प्रसंगवश

इसलिए आरक्षण चाहिए…

बिलासपुर | नंद कश्यप: मंगलवार को गुजरात में हार्दिक पटेल के नेतृत्व में हुई रैली न सिर्फ प्रभावशाली थी वरन् पूरे भारतीय समाज को झकझोरने वाला भी है. इसकी कुछ खासियतों में एक यह कि पूरा भाषण हिंदी में हुआ इसके मायने काफी सोचसमझकर दूरदृष्टि के साथ यह आंदोलन राष्ट्रीय स्तर तक ले जाने की तैयारी के साथ शुरू हुआ है.

युवाओं को काम नही मिलेगा तो वे नक्सली या आतंकवादी बनेंगे कह आज के व्यवस्थजन्य हिंसक विकास को भी चुनौती दी है. मुझे 1973-74 याद है जब मंहगाई के प्रश्न पर उठा एक छात्र आंदोलन राष्ट्रीय का होकर जेपी आंदोलन में बदल गया. वह दौर वाम ताकतों के मजबूत नेतृत्व वाला था. मजदूर आंदोलन अपने चरम पर था. रेल हड़ताल, इलाहाबाद हाईकोर्ट फैसला, आपातकाल, जनता सरकार, वैचारिक राजनैतिक संघर्ष के उस दौर में हम नौजवान समाजवाद का सपना देख रहे थे.

आज परिस्थिति एकदम भिन्न है. वैश्वीकरण और उदारीकरण की साम्राज्यवादी लूट की हिंसक नीतियों ने न सिर्फ हमारे परंपरागत रोजगार छीने बल्कि वित्तीय पूंजी के माध्यम से चंद लोगों के हांथों अकूत धनसंचय ने समाजिक अनुशासनों की सारी परंपराओं को ध्वस्त कर दिया. इसके नतीजे यह हुये कि अब कोई किसी के लिए स्पेस छोड़ने को तैयार नही, सभी को पतित पूंजीवादी शैली की वैभवशाली जीवन चाहिए और वह सामान्य रूप से मिलता नही दिख रहा.

इसलिए आरक्षण चाहिए और वह भी हमें और सिर्फ हमें. इसलिए आज 25 अगस्त को पाटीदार क्रांति दिवस की घोषणा हो गई. कल को जाट क्रांति दिवस, फिर तो दबंग जातियों की कमी कहां. यह उन तमाम लोगों के लिए चुनौती है जो वैचारिक और सह अस्तित्व के साथ समाज परिवर्तन चाहते हैं. खासकर वाम जो अभी भी पूंजीवादी क्रांति पूरे होने के बाद समाजवादी क्रांति के 1917 फार्मूला पे अटका हुआ है.

वह आज के सामाजिक संबंधों को, उत्पादन, रोजगार के अतंर् संबंधों को, साइबर टेक्नोलॉजी के द्वारा पूंजी के अकूत केन्द्रीकरण से उपजे भयावह विषमता के बीच आज के पीढ़ी को न ही कोई विकल्प और न ही कोई सपना दे पा रही है.

यही कारण है वह नौजवानों को आकर्षित करने में विफल है. बिना वैज्ञानिक दृष्टिकोण के टेक्नोलॉजी के माध्यम से होने वाले विकास ने तमाम और खास कर कृषि को दोयम दर्जे का काम बना दिया. डाक्टर का बेटा डाक्टर, इंजीनियर का इंजीनियर, यहां तक चपरासी का बेटा चपरासी के नीचे काम करने तैयार है परंतु आज किसान का बेटा किसान बनने तैयार नही है. 127 करोड़ के इस देश में आज भी कृषि पर निर्भर लोग 80 करोड़ से उपर लोग हैं. क्या कृषि की उपेक्षा कर हम कोई बेहतर समाज बना पाएंगे?

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