सरलता की कठिनाई
दिनेश श्रीनेत | फेसबुक
रीडर्स डाइजेस्ट का हिंदी संस्करण सर्वोत्तम बरसों तक मेरी प्रिय पत्रिका रही. सालों बाद उसके संपादक रह चुके अरविंद कुमार से जब मेरी मुलाकात हुई तो मिलने का एक बड़ा कारण यह भी था कि वे मेरी प्रिय पत्रिका के संपादक रहे थे. उस पत्रिका की सुंदरता दरअसल उसकी सादगी में छिपी थी. अमूमन कुछ साहसिक कहानियों के अलावा पूरी पत्रिका में जीवन के सकारात्मक पहलुओं पर बात होती थी.
सर्वोत्तम को उन अमेरिकी लोगों को समर्पित मैगज़ीन मानना चाहिए, जिन्होंने दुनिया को बहुत कुछ दिया. पढ़े-लिखे हिंदुस्तानियों को- पॉलीटिकल प्रॉपगैंड के चलते- पूरे देश को एक ही चश्मे से देखने की आदत हो गई है, और यह अमेरिका को किसी खलनायक की तरह देखता है. ठीक उसी तरह से जैसे पश्चिम और भारत का दक्षिणपंथी खेमा मुसलमानों को एक ही चश्मे से देखना चाहता है. इस पत्रिका को पढ़कर समझ में आता है कि अमेरिकी नागरिक कोई आक्रमणकारी, लुटेरे और दुनिया को अपने इशारे पर नचाने वाले लोग नहीं हैं, वहां किसी भी अन्य देश की तरह कोमल हृदय माताएं हैं, खुशमिजाज बूढ़ी महिलाएं हैं, संवेदनशील पुरुष हैं और जिज्ञासु बच्चे हैं.
संयोगवश उसी में एक आलेख पढ़ने को मिला जिसमें जीवन में सादगी के महत्व पर बात की गई थी. इस निबंध में कहा गया था कि सादगी का अर्थ आवश्यकता की गिनी-चुनी चीजों के साथ जीवन काटना नहीं है बल्कि चीजों का महत्व उनकी उपयोगिता तक सीमित रखने में है. यानी यदि हमें तीन जोड़ी जूतों की जरूरत है तो एक ही जोड़ी जूते में ज़िंदगी न काटें मगर साथ ही 12 जोड़ी जूतों का संग्रह भी न करें. चीजें हमारे साथ सिर्फ इसलिए हों क्योंकि उनकी हमारे जीवन में एक सीमित अर्थों में उपयोगिता है, न कि वे हमारा संपूर्ण जीवन हैं.
मिनिमलिस्टिक जीवन शैली भी इसी विचार का एक हिस्सा है जिसने मुझे हाल के वर्षों में आकर्षित किया है. यह भारत के कष्टप्रद सन्यास की अवधारणा से ज्यादा बेहतर लगता है. बुद्ध के जीवन की वह घटना मुझे बहुत ही अर्थपूर्ण लगती है जब उन्होंने नर्तकी सुजाता से खीर ग्रहण किया था और बाकी तपस्वी उनकी निंदा करते हुए चले गए थे. शायद बुद्ध पहले मिनिमलिस्ट थे. वीणा के तारों पर बने गीत का सही अर्थ ग्रहण करना और मध्यमार्गी होना ही बुद्ध को अन्य भारतीय संन्यासियों की जीवन शैली से अलग करता है.
मिनिमलिस्टिक जीवन शैली में हम स्वयं तय करते हैं कि हमारे लिए आवश्यक क्या है और उसी का वरण करते हैं. जीवन को एक सीधी रेखा जैसा सरल बनाते हैं. यह चयन किसी बाहरी आंडबर के तहत नहीं होता है बल्कि हमारी नितांत निजी आवश्कताओं से तय होता है. इसका संबंध सिर्फ जीवन शैली में बाहरी परिवर्तन से नहीं है बल्कि आपकी सोच से भी है. हम जितनी वस्तुओं से भावनात्मक या निजी आवश्यकताओं से जुड़ते चले जाते हैं उनका ही खुद को, अपनी स्मृतियों को विखंडित करते जाते हैं. हमारी सबसे सुंदर स्मृतियों उन्हीं व्यक्तियों, वस्तुओं और स्थानों से जुड़ी होती हैं, जिनसे हमारा कोई अटूट रिश्ता विकसित हो चलता है.
इस तरह से सादगी पर आधारित यह जीवन शैली हमें अपने एकांत, अपनी जड़ों और अपनी मूल स्मृतियों की तरफ वापस ले चलती है, जहां अंततः हम दिये की स्थिर लौ की तरह ‘अप्प दीपो भव’ बन जाते हैं. यह बौद्ध दर्शन का एक सूत्र वाक्य है यानी ‘अपना प्रकाश स्वयं बनो’. मिनिमलिज़्म का दर्शन दरअसल बौद्ध धर्म की शाखा ज़ेन से ही निकला है. ज़ेन दर्शन साधारण जीवन में पवित्रता ले आता है.
यह पवित्रता का बोध कब और कैसे आता है?
ओशो ज़ेन दर्शन पर चर्चा करते हुए कहते हैं, “एक ज़ेन गुरु, बोकूजू, कहा करता था, मैं लकड़ी काटकर लाता हूं, मैं कुएं से पानी लाता हूं. यह सब कितना रहस्यपूर्ण है. यह कितना रहस्यपूर्ण है! लकड़ी काटकर लाना, कुएं से पानी भर लाना और वह कहता है, कितना रहस्यपूर्ण! यह ज़ेन का दृष्टिकोण है, इससे साधारण चीजें असाधारण में बदल जाती हैं. सांसारिक को पवित्र में बदलने की कीमिया है ज़ेन. जगत और जगत के पार दोनों के भेद आकर ज़ेन में मिट जाते हैं.”
जीवन में आवश्यकता से अधिक वस्तुएं हमेशा हमें उलझाती हैं, व्यर्थ के मोह में बांधती हैं और अनावश्यक रूप से हमारे समय में दाखिल होती हैं. तो मिनिमलिज़्म का पहला कदम होना चाहिए अपनी आवश्यकताओं को पहचानाना. हममें से अधिकतर लोग अपनी आवश्यकताओं के प्रति ही स्पष्ट नहीं होते. एक बार अपनी ज़रूरतों को पहचानने के बाद हम यह तय कर सकते हैं कि हमारे इर्द-गिर्द क्या और कितना आवश्यक है और कितना अनावश्यक.
मिनिमलिज़्म यानी जीवन में मैटेरियल कम और ज्यादा कंटेट होना. यानी दिनचर्या नियमित और पारदर्शी होना. यानी सहज और मानवीय होना. यानी आर्गेनिक लाइफ़ होना – जो इस वर्चुअल जीवनशैली में और ज्यादा जरूरत बनती जा रही है.
आर्गेनिक जीवन शैली यानी कि हम चीजों से और अपने परिवेश से ज्यादा गहरा रिश्ता कायम कर सकें. जीवन एक फूल की तरह बन सके, जिसमें हवाओं की खुश्बू और मौसम की रंगीनियत समाई हुई हो. आग्रह दोनों तरफ न हो, न तो चीजों के जबरन त्याग का और न ही अनावश्यक संग्रह का.
जब मै अपरिग्रह की बात कर रहा हूँ तो यह सिर्फ़ वस्तुओं तक सीमित नहीं है बल्कि विचारों और सूचनाओं के प्रति संयम की बात भी है. हमें अनावश्यक विचारों, सूचनाओं और ज्ञान की आवश्यकता नही है बल्कि जीवन की गति में शामिल विचारों की आवश्यकता है. चीजों का उनकी सही जगह पर होना भी आवश्यक है. रेत नदी के किनारे सुंदर लगती है मगर कमरे के एक कोने में वह कूड़ा लग सकती है.
लाना ब्लैंकली एक 28 बरस की यूट्यूबर है जो स्टॉकहोम में (और मुझे उसका चैनल देखते हुए हमेशा ‘स्टॉकहोम सिंड्रोम’ की याद आ जाती है) रहते हुए जीवनशैली और व्यावहारिक दर्शन पर बातें करती है. उसने व्यावहारिक रुप से मिनिमलिज़्म को अपने जीवन में शामिल किया और करीब एक वर्ष बात उसने एक वीडियो बनाया जिसका शीर्षक था ‘गुडबाय मिनिमलिज़्म’. यह उस सोच के खिलाफ नहीं था बल्कि एक संतुलन साधने के बारे में था जहां वह अपने जीवन की ज़रूरी और गैर-ज़रूरी चीजों में फ़र्क़ करना सीख रही थी.
साथ की यह सुंदर तस्वीर उसी के यूट्यूब चैलन का स्क्रीनशॉट है. बचपन में पढ़े गए सर्वोत्तम के आलेख से मौज़ूदा दौर की सोशल इंफ्लूएंसर लाना ब्लैंकली तक एक ही बात पर जोर देते हैं, वह है – जीवन को सीधी रेखा जैसा सरल बनाना.
और हम सभी जानते हैं कि जीवन में सरलता को हासिल करना बहुधा कठिन होता है.