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कला बदलाव लाई तो खुशी होगी

मंजरी चतुर्वेदी को सूफी कथक नृत्य के लिये जाना जाता है. लखनऊ की मंजरी चतुर्वेदी ने कथक की युवा छात्रा के रूप में अपने पहले सबक 1992 के बाबरी विध्वंस के दौरान सांप्रदायिक सद्भाव में सीखे थे. वह घटना देश में अप्रिय सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं का सबब बनी.

मंजरी भारत की एकमात्र सूफी कथक नृत्यांगना हैं. उन दिनों मंजरी व उनके दोस्त कर्फ्यू हटते ही घराना पहुंच जाते थे और उनके मुस्लिम संगीतकार भी पूर्ण रूप से उपस्थित रहते थे. मंजरी ने कहा, “यह एक अलिखित नियम था कि कर्फ्यू हटते ही हमें घराना पहुंचना होगा..ज्यादातर विद्यार्थी हिंदू और संगीतकार मुस्लिम थे.”

सूफीवाद को कथक में मिलाना लीक से हटकर किया गया प्रयास था. शास्त्रीय नृत्य बहुत हद तक हिंदू पौराणिक कथाओं पर आधारित होता है, जबकि सूफीवाद खुदा को नहीं बल्कि मोहब्बत व प्यार को कबूल करता है.

मंजरी को 24 वर्षो बाद सूफी कथा के प्रस्तावक के रूप में नाज है कि लोगों की उस सोच में कुछ अंतर ला सकीं, जो लोगों के बीच धर्म के नाम पर भेदभाव करती है.

मंजरी दुनियाभर में 250 से ज्यादा संगीत कार्यक्रमों में प्रस्तुति दे चुकी हैं. उन्होंने एक साक्षात्कार में बताया, “मैं संभवत: दर्जो या वर्गो को खत्म करने में सक्षम न हूं, लेकिन मुझे खुशी होगी अगर मेरी कला उस सोच में बदलाव या परिवर्तन ला सकी, जो धर्म के आधार पर लोगों को बांटती है.”

कथक में पारंगत मंजरी को लखनऊ की कव्वाली परंपरा ने सूफी कथक संकल्पना की ओर आकर्षित किया.

सूफीवाद और मुस्लिम फकीरों को और जानने-समझने की जुस्तजू से उन्होंने साल 2000 में मिस्र, तुर्की, उज्बेकिस्तान, किर्गीस्तान जैसे देशों की यात्रा की. उन्होंने कहा, “मेरी नजर में सूफी कथक उस मुकाम पर पहुंच गया है, जहां शरीर के शारीरिक पहलू मायने नहीं रखते. प्रस्तुति के बाद दर्शकों को एक विशुद्ध या कोरी ऊर्जा महसूस होनी चाहिए.”

मंजरी ने सूफी कथक की संकल्पना को समझाते हुए कहा, “अधिकांश शास्त्रीय नृत्यों में सगुण भक्ति का पालन किया जाता है, जिसमें ईश्वर एक रूप माना जाता है. निर्गुण भक्ति भी है, जिसमें ईश्वर का कोई आकार नहीं होता. इस संकल्पना को शास्त्रीय नृत्यों में नहीं जांचा-परखा गया है, मैं उसे सूफी कथक के जरिए कर रही हूं.”

उन्होंने सोमवार को महरौली के द किला ऐट सेवन स्टाइल माइल में सूफी संत बुल्ले शाह की कविताओं पर अपनी प्रस्तुति दी.

‘ओ बुल्लाह’ की प्रस्तुति ’22 ख्वाजा प्रोजेक्ट’ का हिस्सा है, जो 2010 में दिल्ली और आसपास स्थित 22 सूफी मजारों के बारे में जागरूकता लाने के लिए शुरू किया गया था.

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