Columnist

अंग्रेजों के मैले के टोकरे

सुनील कुमार
अभी एक साधारण से विश्वविद्यालय में हुए एक सरकारी समारोह में जाना हुआ, तो पूरा सभागृह तो ठंडा नहीं था, लेकिन स्टेज पर दोनों तरफ बड़े-बड़े टॉवर-एसी लगा दिए गए थे, ताकि मंच पर सूट-बूट और टाई में जकड़े हुए लोग चैन से बैठ सकें. इन दिनों बड़ी-बड़ी आमसभाओं में भी जहां लोग चिलचिलाती धूप में घंटों बैठते हैं, वहां कुछ देर के लिए मंच पर आने वाले लोगों के लिए भी किनारों पर इस तरह एसी लगाए जाते हैं कि नीचे के लोगों को न दिखें. और ऐसे तमाम मंचों पर लोग या तो जॉकेट और कोट में रहते हैं, या टाई पहने रहते हैं, बूट तो पहने ही रहते हैं.

दूसरी तरफ अभी कुछ दिन पहले खबर आई कि बढ़ती हुई गर्मी को देखते हुए छत्तीसगढ़ की अदालतों में वकीलों के काले कोट पहनने पर कुछ समय के लिए छूट दी गई है. लेकिन हम रोज हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की तस्वीरें खबरों में देखते हैं जिनमें वकील काले कोट से लदे हुए दिखते हैं, और जज तो पता नहीं कैसे जादूगरों से काले लबादे भी ओढ़े हुए रहते हैं. सुप्रीम कोर्ट में शायद कुछ या सभी वकीलों को अदालत के भीतर जजों के सामने ऐसे लबादे भी ओढऩे होते हैं.

रेलवे स्टेशनों पर देखें तो टीटीई भरी गर्मी में, खुले प्लेटफॉर्म पर भी काले कोट से लदे रहते हैं, और सरकारी कार्यक्रमों में एसी हॉल में पहुंचने वाले अफसर, एसी कार से जाते हुए सूट-बूट और टाई में रहते हैं. कारोबार की दुनिया में जो बड़े लोग रहते हैं, उनसे भी यह उम्मीद की जाती है कि वे इसी तरह की पोशाक में रहें जो कि हिन्दुस्तान जैसे देश के लिए न बनी थी, और न ही आज काम की है.

हिन्दुस्तान के इतिहास की तस्वीरों को अगर देखें तो लखनऊ, बनारस, और कोलकाता के असली रईस लोग कुछ सौ बरस पहले हिन्दुस्तानी मौसम के लिए माकूल धोती-कुर्ते या पजामे में दिखते थे, और ठंड के मौसम में जरूरत के मुताबिक जाकिट पहन लेते थे. शायद अंग्रेजों के आने के बाद से इस तरह की पोशाक का चलन बढ़ चला जिसे कि अंग्रेज पहनते थे अपने देश में, लेकिन वे जब यहां आए तो वे वही पोशाक जानते थे. फिर एक शासक अपने गुलाम देश की पोशाक तो अपना भी नहीं सकता था, इसलिए अंग्रेज यहां की गर्मी में भी अपने ही अंग्रेजी कपड़ों में बने रहे, और चूंकि शासक समाज के स्तर के पैमाने तय करता है, इसलिए उसके नीचे के सारे गुलाम हिन्दुस्तानी वैसे ही कपड़ों का इस्तेमाल करने लगे, और हिन्दुस्तान जैसी भयानक गर्म जगह में भी लोग कोट और टाई पहनने लगे.

नतीजा यह हुआ कि आज गली-मोहल्लों में खुलने वाली छोटी-छोटी अंग्रेजी स्कूलों के छोटे-छोटे बच्चों के गलों में भी दुमछल्ले की तरह एक टाई टांग दी जाती है, और मैनेजमेंट जैसी महंगी पढ़ाई करवाने वाले कॉलेज या इंस्टीट्यूट एक महंगा माहौल बनाने के लिए गर्म शहरों में भी छात्र-छात्राओं को कोट और टाई में बांधकर रखने लगे हैं.

यह पूरा सिलसिला निजी प्रताडऩा का तो है ही, इसकी वजह से देश की बाकी जनता का भी एक बहुत बड़ा नुकसान हो रहा है. गर्म जगह या गर्म मौसम में सरकार, राजनीति, अदालत, या जनता के पैसों पर चलने वाले दूसरे पेशों में लोग जब गर्म कपड़े पहनकर बैठते हैं, तो जाहिर है कि वे कमरों को बेहद ठंडा बनाकर रखते हैं, ऐसे कपड़ों के बिना जितने ठंड की जरूरत न पड़ती हो, उतना ठंडा. नतीजा यह होता है कि जनता के पैसों की बिजली अंग्रेजों की छोड़ी हुई उतरन को ढोने के लिए खर्च हो रही है, और देश का एक बड़ा हिस्सा जब एक पंखे की बिजली भी नहीं पाता है, तब देश का यह चुनिंदा शासक वर्ग कोट और टाई के भीतर भी बदन को ठंडा रखने के लिए अंधाधुंध एयरकंडीशनिंग का इस्तेमाल करता है.

पिछली यूपीए सरकार के वक्त केन्द्र में पर्यावरण मंत्री रहे जयराम रमेश ने जब दिल्ली में अपने मंत्रालय की इमारत बनवाना शुरू किया, तो उन्होंने पहली शर्त यह रखी कि यह इमारत साल भर में बिजली का शून्य उपयोग करेगी. अगर कुछ महीनों में कुछ बिजली लेगी, तो बाकी महीनों में उससे ज्यादा बिजली सौर ऊर्जा से बनाकर उसे इलेक्ट्रिक ग्रिड में वापिस लौटा देगी. उन्होंने इमारत डिजाइन करने वाले लोगों को उसे ठंडा रखने के लिए कई तरकीबें बताईं, और ठंड में गर्म रखने के लिए भी कई तकनीकों का इस्तेमाल करवाया. इसके साथ-साथ उन्होंने दफ्तर और मीटिंग-रूम्स का तापमान 27 डिग्री से नीचे न रखने के लिए इंतजाम करवा दिया. उनका कहना था कि लोग गर्मी में भी कोट और टाई पहनकर काम करते हैं, इससे ज्यादा अच्छा है कि वे कोट-टाई टांग दें, और साधारण कपड़ों में कम ठंड के बीच काम करें. आगे पढ़ें

error: Content is protected !!