तानाशाह की मुश्किल
सचिन श्रीवास्तव | फेसबुक
तानाशाह मुश्किल में है. तानाशाह को मुश्किल में होना भी चाहिए. तानाशाह जानता है कि आज तक किसी की तानाशाही अनंतकाल तक क्या, लंबे समय तक भी नहीं चली. कुछ भ्रम जरूर हुए लेकिन असल में तानाशाह खाक में मिले हैं. तानाशाही का गुरुर चकनाचूर हुआ है. तो तानाशाह मुश्किल में है. फिलहाल जनता तानाशाह की मुश्किल नहीं है, क्योंकि वह समझता है कि उसे जनता को लड़ाना, भिड़ाना और गैरजरूरी मसलों में उलझाए रखना आ गया है. आंशिक रूप से यह सही भी है. लेकिन फिलहाल तानाशाह की मुश्किल अलग हैं.
पहली बात तो तानाशाह की बड़ी मुश्किल यह है कि वह किसी पर भरोसा नहीं कर सकता. उसे हर समय डर रहता है. उसके करीबियों से, आसपास के लोगों से, उसके दरबारियों से, हां में हां मिलाने वाले से. वह जानता है, और अच्छी तरह जानता है कि इनमें से कोई भी सही मायने में उसे पसंद नहीं करता है. जनता भले ही करने लगी हो, उसके छवि निर्माण के बाजीगर दस्तों के कारण. लेकिन आसपास के लोग तानाशाह का असली चेहरा जानते हैं जानते हैं कि उसके शरीर पर जनता की तकलीफों का कितना मवाद बह रहा है.
दूसरी बात, तानाशाह के करीबी खुद भी तो तानाशाह बनना चाहते हैं. वे बस मौक की तलाश में रहते हैं. जानते हैं कि तानाशाह को भनक भी लग गई कि वह खुद तानाशाह बनना चाहते हैं कि तो वह कहीं के नहीं रहेंगे. इतिहास में ऐसे कई मामले दर्ज हैं जब एक तानाशाह को उसके ही करीबी से चुनौती मिली तो किसी दुर्घटना में, किसी बीमारी में, किसी अन्य कारण से वह संभावित तानाशाह दूसरी दुनिया में चला गया.
तीसरे, तानाशाह के फैसले से कुछ लोग नाराज होते हैं. उसका साथ खुलकर छोड़ने लगते हैं. वे उसके प्राचीनतम सहयोगी भी हो सकते हैं. जैसे मान लीजिए कोई तानाशाह किसानों, काश्तकारों के खिलाफ कोई फैसला लेते हैं. लेकिन उसका कोई सहयोगी, कहीं किसी सूबे में उसकी प्रजा ही पूरी तरह काश्तकारी पर निर्भर है तो फिर वह अपनी ताकत, अपनी जनप्रियता की खातिर खुले तौर पर तानाशाह के खिलाफ जाता है, हालांकि वह बगावती तेवर नहीं अपनाता. बस उसका साथ छोड़ देता है, क्योंकि जानता है कि अभी बगावती तेवर का सही वक्त नहीं है. अभी तानाशाह बस परेशान है, कमजोर नहीं.
असल समस्या यहीं से शुरू होती है. यही तानाशाह की मुश्किल है. तानाशाह जानता है कि उसे अपनी हनक बरकरार रखने के लिए जो फैसले लेने हैं, उससे उसके कई सहयोगी किनारा कर सकते हैं. इस तरह वह कमजोर होगा. उसकी यह कमजोरी एक बार जनता के सामने आई तो फिर वह कहीं का नहीं रहेगा.
हालांकि यह तेज हो रहा है. सहयोगियों से विमर्श करना तानाशाह की आदत नहीं होती. उसके पूर्व तानाशाह भी ऐसा ही करते रहे हैं. वह उसे एक गुण की तरह देखता है. तुरंत फैसले बिना किसी से विचार विमर्श किए बस अपनी ही मोटी बुद्धि से किए फैसले लेना वह अपनी शान समझता है. लेकिन इससे करीबियों, सहयोगियों को मुश्किल होने लगी है. वह दरबारी के तौर पर कसीदे तो पढ़ रहे हैं. लेकिन अंदर कचोट है. यह कचोट बाहर आने लगी है.
तानाशाह जानता है कि उसके लिए खेल को लंबा चलाए रखना है, तो कुछ और कड़े फैसले करने होंगे, जनता को कुछ और दबाना होगा. कुछ और डंडे का जोर दिखाना होगा.
बस यहीं तानाशाह अपनी सबसे बड़ी भूल करता है. क्योंकि एक हद के बाद जनता, घिघियाई हुई, मार खाती, जैसे तैसे जीती, अलग अलग वर्गों में बंटी जनता-एक हो जाती है और तानाशाह को मटियामेट कर देती है.
तानाशाह इसी इतिहास से खौफ खाता है. वह इसे बदलना चाहता है, पहले किताबों में, फिर जमीन पर, लेकिन आज तक ऐसा मुमकिन नहीं हुआ.