भैया हिटलर, मुसोलिनी भाई बस्तर में हो क्या?
कनक तिवारी
फासीवाद और नाजीवाद के संस्थापक प्रतीक जर्मनी के हिटलर और इटली के मुसोलिनी का देह में नहीं विचारों में पुनर्जन्म हुआ है. असाधारण चिंतक राममनोहर लोहिया ने कहा था कौन कहता है पुनर्जन्म नहीं होता. व्यक्ति का नहीं होता होगा लेकिन इतिहास का तो होता है. भले ही वह फीका और मारात्मक हो. आजादी के बाद से ही बस्तर की कोख में प्रवेश करने हिटलर और मुसोलिनी की वैचारिक आत्मा तड़प रही होगी. राजनेताओं और नौकरशाहों ने उद्योगपतियों के साथ मिलकर निमंत्रण भेजा. फासी और नाजी हरकतें नए अवतार में आकर बस्तर में निरीह आदिवासियों की जिंदगियों को मौत के कड़ाह में उबाल रही हैं जैसे इतिहास में पहले हुआ है
हाल ही सुकमा के पुलिस अधीक्षक ने मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को मोटरगाड़ी से कुचल देने का नायाब लेकिन फूहड़ नुस्खे की पेशकश की है. यही नादिरशाही पुलिस अधिकारी ब्रिटिश हुकूमत में करते थे. कौन कहता है भारत में लोकतंत्र है. थोड़ा बहुत होगा. बस्तर में तो सिरे से गायब है. आदिवासी स्त्रियां और बच्चियां मनुष्य के जानवर होने की जिंदा प्रयोगशालाएं बना दी गई हैं. जंगलों से विस्थापित होने पर भूमि आवंटन के जरिए बचाने वाला संसदीय कानूून ही खानाबदोश बना दिया गया है. आदिवासी पंचायतों को विशेष अधिकार देने का नाटक संसदीय जेहन में तो नहीं होगा लेकिन पुलिस कप्तानों, कलेक्टरों और मातहत अधिकारियों की हेकड़ी में लगातार कोई जिन्न देखने मिलता है. कामुक नौकरशाह, बिगड़े नवाबजादे, विदेशी सैलानी और कलाकार का नकाब ओढ़े व्यापारी बस्तर को यौन संस्थान समझकर आदिवासी बेटियों की अश्लील तस्वीरें खींचने बेचने में महारत हासिल किए हुए हैं. बस्तरिहा वनोपज की एक किलो चिरौंजी को एक किलो नमक के समीकरण में खरीदने बेचने को गणित के विद्वान समझ नहीं पाते हैं.
यह सांस्कतिक टापू मनुष्य की जिज्ञासा, शोध और जानकारी ढूंढ़ने का विश्वविद्यालय रहा है. फादर वेरियर एल्विन, डाॅ. हीरालाल, आर.वी.पी.सी. नरोन्हा, ब्रम्हदेव शर्मा, सुंदरलाल त्रिपाठी, लाला जगदलपुरी, हीरालाल शुक्ल, गुलशेर अहमद खां शानी से लेकर मेहरुन्निसा परवेज तक शाल वनों का द्वीप अपने इंसानी मूल्यों के लिए सभ्यता के चेहरे पर टाॅर्च की रोशनी का अपना निर्दोष पोचारा फेरता रहता है. बदले में उसके रहवासियों के खिलाफ भारतीय दंड विधान की हत्या, बलात्कार, चोरी, डकैती, लूट, राहजनी जैसे तोहफे चस्पा किए जाते हैं. इसी बीच कुछ स्वयंभू सेवक माओवाद की खाल ओढ़कर बस्तर के जंगलों में सरकारी लापरवाही, बदनीयती और मिली जुली कुष्ती के षड़यंत्र से घुसते गए. आदिवासी आषाढ़ के दूबरे की तरह सरकार और लाल सलाम के बीच सैंडविच बने सभ्य लोगों द्वारा आसानी से लीले जा रहे हैं.
अंगरेजी राजशाही की दिमागी बनावट वाली पुलिस का तो जलवा ही कुछ और है. एक के बाद एक पुलिस अधिकारी आततायी बादशाहों की तरह आते हैं. मनुष्य के अस्तित्व को अपने बूटों तले रौंदकर समाज को अहसास दिलाते हैं कि यही पुलिस कर्म है. अमरीका राष्ट्रपति बुश कहता था जो मेरे साथ नहीं हैं वे मेरे दुश्मन हैं. पुलिस भी तो यही कहती है. उसका हौसला इतना बढ़ गया है कि उसने मानव अधिकार कार्यकर्ताओं, वकीलों, जनप्रतिनिधियों और हर तरह के जनसेवकों के खिलाफ वह आवाज इतिहास से चुराकर अट्टहास करती है जो कभी रावण, कंस या दुर्योधन और नादिरशाह या चंगेजखान की हुआ करती थी. उसकी समझ है समाज में दो तरह के लोग रहते हैं. एक पुलिस और दूसरे वे जो होते तो मनुष्य हैं पर हो यह कि बस केवल जी रहे हैं. यह परिभाषा भोजपुर, रायबरेली के मध्यप्रदेश के बालाघाट में रहे कवि मित्र मधुकर खेर ने गढ़ी थी.
मानव अधिकार का चना जोर गरम जैसा चटपटा मुहावरा संयुक्त राष्ट्र संघ से आयातित हुआ है. भारत ने तो मनुष्य को देवता समझकर आध्यात्मिक अधिकार दिए ही हैं. पूरी दुनिया ने मानव अधिकारों की रक्षा और कायमी के लिए कानून बनाए हैं. भारत में राष्ट्रीय आयोग की अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त चीफ जस्टिस और राज्य अधिकार आयोग के अध्यक्ष हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त चीफ जस्टिस करते हैं. इन्हें अधिकार तो नहीं होते लेकिन कड़ी सिफारिशें सरकारों को भेजकर माहौल तो बना सकते हैं. बस्तर के बड़े पुलिस अधिकारी खुले आम आयोग की अनदेखी करते आंध्रप्रदेश के अस्पताल में भरती हो गए. पेशी तारीख खत्म होते ही व्यवस्था के अनुसार बस्तर से पुलिस मुख्यालय में तुरन्त पदस्थी पा ली. क्या कर पाया आयोग और आगे भी क्या कर पाएगा. एक नौकरशाह के जरिए सीधे प्रधान सेवक से हाथ भी मिला लिया. राज्यपक्षी बस्तर की मैना है या बाज़?
सुकमा पुलिस अधीक्षक ने वहां से हटने के लिए क्या जानबूझकर यह शिगूफा छेड़ा होगा? वर्षों पहले शंकर गुहा नियोगी की अगुवाई वाली परिवहन समितियों को राज्य सरकार ने भंग कर दिया था. बहाली के लिए मैंने राजस्व मंडल के अध्यक्ष से बतौर वकील गुहार लगाई. उन्होंने पहले स्थगन दिया. बाद में अपील स्वीकार कर ली. मैंने जिज्ञासा में पूछा. मुख्यमंत्री के मना करने पर भी आपने अपील क्यों मान ली. अधिकारी ने कहा मैंने आप पर नहीं आपने मुझ पर अहसान किया है. सरकार नाराज होकर मुझे ग्वालियर से हटाकर केवल भोपाल भेज सकती है. वही तो मैं चाहता था. जो अधिकारी अंतर्राष्ट्रीय कानून की समझाइश की सरेआम धज्जियां उड़ाए. वह जंगलों से हटकर राजधानी के मुख्यालय में पदस्थ हो गया. मेरी जिज्ञासा दूसरी बार शांत हुई. उसके दिमाग में वही ढाक के तीन पात वाला मुहावरा तो रहेगा ही.
गांधी के शिष्य महादेव देसाई के स्वनामधन्य पुत्र नारायण देसाई की अगुवाई में गांधीवादी प्रतिनिधि मंडल बस्तर गया था. उनकी तौहीन की गई थी. ब्रम्हदेव शर्मा के तो कपड़े उतार लिए गए. पूर्व केन्द्रीय मंत्री अरविन्द नेताम को पुलिस सुरक्षा में जगदलपुर से रायपुर भेजा गया. कई कार्यकर्ताओं, गांधीवादियों, वकीलों, मानव अधिकार संगठनों को बस्तर से बेदखल किया जाता रहा जैसे वे तड़ीपार हों. अधिकारियों की अदला बदली ताश के पत्तों के खेल की तरह होती है. एक आईएएस ने सत्ताधारी पार्टी के पूर्वज के बारे में अज्ञान बताया. दूसरे ने बलात्कारी अभियुक्तों में दलितों, आदिवासियों की ज्यादा संख्या होने पर सामाजिक विडंबना को रेखांकित किया. दोनों को अनुशासन के दायरे में लाकर प्रचारित तौर पर प्रताड़ना की नस्ल की समझाइश देकर माफ किया गया. सुकमा अधीक्षक सरकारी अनुशासन संहिता में मक्खन की तरह तैर रहे हैं. छाछ को बिलोकर मथने का काम मानव अधिकार कार्यकर्ता करते रहेंगे. उनकी किसको परवाह है.