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क्या आप भी नकली दवा खा रहे हैं?

डॉ. संजय शुक्ला
अभी पिछले महीने ही कृमिनाशक दवा एल्बेंडाजॉल और आयरन की टेबलेट खाने से दो स्कूली बच्चों की मौत
और 12 बच्चों की तबियत खराब होने की खबरें सामने आई थीं. प्रदेश के वरिष्ठ चिकित्सा विशेषज्ञों की माने तो दवा में मिलावट होने पर भी मौत हो सकती है. बहरहाल इस आशंका की पृष्ठभूमि में केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा हाल ही में कराये गये उस सर्वेक्षण पर गौर करना जरूरी है जिससे यह बताया गया है कि देश में बिकने वाली 0.3 प्रतिशत दवायें नकली हैं तथा 3.16 फीसदी दवा गुणवत्ताहीन और 4 से 5 प्रतिशत दवायें अमानक स्तर की हैं.

मंत्रालय द्वारा नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ बायोलॉजी के जरिए राष्ट्रव्यापी सर्वेक्षण कराया गया, जिसमें शहरी व ग्रामीण इलाकों के रिटेल दवा दुकानों तथा सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं के अंतर्गत आपूर्ति किए जाने वाले आवश्यक श्रेणी में सूचीबद्ध 47,954 दवाओं के नमूने लिये गये. इन नमूनों को केन्द्रीय और राज्य सरकारों की मानक प्रयोगशालाओं में परीक्षण किया गया, जांच में 13 नमूने मिलावटी पाए गये तथा 1850 दवायें अमानक स्तर की पायी गयी.

इनमें से अधिकांश दवाओं की निर्माता विदेशी कंपनियां हैं, जिनकी इकाईयां भारत में हैं. खबरों के अनुसार इस जांच में छत्तीसगढ़ राज्य से लिये गये 828 नमूनों में से 39 दवायें अमानक स्तर की पाई गयी. एक और सर्वेक्षण की माने तो देश में बिकने वाली प्रत्येक सात में से एक दवा अमानक स्तर की है या ऐसी दवायें है जिन्हें अमेरीका, जापान, कोरिया, चीन तथा ब्राजील जैसे देशों ने या तो प्रतिबंधित किया है अथवा अमान्य कर दिया है. लेकिन भारत में ये दवायें आसानी से उपलब्ध हैं.

उद्योग संगठन ऐसोचेम की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में बिकने वाली कुल दवाओं में से 12.5 से 25 प्रतिशत दवायें नकली हैं. आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि भारत नकली दवाओं का तीसरा सबसे बड़ा बाजार है. भारतीय बाजार में नकली दवाओं की भारी मौजूदगी के चलते वैश्विक दवा बाजार में भारत की छवि प्रभावित हुयी है, इसलिए अमरीका ने इस संदर्भ में भारत को निगरानी सूची में रखा है.

यह पहला अवसर नहीं है जब देश के बाजारों तथा सरकारी अस्पतालों में उपलब्ध दवाओं की गुणवत्ता और मानकों पर सवाल उठ रहे हों. आलम यह है कि सरकारी अस्पतालों में मिलने वाली ज्यादातर दवायें गुणवत्ताहीन होने के कारण असरकारक नहीं होती हैं. दरअसल सरकारी खरीदी में क्रय की जाने वाली दवाओं में भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी के चलते ही मरीजों को अमानक और असरहीन दवाईयां मिल रही हैं जिसका खामियाजा आम आदमी को उठाना पड़ रहा है. उसे या तो निजी डॉक्टर की शरण में जाना पड़ रहा है या ऊंची दामों पर बाजार से दवाईयां खरीदनी पड़ रही हैं.

देश की जनता औसतन 58.2 प्रतिशत खर्च अपने स्वास्थ्य पर करती है. इसमें 70 से 77 फीसदी हिस्सा दवाओं पर होने वाला खर्च होता है. दूसरी ओर नकली दवाईयॉं जनस्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा खतरा बनी हुयी है. इन दवाओं के कारण भारत सहित दुनिया के कई देषों में मौते हो रही हैं तथा जीवनरक्षक अंगो पर इन दवाओं का विपरीत असर पड़ रहा है. नकली दवाओं के कारण दुनिया भर में हर साल लगभग 10 लाख मौते होती हैं.

नकली दवाओं का वैश्विक बाजार 90 अरब डॉलर का है जो इस साल 2017 के अंत तक 7 खरब रूपये तक पहुंच सकता है. चीन, जापान, पाकिस्तान, ब्राजील, मैक्सिको और कनाडा नकली दवा के लिए चर्चित देश है. वहीं भारत में दिल्ली, उत्तरप्रदेश, बिहार, हरियाणा, मध्यप्रदेश और गुजरात नकली दवाओं के बड़े बाजार हैं.

नकली दवाओं में सबसे ज्यादा हिस्सेदारी एंटीबायोटिक्स का है क्योंकि इन दवाओं में मोटा मुनाफा मिलता है. इसके बाद सिरप, दर्दनाशक दवाओं का स्थान आता है. देश में चारकोल युक्त दर्दनाशक दवा तथा आर्सेनिक जैसे जहरीली तत्व से बने भूखनाशक नकली दवायें बाजार में उपलब्ध हैं, जिससे लोगों की मौत भी हो सकती है. भारत में केवल ऐलोपैथिक दवाईयां ही नकली, गुणवत्ताहीन और अमानक स्तर के नहीं है अपितु कई आयुर्वेदिक दवाईयां भी गुणवत्ताहीन तथा अमानक स्तर की हैं जो बाजार में धड़ल्ले से खप रहे हैं. विज्ञापनों के माध्यम से बिकने वाली यौन शक्तिवर्धक, मोटापा बढ़ाने व कम करने, गर्भपात एवं अन्य बीमारियों से संबंधित दवायें सेहत के लिए खतरनाक साबित हो रहे हैं.

दरअसल भारत में दवाओं के गुणवत्ता और मानक नियंत्रण हेतु पर्याप्त व्यवस्था और सख्त कानून का आभाव है. केन्द्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन के अनुसार देश में निर्यात से पहले दवाओं के नमूने की जांच की जाती है. निर्यात की जाने वाली दवाओं के लिए ड्रग ऑथेंटिकेशन एंड वेरिफिकेशन एप्लिकेशन यानि ‘दवा ऐप’ लागू किया गया है, जिसके तहत किसी भी चरण में दवा की प्रमाणिकता की जांच की जा सकती है लेकिन यह व्यवस्था घरेलू बाजार में इसलिए लागू नहीं है क्योंकि दवा उत्पादन संयत्रों में जरूरी बदलाव के काफी महंगे होने के कारण दवा निर्माता इस व्यवस्था को लागू करने के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं. लेकिन लोगों की जान की कीमत पर इसे टालना उचित नहीं है.

ड्रग एंड कास्मेटिक एक्ट 1940 के तहत दवाओं की जांच और रिपोर्ट सरकारी अधिकारी व कर्मचारी ही कर सकते हैं. देश में इस अमले की भारी कमी है तथा उच्च तकनीकयुक्त प्रयोगशालाओं का अभाव है. विश्व बैंक के मापदंड के अनुसार देश में 150 केमिस्टों और 50 दवा निर्माताओं के बीच एक औषधि निरीक्षक होना चाहिए जबकि हमारे यहां 1500 केमिस्टों तथा 150 दवा निर्माताओं के बीच एक औषधि निरीक्षक भी नहीं है. जांच प्रयोगशालाओं में मौजूद उपकरणों तथा रसायनों की स्तर व गुणवत्ता अत्यंत दयनीय है.

देश में अमानक, गुणवत्ताहीन तथा नकली दवाओं के उत्पादन और व्यापार में अंकुश लगाने के लिए सख्त कानून का अभाव है. पूर्ववर्ती एन.डी.ए. सरकार ने कार्यकाल में नकली एवं स्तरहीन दवाओं पर लगाम लगाने के उद्देश्य से कड़े नियम बनाकर इस अपराध को गैर जमानतीय श्रेणी में रखने का पहल की थी. सरकार ने इस समस्या के रोकथाम के लिए माषलेकर समिति बनाई थी जिसमें दोषी अपराधियों के लिए मृत्युदंड की सिफारिश की गयी थी. लेकिन आज भी देश में अमानक और नकली दवाओं का गोरखधंधा बदस्तूर जारी है और कानूनी प्रावधान कागजी साबित हो रहे हैं.

*लेखक, शासकीय आयुर्वेद महाविद्यालय, रायपुर में प्राध्यापक हैं.

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