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गेहूं की कमी की दहशत के पीछे का असली खेल

देविंदर शर्मा
पिछले कुछ दिनों से गढ़ा जाने वाला यह तर्क कि गेहूं का स्टॉक 16 साल में सबसे कम है और इसलिए गेहूं आयात करने की जरूरत है और वह भी शून्य शुल्क पर, ये समझ से परे होती जा रही है.

हालांकि मैं कुछ प्रमुख अखबारों की बड़ी-बड़ी सुर्खियां और यहां तक ​​कि कुछ संपादकीय टिप्पणियां भी देख पा रहा हूं, जिनका उद्देश्य असल में दहशत पैदा करना है. इसे समझने की ज़रुरत है कि 40 प्रतिशत के मौजूदा आयात शुल्क को खत्म करके, आयात की अनुमति देना आत्मघाती होगा.

इस साल गेहूं का उत्पादन 112 मिलियन टन होने का अनुमान है, जो पिछले साल की तुलना में लगभग 0.2 मिलियन टन अधिक है. वास्तव में, पंजाब ने इस साल अपनी सबसे अधिक गेहूं उत्पादकता दर्ज की है. जहां तक ​​स्टॉक के लिए सरकार की खरीदी का सवाल है, 37.2 मिलियन टन के लक्ष्य के मुकाबले 26.4 मिलियन टन से अधिक गेहूं की खरीद पहले ही हो चुकी है.

मुझे लगता है कि यह कहना कि स्टॉक 16 साल में सबसे कम है, एक ऐसा तर्क है जिसे दहशत की भावना पैदा करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.

यह उस समय की बात है, जब मुख्यधारा के अर्थशास्त्री अधिक उत्पादन की निंदा कर रहे थे, जिसके परिणामस्वरूप गेहूं का स्टॉक भर गया और भंडारण में बर्बादी हुई. उस समय तर्क यह था कि चूंकि देश में खाद्यान्न का भंडार बहुत है, इसलिए एमएसपी को कम करने या इसे स्थिर रखने का समय आ गया है ताकि खरीदी कम हो.

यही तर्क अब दहशत की स्थिति पैदा करने के लिए काम आ रहा है, जिससे आयात की आवश्यकता पड़ रही है.

कभी-कभी मुझे आश्चर्य होता है कि नीति निर्माता किसी भी समय, किसी भी तर्क को सही ठहराने के लिए उसी आधिकारिक डेटा का उपयोग कैसे करते हैं ! अब सारी कोशिश गेहूं के शुल्क-मुक्त आयात की अनुमति देने पर हैं.

इसके अलावा, मुझे यह देखना दिलचस्प लगता है कि कुछ समाचार पत्र यहां तक ​​चेतावनी दे रहे हैं कि अगर सरकार व्यापार के लिए रियायती मूल्य पर खुले बाजार में गेहूं जारी करने में असमर्थ है, तो अगले पखवाड़े में खुदरा गेहूं की कीमतें लगभग 3 रुपये प्रति किलोग्राम तक बढ़ जाएंगी.

यह जानते हुए कि खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों का कोई भी उल्लेख त्वरित प्रतिक्रिया को आमंत्रित करेगा, शक्तिशाली लॉबी आयात शुल्क को समाप्त करने के लिए दबाव बना रही है.

यह पहली बार नहीं है जब आयात शुल्क हटाने की मांग हुई है, लेकिन शायद यह उचित समय है. लॉबी इसी तरह काम करती है. इसलिए आइए, चिंता के कारणों या इतनी घबराहट क्यों पैदा की जा रही है, यह समझने के लिए पूरे गेहूं के विवाद को परिप्रेक्ष्य में रखने का प्रयास करें.

अमेरिकी कृषि विभाग (यूएसडीए) ने पहले ही भविष्यवाणी कर दी है कि घरेलू मांग को पूरा करने के लिए भारत को इस साल गेहूं का आयात करना होगा. यूएसडीए के पास अपना औचित्य हो सकता है लेकिन उत्पादन के आंकड़ों के अनुसार, भारत ने 105 मिलियन टन की घरेलू मांग को पूरा करने के लिए 112 मिलियन टन गेहूं की कटाई की है. इसका मतलब है कि आपूर्ति और मांग की स्थिति में कोई बेमेल नहीं है. इसका मतलब है कि घरेलू उत्पादन में कोई कमी नहीं है.

2007-08 में 5.8 मिलियन टन स्टॉक के मुकाबले, अब 1 अप्रैल को उपलब्धता 7.5 मिलियन टन है. दिलचस्प बात यह है कि जैसा कि मैंने पहले कहा, यह तुलना ही गलत है. 2005-06 में गेहूं की खरीद में भारी गिरावट के बाद, जब भारत ने व्यापारिक कंपनियों को, एपीएमसी मंडियों में खरीद प्रणाली को दरकिनार करते हुए किसानों से सीधे गेहूं खरीदने की अनुमति दी थी, भारत ने अगले दो वर्षों में 7.1 मिलियन टन गेहूं का आयात किया था, जिसकी कीमत यहां के किसानों को दिए जाने वाले मूल्य से दोगुनी थी. अगले कुछ वर्षों में यह खरीदी लगातार बढ़ती गई.

वर्ष 2021-22 में अब तक का सर्वाधिक 43.34 मिलियन टन अनाज खरीदा गया. ये वो साल था, जब खाद्यान्न भंडार 100 मिलियन टन तक पहुंच गया था और एमएसपी वृद्धि पर रोक लगाने की मांग उठ रही थी ताकि खरीदी कम की जा सके. अन्यथा, सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) और अन्य कल्याणकारी योजनाओं के तहत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए खरीद की जाती है. लेकिन अगले साल यानी 2022-23 में रूस-यूक्रेन युद्ध के मद्देनजर, अधिक निर्यात की उम्मीद में निजी कंपनियों द्वारा आक्रामक खरीद ने, इस खरीद को घटाकर 18.2 मिलियन टन कर दिया.

यही वह समय था, जब भारत वैश्विक अन्नदाता बनने की राह पर अग्रसर होने का दावा कर रहा था.

गनीमत रही कि बाद में निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया गया. बाद में स्टॉक लिमिट भी लगा दी गई. कीमतें फिर भी चढ़ती रहीं. जाहिर है, चूंकि पिछले साल उत्पादन में कोई कमी नहीं आई थी, इसलिए सवाल यह उठता है कि जब 13 मई, 2022 से निर्यात प्रतिबंध लगा दिया गया है और स्टॉक लिमिट भी लगा दी गई है, तो खुदरा कीमतें क्यों बढ़ रही हैं?

पिछले वर्ष, किसानों को दिए जा रहे मूल्य से कम कीमत पर, 10 मिलियन टन गेहूं खुले बाजार में जारी होने के बावजूद, गेहूं और आटे की कीमतों में वृद्धि देखी जा रही है.

इसका मतलब है कि आटा मिलों के संघ को खुले बिक्री कार्यक्रम में सब्सिडी वाला गेहूं मिल रहा है और फिर भी कीमतें बढ़ रही हैं. यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि कीमतों में वृद्धि के पीछे जो दिख रहा है, उसकी हकीकत कुछ और है.

क्या आटा उद्योग आने वाले महीनों में अधिक लाभ कमाने की उम्मीद में स्टॉक को रोके हुए हैं? आखिरकार, कीमतों को स्थिर करने के लिए खुले बाजार में जारी 10 मिलियन टन अतिरिक्त मात्रा कोई छोटी मात्रा नहीं है. इस बीच, 2,275 रुपये प्रति क्विंटल के गेहूं खरीद मूल्य के मुकाबले, राजस्थान में ईएनएएम मंडी में बाजार मूल्य 5,740 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गया है. हालांकि यह एक अलग मामला हो सकता है, लेकिन इस साल महाराष्ट्र की कुछ मंडियों में कीमतें अपेक्षाकृत अधिक 2,500 से 3,000 रुपये रही हैं. लेकिन यह अभी भी सामान्य प्रवृत्ति नहीं है.

मुख्य रूप से यह प्रीमियर शरबती किस्म है, जिसकी क़ीमत अधिक मिलती है. ऊंची कीमतों का एक कारण यह है कि राजस्थान ने 2,400 रुपये प्रति क्विंटल की दर से खरीद की थी, जिसमें 125 रुपये प्रति क्विंटल का बोनस भी शामिल है.

अब शून्य शुल्क पर गेहूं आयात के आह्वान पर वापस आते हैं, मुझे कोई कारण नहीं दिखता कि सरकार को आटा मिल संघों के दबाव में क्यों झुकना चाहिए.

आखिरकार, यह सर्वविदित है कि अधिकांश आटा मिलों को तीन बंदरगाहों से सीधे आयातित अनाज उठाना आकर्षक लगता है. यह देखते हुए कि अंतरराष्ट्रीय गेहूं की कीमतें 21,000 रुपये प्रति टन के आसपास मँडरा रही हैं (रूस से आने वाले गेहूं के लिए यह अभी भी कम है), आटा मिल उद्योग को लैंडिंग मूल्य आकर्षक नहीं लगेगा, यदि यह 40 प्रतिशत के आयात शुल्क के साथ आता है.

आयात शुल्क को खत्म करने से, घरेलू आटा मिल उद्योग के लिए गेहूं का आयात, आर्थिक रूप से व्यवहार्य हो जाएगा. इसलिए यह बहुत स्पष्ट है कि गेहूं की खरीदी कीमतों का, गेहूं के साथ-साथ आटे की खुदरा कीमतों में वृद्धि से कोई लेना-देना नहीं है.

दबाव में झुकने और गेहूं के शून्य शुल्क आयात के लिए भारतीय बाजार को खोलने के बजाय, मेरा सुझाव निकट भविष्य में प्रसंस्करण और व्यापार पर नकेल कसना होगा. साथ ही, किसानों के लिए कीमतें बढ़ाने का प्रयास किया जाना चाहिए ताकि उन्हें अधिक उत्पादन के लिए प्रोत्साहित किया जा सके.

एक दीर्घकालिक नीति की बात करें तो स्वामीनाथन फॉर्मूले के अनुसार हमारा ध्यान गेहूं के लिए गारंटीकृत मूल्य प्रदान करने पर होना चाहिए. इसके साथ ही देश भर में एपीएमसी मंडियों के नेटवर्क का विस्तार किया जाना चाहिए.

हालांकि इन सबसे पहले, सरकार को राजस्थान में 2,700 रुपये प्रति क्विंटल पर गेहूं खरीदने के चुनावी वादे पर खरा उतरना चाहिए.

गेहूं के आयात को खोलने के बजाय, नीतिगत जोर 2024-25 के विपणन सत्र के लिए, कम से कम राजस्थान के स्तर पर खरीद मूल्य बढ़ाने पर होना चाहिए. मैंने जो पहले कहा है, उसे दोहराने का जोखिम फिर से उठा रहा हूं-नीति निर्माताओं को यह समझना चाहिए कि खाद्य आयात करना, बेरोजगारी आयात करने जैसा है.

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