अर्थव्यवस्था की बदहाली
नरेंद्र मोदी सरकार के सत्ता में आने के 40 महीने बाद सरकार ने यह संकेत दे दिया है कि अर्थव्यवस्था बुरी हालत में है. प्रधानमंत्री आर्थिक सलाहकार परिषद का गठन इसी का संकेत है. अब सरकार के पास एक ही बार पूरा बजट पेश करने का मौका है. 2019 के आम चुनावों के पहले उसे 10 राज्यों की 1,214 विधानसभा सीटों पर चुनावों का सामना करना है. इन राज्यों में 129 लोकसभा सीट हैं. लेकिन दुर्भाग्य यह है कि बड़ी-बड़ी घोषणाओं के बावजूद इस सरकार के पास दिखाने के लिए कुछ नहीं है.
मई, 2014 में इस सरकार के सत्ता में आने के बाद कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट शुरू हो गई. इससे महंगाई को काबू करने में मदद मिली. सरकार ने इसका श्रेय लेने में देर नहीं लगाई. तेल की कीमतें कम होने और सरकार द्वारा तेल पर लगने वाले कर बढ़ाने से उसे खूब आमदनी हुई. अब फिर से कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने लगी हैं.
सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी 2014-15 की पहली तिमाही में 7.5 फीसदी थी. 2017-18 की पहली तिमाही में यह 5.7 फीसदी पर पहुंच गई. आईआईपी 2014-15 में 5 फीसदी थी. 2015-16 में 3.3 फीसदी पर पहुंचने के बाद 2016-17 में यह थोड़ा सुधरकर 4.6 फीसदी पर पहुंचा. निवेश घट रहा है. घरेलू बचत की दर घट रही है. कुल बचत में घरेलू बचत की हिस्सेदारी 70 फीसदी से घटकर 60 फीसदी हो गई है.
निर्यात घट रहा है. हालिया तिमाही में निर्यात 14 साल के न्यूनतम स्तर पर है. मांग घट रही है. रोजगार के आंकड़े भी ठीक नहीं हैं. 2004-05 से 2011-12 के बीच सालाना एक फीसदी की दर से नए रोजगार पैदा हो रहे थे. 2012-13 के बाद इसमें कमी आ रही है. खास तौर पर असंगठित क्षेत्र में. निर्माण, सूचना प्रौद्योगिकी और बीपीओ लोगों को रोजगार दे रहे थे लेकिन पिछले तीन साल से इनकी हालत खराब है. विनिर्माण में भी रोजगार नहीं पैदा हो रहे.
केंद्र सरकार द्वारा 2008-09 में कुल जीडीपी का 15.8 फीसदी खर्च किया गया था. 2013-14 में यह 13.9 फीसदी रहा. 2017-18 में इसके घटकर 12.7 फीसदी पर पहुंच जाने का अनुमान है. सरकारी खर्चे में कटौती करके और रोजगार सृजन के उपाय नहीं करके मांग को और खराब स्थिति में पहुंचा दिया गया. इसके बाद सरकार ने नोटबंदी करके स्थिति और बिगाड़ दी. बैंकों की एनपीए की समस्या सुलझाने में सरकार नाकाम रही है. मार्च 2014 में बैंकों का एनपीए 4 फीसदी था जो इस साल बढ़कर 9.5 फीसदी पर पहुंच गया है. रही सही कसर बगैर तैयारी के जीएसटी लागू करके पूरा कर दिया गया.
सरकार ने तीन साल के कार्यकाल में विभागों और मंत्रालयों का पुनर्गठन करने और बजट आवंटित करने के तरीकों में बदलाव किया. इसकी वजह समझना मुश्किल है लेकिन इसने बजट समझना मुश्किल कर दिया. योजना आयोग को खत्म करके नीति आयोग बना दिया गया. सालों की योजनागत विकास की अवधारणा को खत्म कर दिया गया. नीति आयोग की सिफारिशें सार्वजनिक नहीं की जातीं.
सरकार ने सुधार के जो वादे किए थे, वे पूरे नहीं किए. बल्कि सरकारी ताकत का इस्तेमाल राजनीतिक फायदे के लिए किया गया. नोटबंदी ऐसा ही एक निर्णय था. न तो निवेश सुधरा और न ही बैंकों की एनपीए की समस्या. ऐसे में आर्थिक सलाहकर परिषद का गठन करके सरकार खुद को सजग दिखाने की कोशिश कर रही है जबकि उसका भरोसा अब भी बड़ी-बड़ी घोषणाओं में ही बना हुआ है.
1960 से प्रकाशित इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के नये अंक के संपादकीय का अनुवाद