Columnistताज़ा खबर

कर्ज वसूली के लिए अलग-अलग नियम क्यों?

देविंदर शर्मा
जहां पंजाब राज्य कृषि सहकारी विकास बैंक ने अपने बकाये की वसूली की खातिर 5 एकड़ से ज्यादा भूमि के मालिक लगभग 2000 किसानों के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किए हैं, वहीं दूसरी ओर, राष्ट्रीयकृत और निजी बैंक उन लोगों के नाम तक जाहिर करने को तैयार नहीं हैं, जिनका पिछले 10 सालों में 11.68 लाख करोड़ रुपये ऋण माफ किया गया है. अलग वर्ग के लिए अलहदा नियम !

पंजाब में 71000 किसानों की तरफ बैंकों का लगभग 3200 करोड़ रुपये कर्ज बकाया है, जिसकी वसूली प्रक्रिया सहकारी बैंक प्रक्रिया तेज करने की योजना बना रहे हैं, जिसमें समझौता राशि और मामला खत्म करने के लिए प्रोत्साहित करने के अलावा कर्ज वापसी में असफल किसान के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट वाला उपाय भी शामिल है.

मान लें, यह सही है, फिर केवल वर्ष 2020-21 में ही 32 निजी और सरकारी उपक्रम बैंकों ने चुपके से कॉर्पोरेट का बकाया 2.02 लाख करोड़ का कर्ज कैसे माफ कर दिया? और आगे, वित्तीय वर्ष 2021-22 की पहली छमाही में बैंकों ने अतिरिक्त 46,382 करोड़ छोड़ दिए और तीसरी तिमाही में 39,000 करोड़!

इससे किसी को भी हैरानी होगी कि कर्ज न चुकता करने वाले किसी कॉर्पोरेट मालिक की गिरफ्तारी की खबर पिछली बार कब सुनी थी? जहां बहुत से बड़े ऋण चूक-कर्ता तो विदेश भाग गए. तो यह केवल किसान (या छोटा कर्जदार) है जिसको ऋण-वसूली प्रक्रिया में बुरे व्यवहार और अन्याय का सामना करना पड़े? जब बैंक बड़े दोषियों के साथ नरमाई से पेश आते हैं, तो फिर कृषकों के लिए अलग पैमाना क्यों, मानो लावारिस हों.

जैसे ही बैंकों के गिरफ्तारी वाले निर्णय के लिए पंजाब सरकार को घेरा जाने लगा, वित्त मंत्री हरपाल सिंह चीमा ने तमाम ऐसे वारंटों को निरस्त कर सही किया है, लेकिन बड़ा प्रश्न जो बना रहेगा, ऐसा क्यों है कि यह सिर्फ किसान ही है जिसे तल्ख व्यवहार का सामना करना और जेल तक जाना पड़े. इस सिलसिले में जो बेइज्जती किसान को सहनी पड़ती है इसका सालने वाला नतीजा उन्हें दिनोदिन आत्मघाती कदम के लिए उकसा रहा है.

दूसरी ओर, यह केवल कॉर्पोरेट्स हैं जिन्हें इस किस्म के दंड और अपमान से पूर्ण अभयदान मिला हुआ है. इन कंपनियों को यह सुरक्षा चक्र रिजर्व बैंक और बैंकों की निगरानी शाखाओं ने दे रखा है. कोई हैरानी नहीं कि जहां अमीर कर्ज से छूट का आनन्द ले रहे हैं वहीं किसान को निराशा में धकेला जा रहा है. लगता है, ऋण संबंधी दोषियों के लिए बैंकों ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया कानून-1934 की धारा 45 ई के तहत अलग वर्गों के लिए अलहदा विधान तय कर रखे हैं.

बैंक नियामक पहचान की गोपनीयता बनाए रखने वाले निर्देश को आड़ बनाकर इरादतन चूक-कर्ता कॉर्पोरेट्स के नाम तक उजागर करने से मना कर देते हैं. अदालत के आदेशों के बाद कुछेक नाम सार्वजनिक करने के अलावा संसद को बताया गया है कि कॉर्पोरेट्स से बकाया ऋण वसूली के लिए बैंकों द्वारा उगाही के अन्य ढंग अपनाने की अपेक्षा की जाती है.

इसमें डेबिट रिकवरी ट्राइब्यूनल, सिक्योरिटाइजेशन एंड रिकंसट्रक्शन ऑफ फाइनेंशियल एस्सेट्स एंड एनफोर्समेंट ऑफ सिक्योरिटी इन्ट्रेस्ट एक्ट (जिसे सारफेयसी कहा जाता है) में केस ले जाने के अलावा इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड के तहत नेशनल कंपनी लॉ ट्राइब्यूनल आयोग में केस दायर करना और एनपीए एस्सेट्स की बिक्री इत्यादि तरीके शामिल हैं. वसूली की मात्रा संतोषजनक स्तर से काफी नीचे रहने के चलते ‘बैड बैंक’ बनाना इस सूची में नवीनतम औजार है.

हमें बकाया कर्ज माफी और बट्टे खाते में डालने के बीच का फर्क बखूबी मालूम है और किसी बकाया कर्ज की उगाही प्रक्रिया, बही खाता किसी अन्य बैंक में स्थानांतरित कर दिए जाने के बाद भी जारी रहती है. अनेकानेक आरटीआई आधारित रिपोर्टें दर्शाती हैं कि बैंक अपने बकाया कर्ज का मुश्किल से 10 प्रतिशत उगाह पाते हैं और बाकी रकम उन्हें अंततः छोड़नी पड़ती है.

कृषि ऋणों पर भी ठीक यही रवैया अपनाया जाना चाहिए. दोषी किसान को सलाखों के पीछे पहुंचाने की बजाय जो ज्यादातर मामूली बकाया रकम को लेकर होता है, बैंकों को क्यों निर्देश नहीं दिए जाते कि ऐसे ऋणों का खाता भी अलहदा बही में स्थानांतरित किया जाए? उगाही-प्रक्रिया बेशक जारी रहे, इस बीच किसान को अपनी कृषि गतिविधियां जारी रखने की अनुमति हो.

हर कदम पर किसानों के प्रति पूर्वाग्रह एकदम स्पष्ट है. जब भी राज्य सरकारें कृषि ऋण माफ करती हैं तो पैनल वार्ताओं में चीखकर बोलने वाले इस ‘खैरात’ को बंद करने को चिल्लाते हैं. इसके बरक्स, हर छह महीनों या इतनी अवधि में, जब कभी बैंक कॉर्पोरेट का भारी-भरकम अनचुका कर्ज छोड़ देते हैं, जरा दिमाग पर जोर देकर याद करें कि आखिरी बार कब आपने टीवी पर यह कहते सुना है कि इस पर रोक लगाई जाए.

एक अन्य नीति निर्णय है जो साफ पक्षपात दिखाता है. मध्य प्रदेश और हरियाणा समेत कुछ राज्य सरकारें मंडी में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसल बिकने के बाद किसान के क्रेडिट कार्ड खाते में आई रकम से अनचुके कर्ज की किश्तें काटकर भुगतान करती हैं. यह न केवल क्रूरता और अन्याय है बल्कि अपने हर निर्णय को लाचार किसानों के गले से जबरदस्ती उतारना भी है.

अगर न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बिकी जिंस की कमाई से बकाया कर्ज उगाहना न्यायोचित औजार है तो फिर बैंक इसी तरीके से किसी उद्योग को नया ऋण देते वक्त पिछला बकाया काटकर क्यों नहीं देते.

अनचुके ऋण की उगाही में इस्तेमाल होने वाला एक तरीका- आईबीसी कोड के तहत बहुत बड़ी संख्या में वह मामले हैं जिनमें कंपनियां महज नाममात्र का ‘नजराना धन’ वापस करके 65 से 95 फीसदी ऋण माफ करवा गईं, लेकिन नई शुरुआत करने के लिए उन्हीं को फिर से बैंकों से नए कर्ज भी मिल जाते हैं! यहां तक कि नया कर्ज देते वक्त यह नाममात्र का ‘नजराना धन’ भी नहीं काटा जाता. क्या कभी किसी ने सुना है कि कॉर्पोरेट्स को बहुत भारी कर्ज माफी वाले मामले में, फलां बैंक ने पिछला बकाया काटकर नया ऋण दिया हो.

जून 2020 तक, मीडिया रिपोर्टों के अनुसार देशभर में 1,913 इरादतन ऋण चूक-कर्ता थे जिनसे कुल 1.46 लाख करोड़ उगाहने बाकी थे. इनकी गिरफ्तारी की बात तो दूर, यहां तक कि इनके नाम तक सार्वजनिक नहीं किए जा रहे. दूसरी ओर, पंजाब के किसानों से कर्ज वसूली के लिए सहकारी बैंकों ने गिरफ्तारी वारंट निकलवाने में देर नहीं लगाई.

कृषि पहले ही बहुत बड़े संत्रास से गुजर रही है इसलिए बैंकों को यह अहसास करना जरूरी है कि बकाया ऋण उगाहने के लिए जोर-जबरदस्ती की राह सही नहीं है. किसी भी सूरत में, अगर चूक-कर्ता किसान के लिए गिरफ्तारी वारंट निकाला जा सकता है तो फिर ठीक यही कानूनी प्रावधान कॉर्पोरेट्स पर भी क्यों नहीं लागू किए जाते? क्या यह समय समान न्याय करने का नहीं है?

error: Content is protected !!