चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति में संविधान के वायरस
कनक तिवारी
अभी-अभी केन्द्र सरकार ने दो नए चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति कर दी है. सेवानिवृत्त दो सरकारी अधिकारियों सुखबीर सिंह सन्धू और ज्ञानेश कुमार की मोदी सरकार ने ताबड़तोड़ नियुक्ति के जरिए आगे का रास्ता साफ कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के मुताबिक निर्वाचन आयेाग को अपनी वेबसाइट पर वह पूरा हिसाब डालना होगा. जो बताए कि देश के किस उद्योगपति या अन्य में कब और कितना चंदा इलेक्टोरल बांड के केचुल से निकालकर राजनीतिक पार्टियों को दिया गया है कि काले धन जैसा वह तथाकथित दान सांप की तरह लोकतंत्र के जिस्म को लगातार डस रहा है.
सरकार कहती रही है कि सब कुछ तो पाक साफ है. लेकिन है कहां? यह भारी भरकम भ्रष्टाचार कुछ वर्षों से जनतांत्रिक खून के साथ मवाद के रूप में बहता रहा है. आमजन और विरोधी पार्टियों के नेता बल्कि सुप्रीम कोर्ट तक कुछ सार्थक कहां कर पा रहे थे. देर आयद दुरुस्त आयद के मुहावरे के अनुरूप आखिर सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस धनंजय चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने 11 मार्च 2024 को दो टूक कहा कि इस गोरख धंधे का पूरा खेल खोलकर सबको बताना होगा.
स्टेट बैंक ऑफ इंडिया वह वित्तीय संस्था है जिसके अधिकार और खाते के जरिए इलेक्टोरल बांड का पूरा लेन देन होना कहा गया है. बैंक को 26 दिन का समय भी दिया गया. 24 दिन बीतने के बाद स्टेट बैंक के अधिकारी ने शातिराना अंदाज में कहा कि उन्हें जून के अंत तक का समय चाहिए क्योंकि हिसाब किताब बहुत पेचीदा और तकनीकी उलझन का भी है. यह सीधी सीधी सुप्रीम कोर्ट की आंख में धूल झोंकने की ढिठाई थी. कोर्ट ने इसे ताड़ ही लिया और कहा अब तो 24 घंटे में ही हिसाब देना होगा.
निर्वाचन आयोग को भी हिसाब मिलने पर 15 मार्च तक अपनी वेबसाइट पर उसे सार्वजनिक करते हुए लोड करना पडे़गा. जो काम भलमनसाहत तक हो सकता था उसे स्टेट बैंक ने केन्द्र सरकार के इशारे पर टालमटोल करने की कोशिश की. सुप्रीम कोर्ट ने अपने सख्त तेवर दिखाए तो घिग्घी बंध गई. और बैंक और उनके पीछे छिपी शक्तियां अपनी औकात में आ गईं.
एक दिलचस्प संवैधानिक विवाद सुप्रीम कोर्ट में पड़ा ही है. चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति का प्रावधान अंतिम रूप से संविधान के अनुच्छेद 324 में है. वह मोटे तौर पर कहता है कि संसद और विधानसभाओं के लिए तथा राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पदों के लिए भी चुनाव कराने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग पर होगी.
चुनाव आयोग में फिलवक्त एक मुख्य चुनाव आयुक्त और दो चुनाव आयुक्त पदासीन होते हैं. उन्हें राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाने का संवैधानिक प्रावधान है. राष्ट्रपति को ही प्रदेशों के निर्वाचन के लिए प्रादेशिक चुनाव आयुुक्त नियुक्त करने का भी अधिकार सौंपा गया है.
पढ़ने में तो यह पूरा प्रावधान बहुत मासूम लगता है लेकिन इसके पीछे की कहानी का खुलासा करने से पता चलेगा कि संविधान निर्माता मासूम पुरखों ने जो सोचा और कहा, और भविष्य की संसदों और सरकारों से जो उम्मीद की, उसके साथ किस तरह नीयतन धोखा किया जा रहा है. आम लोगों को संविधान के प्रावधानों और उसकी पृष्ठभूमि में हुए गुलगपाड़ों की जानकारी कहां हो सकती थी? लेकिन जानकारी अब होना ज़रूरी है. वरना यह पूरा मामला समझ नहीं आएगा.
30 अप्रेल 1947 को यूनियन अर्थात् केन्द्र अर्थात संघ के लिए संविधान समिति बनी. इस समिति में जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आज़ाद, गोविंद वल्लभ पंत, जगजीवन राम, बी. आर. अम्बेडकर, सर अलादि कृष्णास्वामी अय्यर, कन्हैय्यालाल माणिकलाल मुंशी, के. टी. शाह, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, सर वी. टी. कृष्णमाचारी, सरदार के. एम. पनिक्कर और सर एन. गोपाल स्वामी अयंगर मनोनीत किए गए.
समझना ज़रूरी है कि इनमें से करीब आधे सदस्य तो आज़ादी की लड़ाई के योद्धा नहीं थे. तीन ऐसे थे जिन्हें ब्रिटिश हुकूमत ने ‘सर‘ के खिताब से नवाज़ा था. साफ समझा जा सकता है कि उनकी जनतांत्रिक प्रतिबद्धताएं खाक रही होंगी. भारत का संविधान दुनिया की सबसे बड़ी ज़म्हूरियत के ख्वाहिशमंद अवाम का रहा है. वो सदियों से सामंतों, नवाबों और राजाओं की गुलामी में बिसूरते रहे हैं.
आज़ादी का सूरज उनके जीवन में आत्मविश्वास की रोशनी लाया था. उनके और अगली पीढ़ियों का भविष्य का लेख लेकिन उन हाथों द्वारा ज़्यादा लिखा गया जो अवाम की जनतांत्रिक जिजीविषा से संबद्ध नहीं थे. वे किताबी कीड़े थे. आलिम फाज़िल थे. आला दरजे के व्यावसायिक, प्रशासनिक विद्वान भी थे. समाज के ऊंचे तबके के प्रतिनिधि थे.
उन पर वक्त, इतिहास और संयोग ने ज़िम्मेदारी डाल दी थी कि दुनिया की सबसे बड़ी ज़म्हूरियत के करोड़ों लोगों के भविष्य का लेख अपने हाथों लिखें. उन्होंने यह किया. संविधान में ऐसे कई प्रावधान हैं जहां जनतांत्रिकता को ब्रिटिश हुकूमत की संवैधानिक परंपराएं और मर्यादाएं अपने कोड़े द्वारा फटकार रही हैं.
फिर भी आज की सत्तानशीन पीढ़ी जनता को ऐसी जनविरोधी परिकल्पनाओं को भी जज़्ब करने की सलाह दे रही है. वैसे तो वक्त के तेवर उनकी खारिजी के लिए मौसम और भविष्य ढूंढ़ रहे हैं. उन्हें संविधान की पोथी से नोचकर फेंक दिया जाने की ज़रूरत साकार होना चाहती है. चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के मामलों का घालमेल ऐसा ही एक बेहद ज्वलंत उदाहरण है.
हुआ यह कि संघ संविधान समिति ने सिफारिश की कि किस तरह का चुनाव आयोग बने. उस इरादे को संविधान सभा की कार्यवाही में 2 मई 1947 को बिना बहस के मंजूर कर लिया गया. बहस तो आगे होनी थी. 29 जुलाई 1947 को सर गोपाल स्वामी आयंगर ने संघ संविधान समिति के इरादों के संदर्भ में गठित होने वाले चुनाव आयोग को लेकर कहा कि चुनाव आयोग की नियुक्ति के प्रावधान का मकसद है कि सभी चुनाव चाहे केन्द्र या प्रदेशों के लिए हों एक ही एजेन्सी से किए जाएं.
विचार यह है कि राष्ट्रपति एक कमीशन या आयोग नियुक्त करें. उस आयोग के जरिए चुनाव का संचालन और चुनाव के बाद की सभी गतिविधियों का नियमन और नियंत्रण किया जा सकेगा. उन्होंने कहा संविधान सभा जानती है कि चुनाव की प्रणाली और उसके संचालन के दुरुपयोग और चुनाव के समय होने वाले भ्रष्टाचार की शिकायतें सारे देश में की जाती रही हैं. (अचरज है तब तक तो भारत आज़ाद भी नहीं हुआ था. तो किस चुनाव प्रणाली या भ्रष्टाचार का हवाला दिया गया.) इस प्रावधान का मकसद है कि चुनाव संबंधी सभी गतिविधियों पर एक स्वायत्त केन्द्रीय संस्था का नियंत्रण हो.
आयंगर को समर्थन देते डॉ. अम्बेडकर ने अपनी महत्वपूर्ण हैसियत में कहा कि चुनाव आयोग के गठन की बात इस तरह पैदा हुई कि इस पर मूल अधिकारों की समिति ने अपने नतीजे में कहा था कि चुनावों की जिम्मेदारी कार्यपालिका अर्थात् नौकरशाही पर छोड़ दी जाए, तो खासतौर पर अल्पसंख्यकों को तो कोई गारंटी नहीं ही दी जा सकती कि चुनाव निष्पक्ष होंगे.
इसलिए तय हुआ कि कार्यपालिका के तहत चुनाव होंगे और उसे पूरे अधिकार दे दिए जाएं. तो वह चुन चुनकर अधिकारियों को यहां से वहां अपने अनुकूल चुनाव कराने के लिए तबादले कर सकती है.
मूल अधिकारों की समिति ने एक मत से तय किया कि चुनावों को पवित्र और न्याययुक्त ढंग से संपन्न कराने के लिए सबसे अधिक सुरक्षा तब होगी जब उसे कार्यपालिका अर्थात् नौकरशाही के हाथ में रखने के बदले किसी स्वतंत्र प्राधिकारी को सौंपा जाए. एक अन्य ज़िम्मेदार सदस्य के संदेह पर उत्तर देते हुए गोपाल स्वामी आयंगर ने फिर कहा कि चुनावों का वास्तविक संचालन और नियंत्रण तो चुनाव आयोग में ही होगा और पर्यवेक्षण का अधिकार भी. अन्य सहूलियतों और साधनों के लिए राज्य सरकारों से सहयोग करने कहा जा सकता है.