर कर ऊंटनी के दूध की चाय पीते हुए और पूरे दिन अलग अलग इलाकों में राहत बांटते और बाजरे की रोटी, छाछ, गुड़ और घी खाते. उन्हीं लोगों के घर जो भीषण भूकंप की वजह से बेघर हो गए थे.
वह सब एक बार फिर से याद आ गया अभिषेक श्रीवास्तव जी की किताब कच्छ कथा पढ़ते हुए. कच्छ की हमारी यात्रा 15 दिनों की थी आपदा के तत्काल बाद की. हम 29 या 30 जनवरी को वहां पहुंच गए थे, भूकंप 26 की सुबह आया था. हम जब भचाऊ शहर से होकर गुजरे थे तो पूरा शहर सपाट हो गया था और जगह जगह केरोसिन से लाशें जलाई जा रही थीं. और जब लौटे तो आपदा को लेकर लोगों में उमड़ी सहज सहृदयता राजनीति में और छल में बदल रही थी.
मगर अभिषेक भाई की यात्रा अलग दौर और अलग तरह की है. वे 2010 के बाद गए और कई दफा जाते रहे. मगर उनकी यात्रा किसी टाइम मशीन की तरह कच्छ के 5000 साल के इतिहास से होकर गुजरती रही. हमने कच्छ का मालवा देखा था और देखे थे वहां के जिंदा लोग जो अक्सर जरूरी न होने पर राहत लेने से भी इंकार कर देते थे. मगर उन्होंने कच्छ की खुदाई की, उसका एक्स रे किया. और यह समझ पैदा की कि अरब सागर से सटा यह रेतीला इलाका आज भले गुजरात राज्य का हिस्सा है, मगर इसकी बनावट गुजरात से बिल्कुल अलग है. इस पर अगर कोई असर है तो वो है सिंध का.
हड़प्पा काल के शहर धौलवीरा से लेकर नई बसी बस्ती गांधी धाम तक वे गुजरात के इस सबसे बड़े इलाके को अलग अलग जगह से टटोलते हैं और पाते हैं कि इस धरती की बुनियाद में एक मजहब का रिश्ता दूसरे से कितना गुंथा हुआ है. वह धरती जो बहुत पहले एक भूकंप की वजह से बनी, जिसका रिश्ता देश के भीतरी इलाकों से कम, बाहरी दुनिया से अधिक रहा. जहां नमक भी है और वीराना भी. जहां गोरखधाम के कनफटे साधुओं का एक पुराना मठ भी है. जहां शीशे की कलाकारी के शिल्पकार भी हैं. जो धरती पीर फकीरों की है और उसूल वाले राजाओं की भी.
यह किताब एक तरह से कच्छ नामक इलाके की बुनियाद को समझने की कोशिश करती है, जिसे अभिषेक भाई ने अपने फक्कड़ अंदाज में लिखा है. ऐसा नहीं है कि आप पढ़ना शुरू करेंगे और लिखे हुए शब्द आपको पकड़ लेंगे, आप पर जादू करने लगेंगे. आपको इस किताब में खुद डूबना पड़ेगा. धैर्य के साथ शुरुआती पन्ने पढ़ने होंगे. फिर धीरे धीरे किताब आपको जमने लगेगी.
इस किताब में कोई सिलसिला नहीं है, न ही कोई बना बनाया फॉर्मेट. यह बस एक मनमौजी किताब है. हां, अगर आप इतिहास, भूगोल और वृतांत के शौकीन हैं और बातचीत और रेफरेंस के जरिए कच्छ की आत्मा का पता ढूंढना चाहते हैं तो उतर सकते हैं इस किताब में. इसमें जितनी यात्राएं हैं, उतना ही शोध भी है.