चुनावी नौकरी बाद में जाती कहां है?
डॉ. संजय शुक्ला
भारतीय लोकतंत्र में युवा मतदाता अब चुनावी राजनीति को प्रभावित करने का सबसे बड़ा जरिया बनता जा रहा है. एक साल के भीतर गुजरात और हिमाचल प्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव और 2024 के आगामी आम चुनाव के मद्देनजर विभिन्न राजनीतिक दल चुनावी राज्यों में बेरोजगारों को लाखों नौकरियां बांटने की लगातार घोषणा कर रहे हैं.
हाल ही में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने केंद्र सरकार के 10 लाख पदों पर भर्ती के लिए रोजगार मेले का शुभारंभ करते हुए 75 हजार नव नियुक्त कर्मियों को नियुक्ति पत्र सौंपा. इसी तरह भाजपा ने हिमाचल प्रदेश में 8 लाख नौकरी तथा गुजरात में 10 लाख नौकरियां पैदा करने के लिए ‘ गुजरात इलेक्ट्रॉनिक नीति 2022-28’ की घोषणा की है, जिसमें साल 2028 तक 10 लाख युवाओं को रोजगार देने का लक्ष्य रखा गया है. दूसरी ओर विपक्ष ने गुजरात में भाजपा द्वारा जारी इलेक्ट्रॉनिक नीति को महज चुनावी घोषणा बताया है. उसका कहना है कि जब चुनाव नजदीक है तब यह नीति महज कागजी पुलिंदा है.
चुनावी मौसम में केवल सत्तारूढ़ पार्टी ही युवाओं को नौकरी का सुनहरा सपना दिखा नहीं रही है बल्कि विपक्ष भी बेरोजगारों को लाखों नौकरियां बांटने का वादा कर रही है.
कांग्रेस पार्टी हिमाचल प्रदेश में हर साल 1 लाख नियुक्ति के अनुपात में पांच साल में पांच लाख नियुक्तियां तथा गुजरात में 10 लाख आउटसोर्सिंग कर रहे युवाओं सहित 5 लाख संविदा कर्मियों को सरकारी सेवा में नियमित करने का वादा कर रही है. आम आदमी पार्टी यानि “आप” के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल गुजरात के हर युवा को रोजगार और हिमाचल प्रदेश में 6 लाख युवाओं को नौकरी तथा बेरोजगारों को रोजगार मिलने तक हर महीने 3 हजार रुपए बेरोजगारी भत्ता देने का भरोसा दिला रहे हैं.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी के ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का एक प्रमुख मुद्दा देश में बढ़ती बेरोजगारी भी है. गौरतलब है कि भारत दुनिया की सबसे बड़ी युवा आबादी वाला देश है जहां बेरोजगारी की विकराल समस्या सरकारों के लिए चुनौती है. नोटबंदी,जीएसटी, कोरोना महामारी और वैश्विक आर्थिक मंदी ने बेरोजगारी की समस्या को और भी गंभीर बना दिया है.
लोकसभा के बीते मानसून सत्र में सरकार ने बताया है कि विगत आठ वर्षों में 22.05 करोड़ लोगों ने केंद्र सरकार के विभिन्न नौकरियों के लिए आवेदन किया, जिसमें महज 7.22 लाख लोगों को नौकरी मिली. यह आंकड़ा केवल केंद्रीय सेवाओं का है राज्य सरकारों के आंकड़े भी अमूमन यही चुगली कर रहे हैं. सरकारी आंकड़े ही बता रहे हैं कि पिछले छह वर्षों में केवल बेरोजगारी ही नहीं बढ़ी बल्कि बेरोजगार युवाओं में आत्महत्या का प्रतिशत भी बढ़ा है.
विडंबना है कि हमारे राजनीतिक दल संसद और विधानसभाओं में युवाओं में बढ़ती बेरोजगारी और आत्महत्या के स्थायी समाधान के लिए सार्थक बहस की जगह देश में धर्म और जाति की सियासत को आगे बढ़ा रहे हैं. चुनावों के दौरान अपने चुनावी घोषणापत्र और प्रचार अभियान में युवाओं को रोजगार देने के वादों की झड़ी लगाने वाले राजनीतिक दल नतीजों के बाद इन वादों की आड़ में महज सियासी तलवार ही भांजते रहते हैं और बेरोजगार अपने आप को ठगा महसूस करते हैं.
इसकी बानगी यह कि कांग्रेस लगातार आरोप लगा रही है कि साल 2014 के आम चुनाव अभियान के दौरान प्रमुख विपक्षी दल भाजपा ने हर साल 2 करोड़ युवाओं को रोजगार देने का वादा किया था लेकिन भाजपा ऐसे किसी भी घोषणा से इंकार कर रही है. दूसरी ओर उत्तरप्रदेश और बिहार के पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान सत्तारूढ़ दल सहित विपक्षी दलों ने 1 करोड़ से लेकर 20 लाख नौकरियों के वादे किए थे लेकिन सबसे ज्यादा बेरोजगारी दर इन्हीं राज्यों में है.
आलम यह कि चुनाव के दौरान युवाओं को रोजगार और बेरोजगारी भत्ता देने की वादा करने वाली सत्तारूढ़ पार्टी खुद अपने वादों से मुकर जाती हैं अथवा अपने घोषणा को अलग ढंग से परिभाषित करती हैं. सियासी दलों की जवाबदेही है कि वे अपनी राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि के लिए युवाओं को छलना बंद कर उनके हाथ रोजगार देने की दिशा में कारगर प्रयास करें.
देश के युवा अपने साथ हो रहे वादाखिलाफी से आक्रोशित हैं और उनका असंतोष अब सड़कों पर दिखाई दे रहा है. दुखदाई यह कि सरकार और प्रशासन बेरोजगार युवाओं के असंतोष को कुचलने के लिए उनके पीठ पर लाठी बरसा रही है, जिसके कई उदाहरण देश भर में नज़र आते हैं.
रोजगार का सीधा संबंध शिक्षा और कौशल उन्नयन से है. देश की एक बड़ी आबादी सरकारी शिक्षा व्यवस्था पर निर्भर है लेकिन प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा की गुणवत्ता इतना लचर है कि इन संस्थानों के छात्र अकादमिक डिग्री लेने के बावजूद आज की नौकरी के लायक नहीं है. दूसरी ओर देश में शिक्षा के क्षेत्र में आर्थिक स्तर पर व्यापक असमानता है, फलस्वरूप निम्न मध्यवर्गीय और ग्रामीण परिवेश के युवा सेना, पुलिस और अन्य सरकारी सेक्टर के निचले दर्जे व ग्रुप सी एवं डी की नौकरी को ही अपना लक्ष्य मान कर सालों मेहनत करते हैं लेकिन सरकार इन पदों को लगातार खत्म कर रही है.
इन परिस्थितियों में युवाओं को आखिरकार लाखों रोजगार कैसे हासिल होगा? शायद इसका उत्तर सरकार के पास भी नहीं है.
आने वाले समय में मशीनीकरण और आटोमेशन, डिजिटिलाइजेशन, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के दौर में वैसे भी अनेक सामान्य नौकरियां खत्म हो जाएंगी. लिहाजा देश की युवा पीढ़ी को डिग्रियों और सरकारी नौकरी के पीछे भागने के बजाय नए क्षेत्र में रोजगार या स्वरोजगार के लिए खुद को तैयार करना होगा. इसके अलावा कृषि और गांव आज भी सबसे ज्यादा रोजगार प्रदाता क्षेत्र है, जिसकी ओर युवाओं को प्रेरित करना होगा.
गांव से जुड़े कृषि, डेयरी, मछ्ली और कुक्कुट पालन, बागवानी, ग्रामीण शिल्प ऐसे व्यवसाय है जो युवाओं को रोजगार देने के साथ ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती दे सकते हैं लेकिन इसके लिए गांवों को साधन संपन्न बनाना होगा. सरकारों को इस दिशा में दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाते हुए शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में नौकरी और स्वरोजगार के लिए अनुकूल रोजगार नीति बनानी होगी ताकि युवा शक्ति का रचनात्मक उपयोग राष्ट्र निर्माण में संभव हो सके.