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किसान को केवल 340 रुपया ?

देविंदर शर्मा
उत्तरप्रदेश के आगरा के आलू उत्पादक किसान प्रदीप शर्मा पिछले चाल सालों से लगातार नुकसान झेल रहे हैं. इस वर्ष 10 एकड़ में आलू की खेती करते हुए, वे 19,000 किलोग्राम की उपज मंडी में लाये. लेकिन इस पूरी उपज को बेचने के बाद उन्हें महज 490 रुपये का लाभ मिला.

आक्रोशित प्रदीप शर्मा ने यह सोच कर अपनी पूरा लाभ प्रधानमंत्री को भेज दिया कि ‘शायद वह मेरी समस्याओं को समझेंगे.’ कुछ दिनों पहले मंदसौर के बाजार में एक किसान, भेरूलाल मालवीय को 27,000 किलो प्याज बेचने पर जब महज 10,000 रुपये मिले तो इस सदमे में उनकी मौत हो गई थी.

कृषक समुदाय की बदहाली को दर्शाती ऐसी परेशान करने वाली मीडिया रिपोर्टों ने पिछले कुछ समय से सुर्खियाँ बटोरी हैं. वर्षों से बढ़ते घाटे के साथ, किसान औपचारिक और अनौपचारिक दोनों स्रोतों से ऋण लेते हुए, सचमुच कर्ज पर जीवित रह रहे हैं. सितंबर 2016 तक, 12.60 लाख करोड़ रुपये का बकाया कृषि ऋण था. 17 राज्यों में प्रति वर्ष 20,000 रुपये की औसत आय के साथ इसकी तुलना करें, तो लगभग आधे देश में किसानों की तबाही की तस्वीर बहुत साफ़ नज़र आती है.

कृषि संकट के बारे में चल रही बहस पर ध्यान दें कि क्या कृषि ऋण माफी किसानों की समस्याओं का समाधान करने का सही हल है? दूसरी बात यह है कि राज्य सरकारें राजकोषीय बोझ कैसे उठाएंगी? मप्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्रियों ने पद संभालने के तुरंत बाद ही छूट की घोषणा की है. जिसके बाद से ही ‘आर्थिक व्यवहार्यता’ के सवाल और राजनीतिक कारणों से लिये गये इस उपाय की चर्चा हो रही है. चारों ओर से जो सबसे बड़ा सवाल उठाया जा रहा है कि आखिर पैसा कहां से आयेगा?

लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती. तेलंगाना सरकार द्वारा किसानों को प्रत्यक्ष आय सहायता के रूप में प्रति वर्ष 8,000 रुपये (अब 10,000 रुपये तक) की निश्चित राशि प्रदान करने वाले ट्रेंड-सेटिंग रायथु बंधु कार्यक्रम की शुरुआत के बाद, राज्यों में इसी तर्ज पर समान और बेहतर योजनाओं की घोषणा करने के लिए एक श्रृंखलाबद्ध प्रतिक्रिया शुरु हो गई है.

सबसे पहले, कर्नाटक में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने सूखाग्रस्त किसानों को 5,000 रुपये प्रति हेक्टेयर प्रदान करने के लिए इसी तरह का पैकेज दिया. हाल ही में हिंदी के चुनावी मैदान में चुनावी बिगुल बजने के बाद, और कांग्रेस और बीजेपी के कृषि ऋण माफ करने के वादे के डर से, और जाहिर तौर पर आगामी विधानसभा चुनावों से पहले किसानों को लुभाने के प्रयास में, ओडिशा ने एक आर्थिक पैकेज घोषित किया. इसने ऋण माफी के बजाय, भू-स्वामी किसानों, किरायेदार किसानों के साथ-साथ भूमि मजदूरों और बटाईदारों के लिए आजीविका और आय संवर्धन (Krushak Assistance for Livelihood and Income Augmentation KALIA) कार्यक्रम के तहत तीन साल के लिए 10,180 करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की. इससे 57 लाख परिवारों को फायदा होगा.

झारखंड सरकार ने फौरन इसे लागू करने की पहल की. राज्य के 22.76 लाख लघु और सीमांत किसानों को प्रति एकड़, प्रति वर्ष 5 हज़ार रुपये के लिये 2250 करोड़ रुपये की रक़म का प्रावधान किया. हालांकि इसके लिये 5 एकड़ की उपरी सीमा भी तय की गई.

अब जबकि हरियाणा किसानों के लिए एक पेंशन योजना पर विचार कर रहा है, पश्चिम बंगाल कृषक बंधु योजना के साथ आया है. इसके तहत एक किसान को प्रति वर्ष प्रति एकड़ 10,000 रुपये का समर्थन मिलेगा. किसी भी परिस्थिति में यह 18 वर्ष से 60 वर्ष के बीच के किसानों के लिए प्रति किसान 2 लाख रुपये का जीवन बीमा कवर प्रदान करेगा. प्रीमियम का भुगतान राज्य सरकार द्वारा किया जाएगा.

छत्तीसगढ़ में ऋण माफी की घोषणा के बाद, पहले चरण में 3.5 लाख किसानों के खातों में 1,248 करोड़ रुपये पहले ही हस्तांतरित किए जा चुके हैं, जिनमें से प्रत्येक में अधिकतम 2 लाख रुपये हैं. पंजाब में, धीमी प्रगति के बावजूद, सहकारी और वाणिज्यिक बैंकों में चूक करने वाले 4.14 लाख छोटे और सीमांत किसानों को लगभग 3,500 करोड़ रुपये की छूट मिली है. पूरे देश के लिए, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तमिलनाडु द्वारा घोषित कुल 2.3 लाख करोड़ रुपये के कृषि ऋण माफी से अनुमानित 3.4 करोड़ किसान परिवारों को लाभ होगा.

इसकी तुलना कॉरपोरेट लोन राइट-ऑफ से करें. आरबीआई के अनुसार, अप्रैल 2014 और अप्रैल 2018 के बीच की चार साल की अवधि में 3.16 लाख करोड़ रुपये की छूट दर्ज़ की गई है, जबकि बकाया राशि का केवल 32,693 करोड़ रुपये ही वसूला गया है. 30 सितंबर, 2018 तक, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के अलावा, केवल 528 उधारकर्ता थे, जिनके पास 6.28 लाख करोड़ रुपये का एनपीए था, जबकि उनमें से केवल 95 ऐेसे थे, जिनकी छूट 1,000 करोड़ रुपये से अधिक की थी. जबकि मुट्ठी भर कॉरपोरेट छूट के राइट-ऑफ के ‘आर्थिक व्यवहार्यता’ के बारे में कोई सवाल नहीं पूछा जा रहा है, लेकिन कृषि ऋणों पर बहुत अधिक गरमी बनी हुई है.

इस बीच, 2017-18 में सकल एनपीए में 11.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जो 10.39 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया है और केवल 40,400 करोड़ रुपये मुश्किलों वाले इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (IBC) और सरफेसी अधिनियम के माध्यम से वसूल किए गए हैं. एनपीए में यह वृद्धि पिछले एक दशक में उद्योग को 18.60 लाख करोड़ रुपये की आर्थिक प्रोत्साहन देने के बावजूद हो रही है. यह 2008-09 का दौर था जब सरकार ने वैश्विक आर्थिक मंदी के समय उद्योग के लिए 1.86 लाख करोड़ रुपये का प्रोत्साहन पैकेज शुरू किया था, जो अभी भी जारी है. सरल शब्दों में, उद्योग को हर साल प्रत्यक्ष आय सहायता मिल रही है.

रिपोर्टों से पता चलता है कि कृषि ऋण माफी की तुलना में ‘कम नुकसान’ होने के कारण, केंद्र सरकार किसानों को 4,000 रुपये की प्रत्यक्ष आय प्रदान करने की सोच रहा है. अनुमान बताते हैं कि इस पर सरकारी खजाने से 2 लाख करोड़ रुपये खर्च होंगे. हालांकि यह एक बड़ी रक़म दिखाई दे सकती है, लेकिन यह गौरतलब तथ्य है कि एक वर्ष में 4,000 रुपये का मतलब होता है कि किसान को हर महीने 340 रुपये से भी कम रक़म मिलेगी. यह लगभग एक ट्रेंडी शॉप पर दो कप कॉफी/चाय की कीमत के बराबर है. यदि प्रति माह 340 रुपये को कृषक समुदाय के लिए एक उपयुक्त वित्तीय रियायत माना जाता है तो यह केवल अभाव और आय असमानता की सीमा को दर्शाता है.

यह बात बहुत साफ है कि जबकि ऋण माफी एक आर्थिक आवश्यकता है और सरकारों को पर्याप्त संसाधन खोजने होंगे, तब प्रत्यक्ष आय समर्थन एक स्थायी समाधान नहीं है. कृषि को तत्काल राहत के अलावा मजबूत सुधारों की आवश्यकता है. यदि सरकार इज़ ऑफ डूइंग में आसानी के लिए 7,000 छोटे और बड़े कदम उठा सकती है तो कोई कारण नहीं है कि खेती को दुरुस्त करने के लिए इसी तरह की पहल पर विचार नहीं किया जा सकता है. आखिरकार, इस खेती-किसानी में देश की 52 फीसदी आबादी शामिल है. ‘सबका साथ, सबका साथ’ के लिए यही सही आर्थिक नुस्ख़ा है.

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