इमरजेंसी का बाप
उर्मिलेश | फेसबुक : पूरब का आक्सफोर्ड कहे जाने वाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक बहुत प्रतिष्ठित प्रोफेसर हुआ करते थे. यह पिछली सदी के आठवें दशक की सच्ची कहानी है. उनका नाम था: डॉ रघुवंश. मेरा सौभाग्य कि हमें उन्होंने पढ़ाया भी था. बेहद ईमानदार और प्रखर चिंतक. हम सब उनसे बहुत प्रभावित रहते थे. पर आज के हिसाब से उनमें एक ‘बुराई’ थी, वह समाजवादी थे, सचमुच के समाजवादी: समानता, जनतंत्र और बंधुत्व के उसूलों में यकीन करने वाले! समय-समय पर गरीबों के पक्ष में आवाज उठाते थे.
सन् 1975 में इमरजेंसी के दौरान उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. जानते हैं, गहन जांच-पड़ताल के बाद उन पर पुलिस ने क्या आपराधिक आरोप लगाया: ‘प्रोफेसर ने भारत की राज्यसत्ता और क़ानून-व्यवस्था के समक्ष संकट पैदा किया. उन्हें बिजली खंभे पर चढ़ कर बिजली तार काटते पाया गया!’
विडम्बना ये थी कि डॉ रघुवंश के दोनों हाथ काम नहीं करते थे. संभवतः बाल्यकाल से ही वह इस तरह की विकलांगता के शिकार थे. बड़ा संघर्ष करके उन्होंने पढ़ाई-लिखाई की होगी. वह अपने पैर की दो उंगलियों में कलम दबाकर अपने असमर्थ हाथों का सहारा देकर लिखते थे.
पर सरकार और पुलिस ने उन्हें बिजली के खंभे पर तार काटते देख लिया और जेल में डाल दिया! बताते हैं कि प्रख्यात विद्वान प्रो हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसकी शिकायत सीधे इंदिरा गांधी से की. इमरजेंसी लगाने के बावजूद इंदिरा जी शायद आज के शासकों की तरह ‘खास एजेंडे’ के तहत नहीं चल रही थीं! थोड़ी संवेदना कायम थी! द्विवेदी जी से सूचना पाते ही डॉ रघुवंश को रिहा कर दिया गया!
देश के कई वरिष्ठ बुद्धिजीवियों, जिनमें प्रख्यात पत्रकार, एडवोकेट और लेखक शामिल हैं; की गिरफ्तारी भारतीय राज्यसत्ता की निरंकुशता के खतरनाक स्तर तक पहुंचने का भयावह संकेत है! इनमें ‘इकोनामिक एंड पोलिटिकल वीकली’ जैसी देश की श्रेष्ठतम पत्रिका से लंबे समय तक सम्बद्ध रहे जाने-माने पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा और आदिवासी हक के लिए आवाज उठाने वाली मशहूर एडवोकेट सुधा भारद्वाज सहित कई बुद्धिजीवी शामिल हैं.
अभी-अभी पता चला कि श्री नवलखा को नजरबंद रखा गया है. संभवतः कोर्ट में कल सुनवाई होगी. दलित मामलों के गंभीर जानकार और विख्यात लेखक आनंद तेलतुंबडे जैसे कई लोगों के महाराष्ट्र स्थित घरों पर छापेमारी की गई है! इनमें ज्यादातर पर जो आरोप लगे हैं, वे राजनीति-प्रेरित और हास्यास्पद हैं! अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाने या असहमति की आवाज़ दबाने के लिए भारत में अब इमरजेंसी लगाने की जरूरत क्या है?
पर इस वक्त जिन लोगों को गिरफ्तार या नजरबंद किया गया है, वे लोग तो सचमुच अपने हाथों से कलम या लैपटॉप चलाते हैं! लेखक, विचारक, एडवोकेट या सामाजिक कार्यकर्ता हैं! दलितों-आदिवासियों और हाशिए के लोगों पर ‘निहित स्वार्थ व संघी-मनुवादी हमलों’ के खिलाफ आवाज उठाते हैं! इन पर बिजली तार काटने का आरोप न लगाकर गरीबों और दलितों को भड़काने या किसी ‘बड़े ओहदेदार’ के खिलाफ कथित साजिश में शामिल होने जैसा आरोप लगाने की हास्यास्पद कोशिश हो रही है! ये इमरजेंसी नहीं, इमरजेंसी से भी बढ़कर, इमरजेंसी का बाप है !